किसान आंदोलन और पुलिस की भूमिका

विजय शंकर सिंह

किसान आंदोलन के दौरान 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के लाल किले में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुयी। एक तो लाल किले में तिरंगा ध्वज से कुछ दूर हट कर सिख धर्म का प्रतीक निशान साहिब फहराया गया और वहां उपस्थित किसानों की भीड़ और पुलिस के बीच झड़प हुयी। अखबार और मीडिया की मानें तो, कुल 400 पुलिसजन घायल हुए। शुरू में यह भ्रम फैलाया गया कि वहां से तिरंगा को हटा कर उसकी जगह निशान साहब को फहराया गया लेकिन कुछ ही देर में जब स्थिति स्पष्ट हुयी तो यह साफ हो गया कि तिरंगा अपनी जगह है और निशान साहब को कुछ दूर एक अलग पोल पर फहराया गया है।  पुलिस ने, लाल किला पर जो विवाद और हंगामा हुआ उसके बारे में किसान नेताओ के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए और कुछ की गिरफ्तारी भी गई, हालांकि इसमें कोई महत्वपूर्ण किसान नेता नहीं है। बाद में इस पूरी घटना को अंजाम देने वाले, दीप सिद्धू का नाम सामने आया, जो गुरुदासपुर से भाजपा सांसद सन्नी देओल का करीबी है और उसकी निकटता, प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री से भी है। अब इस विवाद ने राजनीतिक रंग ले लिया, और यह कहा जाने लगा कि, यह सारा हंगामा भाजपा के लोगों के साथ मिलकर किसान आंदोलन को तोड़ने के लिये सरकार की शह पर कराया गया है और इस मामले में दिल्ली पुलिस की भी मिलीभगत है।

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इस घटना पर कुछ वरिष्ठ पुलिस अफसरों की भी प्रतिक्रिया आयी। पंजाब के डीजीपी रह चुके देश के सम्मानित पुलिस अफसर जेएफ रिबेरो ने दिल्ली पुलिस के राजनीतिकरण पर सवाल उठाते हुए यह कहा कि ऐसे जनांदोलनों में पुलिस की भूमिका एक प्रोफेशनल पुलिस बल की तरह होनी चाहिए। यह बात सबको समझ लेनी चाहिए कि, सरकार की भी यह जिम्मेदारी है कि वह पुलिस बल को किसी भी राजनैतिक विवाद से बचाये और कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये पुलिस का गैरराजनीतिक और प्रोफेशनल स्वरूप बनाये रखे। एक नागरिक बल होने के कारण, पुलिस, सेना की तरह अराजनीतिक बल तो नहीं हो सकती है, लेकिन जन आंदोलन के दौरान बिना किसी राजनीतिक झुकाव के अपने दायित्व का निर्वहन तो कर ही सकती है, और उसे ऐसा करना भी चाहिए।

आंदोलन और पुलिस

लाल किले की घटना के बाद 29 जनवरी को सिंघू बॉर्डर पर प्रदर्शनस्थल ने सौ मीटर दूर करीब सौ-डेढ़ सौ लड़के आए और प्रदर्शनकारी किसानों की ओर पत्थर फेंकने लगे। जब किसानों ने भी जवाब दिया तो, दोनों तरफ से पत्थर चलने लगे। फिर पुलिस ने हस्तक्षेप तो किया पर पत्थर फेंकने वालों को, भगाया नहीं। वे सौ मीटर दूर खड़े होकर रह – रह कर पत्थर फेंकते रहे। यहीं यह सवाल उठता है कि पुलिस ने उन्हें वहां जाने से रोका क्यों नहीं, जहां पीने का पानी ले जाने पर भी पाबंदी है ? इन्हें दिन भर मीडिया, ‘नाराज स्थानीय लोग’ बताता रहा, पर वे हिंदू सेना के लोग निकले, जिन्होंने, विरोध प्रदर्शन आयोजित किया था। ऑल्टनयूज़ ने अपनी एक जांच पड़ताल में विस्तार से इस घटना और साज़िश का उल्लेख किया है।

ऐसी ही एक घटना पिछले साल, जेएनयू में हुयी थी, जहां पुलि‍स संरक्षण में गुंडे घुसे थे, दंगे हुए, और आज तक दंगे करने वाले गुंडे पहचाने जाने के बाद भी गिरफ्तार नहीं किये गए। इसी प्रकार की साज़िश, दिल्ली दंगो के दौरान भी हुयी थी। कपिल मिश्र और रागिनी तिवारी के भड़काऊ भाषणों के बावजूद भी आज तक दिल्ली पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नही की। क्या यह पुलिस का राजनीतिक एजेंडे के अनुसार सेलेक्टिव कार्यवाही करना नहीं कहा जायेगा ?

किसान आंदोलन के दौरान ऐसे अनेक वीडियो और खबरे सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे है, जिनमे पुलिस कार्यवाही पर लगातार सवाल उठ रहे हैं।  यह आंदोलन, निश्चित रूप से, सरकार के खिलाफ है और सरकार द्वारा बनाये गए कुछ कानूनो के खिलाफ है। आंदोलन, धरना, प्रदर्शन, जुलूस आदि जन अंसन्तोष के लोकतांत्रिक अधिकार हैं। यदि यह आंदोलन शांतिपूर्ण है और सरकार बदलने की मंशा से भी है, तो भी पुलिस का दायित्व यह है कि वह इस आंदोलन को शांतिपूर्ण ढंग से चलने दे। लेकिन जब आंदोलन विरोधी असामाजिक तत्व इस आंदोलन को जानबूझकर कर उकसा रहे हैं और पुलिस उनके साथ खड़ी दिखती है तो, जितने सवाल असामाजिक तत्वों की भूमिका पर नही उठेगे, उससे अधिक सवाल पुलिस की भूमिका पर उठेंगे और यह सवाल उठ भी रहे है। एक महत्वपूर्ण विंदु यह भी है कि क्या गुंडों के दम पर किसी लोकतांत्रिक जन आंदोलन को खत्म या दबाया जा सकता है ?

लाल किला और सिंघू बॉर्डर से जुड़े, मुख्य दंगाइयों की फ़ोटो भाजपा नेताओं के साथ सोशल मीडिया पर लगातार आ रही हैं। यह भी एक दुःखद तथ्य है कि, आज तक देश के किसी भी गृहमंत्री के साथ दंगाइयों की इतनी तस्वीरे सोशल मीडिया पर नहीं नज़र आयीं जितनी आज कल नज़र आ रही है। इससे साफ साफ यह निष्कर्ष निकल रहा है कि कानून व्यवस्था से निपटने के लिये पुलिस की यह रणनीति, चाहे वह राजनीतिक दबाव के कारण हो या किसी अन्य स्वार्थ के वशीभूत, कानून व्यवस्था को तो और खराब करेगी ही, साथ ही पुलिस की साख और क्षवि पर ऐसा बट्टा लगा देगी, जिससे उबरने में बहुत समय लग जायेगा। सरकार को भी, तमाम राजनीतिक और आर्थिक एजेंडे के बीच यह ध्यान रखना होगा कि, जब तक कानून व्यवस्था की स्थिति ठीक नही रहती है, तब तक किसी भी प्रकार के आर्थिक, सामाजिक औऱ भौतिक विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। जिस चौराहे पर रोज रोज बवाल होता है उस चौराहे पर गोलगप्पे वाला भी अपना ठेला लगाने से मना कर देता है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि कोई सरकार यह धारणा बना ले कि देश मे, किसी भी मसले पर कोई जन अंसन्तोष, कभी उभरेगा ही नहीं, सर्वत्र स्वर्गिक संतोष व्याप्त रहेगा और किसी भी प्रकार का कोई आंदोलन नहीं होगा तो, यह सोच, न केवल एक अकर्मण्य शासन की पहचान है, बल्कि यह एक प्रकार से अलोकतांत्रिक और तनाशाही सोच भी है। कानून में ऐसे अंसन्तोष के उभरने की संभावना भी की गयी है और उनसे निपटने के लिये कानून भी बने है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई आदेशों में ऐसे धरना प्रदर्शन को, लोकतांत्रिक अधिकार माना है। पुलिस को प्रोफेशनल रूप से, कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये बने, उन कानूनो को ही लागू करना है, न कि ऐसा कुछ करना है जिससे वह राजनीतिक तुला पर संतुलन साधने की कोशिश में खुद को ही विवादित कर ले ।

अब यह धारणा बनती जा रही है कि, लगभग 70 दिन से चल रहे किसान आंदोलन को, जब सरकार बातचीत से हल नहीं करा पाई तो, अब वह इस आन्दोलन को, उन असामाजिक तत्वों के भरोसे खत्म कराने की कोशिश कर रही है जिनके फ़ोटो और विवरण सरकार के बड़े मंत्रियों के साथ घटना के तुरंत बाद ही सोशल मीडिया में बवंडर की तरह छा जाते हैं। सारी योजना खुल जाती है। क्या इससे सरकार की क्षवि खराब नहीं हो रही है ? हालांकि, यह भी कहा जा सकता है कि, इस तमाशे से पुलिस की साख और क्षवि पर कोई बहुत प्रभाव नही पड़ता है। क्योंकि पुलिस की साख और क्षवि तो, अब जन सामान्य में जो बन चुकी है, उसे यहां बताने की ज़रूरत नही है। हर व्यक्ति उक्त क्षवि से रूबरू है और अपनी धारणा अपने अनुभवों के अनुसार, बना ही रहा है। लेकिन सरकार और सत्तारूढ़ दल की साख और क्षवि पर ज़रूर असर पड़ रहा है। विशेषकर उस दल पर, जो खुद को अ पार्टी विद अ डिफरेंस कहती रही है।

किसानों का यह धरना एक न एक दिन  हट भी जाएगा। यह भी हो सकता है कि किसानों की मांग सरकार ले और यह भी हो सकता है कि बिना मांग पूरी कराये किसान हट जांय और अपने अपने घर चले जांय। पर इन सबके बावजूद अगर इन तीन कृषि कानूनो पर उठ रही किसानों की शंकाओं का समाधान नहीं हुआ तो यह अंसन्तोष तो बरकरार रहेगा ही। मूल समस्या, किसानों द्वारा किया जा रहा, दिल्ली का घेराव नहीं है। वह एक तात्कालिक समस्या है जो यह मूल रूप से प्रशासन से जुड़ी है। पर असल समस्या है इन कानूनों के बाद कृषि और कृषि बाजार पर इनका क्या प्रभाव पड़ेगा ? आंदोलन खत्म कराने के लिये विभाजनकारी एजेंडे और सरकार के नजदीकी गुंडों का साथ लेना एक बेहद गलत परंपरा की शुरुआत है। इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा और इसके दुष्परिणाम गुंडे नही झेलेंगे, सरकार और जनता को ही झेलना पड़ेगा।

यदि किसी लोकतांत्रिक जन आंदोलन का समाधान राजनीतिक रूप से निकालने के बजाय उसे किराए के सरकारी गुंडों के द्वारा दबाया जा रहा है तो, यह सत्ता के राजनैतिक सोच और विचारधारा का दिमागी दिवालियापन तो है ही, साथ ही प्रशासनिक अक्षमता का भी प्रदर्शन है। इसीलिए मैं बार बार कहता हूं कि, सरकार में आने के बाद सरकार के मंत्री को ऐसे तत्वों से दूरी बना लेनी चाहिए और सरकार को भी चाहिए कि वह ऐसे लोकतांत्रिक आंदोलनों का राजनैतिक समाधान ढूंढे।

यह सवाल एक पूर्व पुलिस कर्मी होने के नाते मेरे मन मे भी उठ रहा है कि, क्या कानून व्यवस्था बनाये रखने के दौरान, गुंडों का सहयोग लेना अनुचित नही है ? आज तक तो, एक भी जन आंदोलन या जन समागम नही हुआ होगा, जिंसमे अपराधी और गुंडा तत्व घुसपैठ न कर गए हों। यहां तक की धार्मिक मेलों और कुम्भ के मेले में भी चोरों और गिरहकट, लुटेरे आदि आसानी से घुसपैठ कर जाते है। गुंडों और अपराधियों की यह घुडपैठ, हो सकता है उन जनआंदोलनों से जुड़े कुछ नेताओं की मिलीभगत भी हो, और यह भी हो सकता है कि आयोजको को, गुंडों की इन घुसपैठों के बारे में पता ही न हो। यही हाल इस किसान आंदोलन में हुए हिंसा के बारे में कहा जा सकता है। शांतिपूर्ण जुलूसों में भी दुकान आदि लूटने का काम कुछ मुट्ठी भर लुटेरे ही करते है, न कि पूरा जुलूस उक्त अपराध में लिप्त होता है।

पर दिल्ली पुलिस का गुंडों और लफंगों के सहारे किसी भी आंदोलन, धरना और प्रदर्शन को तोड़ने और फिर हिंसा फैला कर उसे तितर बितर कर देने का यह नायाब आइडिया, उन्हें कहां से मिला है, यह तो वे ही जानें। पर गुंडों के बल पर न तो शांति व्यवस्था बनायी रखे जा सकती है औऱ न ही, अपराध नियंत्रित किया जा सकता है। राजनीतिक लाभ के लिए, गुंडों के एहसान पर कानून व्यवस्था को बनाये रखने के कृत्य का मूल्य, पुलिस को ही चुकाना पड़ता है। और जब यह मूल्य चुकाया जाता है तो कोई राजनीतिक आका, पुलिस के हमदर्द के रूप में दूर दूर तक नज़र नहीं आता है।दिल्ली देश की राजधानी है और वहां पर होने वाली एक एक घटना पर दुनियाभर के मीडिया की निगाह रहती है। ऐसी दशा में पुलिस को क़ानून व्यवस्था से निपटने के लिये किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े गुंडों को, अपने साथ नहीं रखना चाहिए। इसी प्रकार की गुंडा नियंत्रित या निर्देशित, अनप्रोफेशनल पुलिसिंग का कोई उदाहरण सामने आता है तो, इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस एएन मुल्ला की एक बेहद अफसोसनाक टिप्पणी भी याद आती है।

सत्ता तो बदलती रहती है। बेहद ऐश्वर्य पूर्ण साम्राज्य भी बदलते रहे हैं। पर यदि पुलिस और गुंडों की मिलीभगत भरी, यह जुगलबंदी कहीं, पुलिस की आदत बन गयी तो इसका खामियाजा सिर्फ और सिर्फ उन लोगों को भुगतना पड़ेगा जो पुलिस से विधिसम्मत कार्य की अपेक्षा रखते हैं। समाज मे आज भी ऐसे लोग अधिक संख्या में हैं जो पुलिस को साफ सुथरा और प्रोफेशनल देखना चाहते हैं। राजनीतिक लोगों की मजबूरी यह हो सकती है कि, वे गुंडों और आपराधिक तत्वों को पालें या उनकी पनाहगाह में पले। क्योंकि हमारी चुनाव प्रक्रिया अब तक अपराधियों की घुसपैठ रोक नहीं पायी है। पर एक वर्दीधारी, औऱ संविधान के प्रति शपथबद्ध पुलिस अफसर की ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती है। कानून को कानूनी तऱीके से ही लागू किया जाना चाहिए। पुलिस की निष्ठा, प्रतिबध्दता और शपथ, कानून और संविधान के प्रति है, न कि किसी सरकार के प्रति या किसी व्यक्ति विशेष के प्रति ।

पुलिस बल के राजनीतिक दुरुपयोग के बाद भी यह आंदोलन दिनों दिन मज़बूत होता जा रहा है। किसान इन तीनों कृषि कानूनों को अपने लिये  डेथ वारंट समझ रहे हैं। एक सवाल बार बार उठाया जा रहा है कि यह तो सम्पन्न किसान हैं और आंदोलन में राजनीतिक उद्देश्य से बैठे हैं। ऐसा लगता है कि कॉरपोरेट के दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती आर्थिकी के बारे में, जो उसके कारणों की तह में नहीं जाना चाहते हैं, उन्हें सम्पन्न किसानों से नफरत सी है। वे इस आंदोलन को सम्पन्न किसानों का आंदोलन बता रहे है। यह बात सच है कि इस आंदोलन में सम्पन्न किसान भी हैं। क्योंकि वे सम्पन्न किसान, यह जानते है कि, यह तीनों कृषि कानून उन्हें बर्बाद कर देंगे। लेकिन वे ही लोग जो इन सम्पन्न किसानों से नफरत कर रहे है, गिरोहबंद पूंजीपतियों की बढ़ती हुयी पूंजी से खुश हैं। लॉक डाउन के दौरान जब देश की जीडीपी माइनस – 23.9% तक गिर गयी थी और सत्ता के निकट रहने वाले अम्बानी और अडानी ग्रुप की सम्पत्तिया कई गुना बढ़ गयी। यदि यह सवाल आप के मन मे नही उठ रहा है कि जब आप सूख रहे है तो वे फल फूल कैसे रहे हैं, तो यह अचरज की बात है।

अब किसान यह समझ चुके हैं कि यह तीनों कृषि कानून उनकी सम्पन्नता, खुशहाली, बेहतर जीवन के लिए एक प्रकार से डेथ वारंट है। आज पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के खुशहाल किसान यह भी देख रहे है  कि बिहार के किसान कैसे साल 2006 के बाद से एपीएमसी और न्यूनतम समर्थन मूल्य के खत्म होने के बाद, विपन्नता के पंक में धँसते चले गए। बिहार की भूमि भी शस्य श्यामला है। उर्वर है। लोग भी मेहनती हैं। पर सरकार की प्राथमिकता में वे नही है। इसीलिए दिल्ली घेरे किसान,  यह नहीं होने देना चाहते कि, उनकी उपज की कीमत भी कॉरपोरेट  तय करें। मनचाही मात्रा में मनचाहे समय तक जमाखोरी कर के मुनाफाखोरी भी यही कॉरपोरेट करें और अपनी रिटेल से सामान्य व्यापारियों को बेरोजगार औऱ बेव्यवसाय कर के, हम सामान्य उपभोक्ताओं को भी, अपनी ही मर्जी पर तय किये दामों, पर सामान बेचें। यह चौतरफा शोषण होगा। एक तरफ किसानों को उनकी उपज की कीमत नहीं मिलेगी औऱ दूसरी तरफ उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर सामान नहीं मिलेगा। किसान यह खतरा महसूस कर रहे है और हम उन्हें पुलिस संरक्षण में गुंडों से पिटते देख अपने अपने ख्वाबगाह में अशनि संकेत के बावजूद, अफीम की पिनक में हैं !

आज कॉरपोरेट, सरकार नियंत्रित कर रहे हैं, कल यह उपज की कीमत नियंत्रित करेंगे। परसों पूरा बाजार उनके कब्जे में होगा। कॉरपोरेट नियंत्रित  मीडिया से इन्होंने देश के लोगों का दिमाग तो नियंत्रित करना शुरू ही कर दिया है। सरकार की इतनी हिम्मत भी शेष नही है कि वह एक भी ऐसा कदम उठाए जो इन कॉरपोरेट के हित के विरुद्ध हो और जनता के हित मे हो। सरकार समर्थक मित्रो की तो अब यह भी हैसियत नहीं है कि वह सरकार से यह भी पूछ सके कि कोरोना आपदा से निपटने के लिये 20 लाख करोड़ के पैकेज का लाभ किस जनता को मिला औऱ कितना मिला है।

पिछले कई सालों से ऐसी घटनाएं घट रही है जिनके कारण, दिल्ली पुलिस के कई फैसलों पर न सिर्फ पुराने और अनुभवी पुलिस अफसरों ने सवाल उठाए हैं, बल्कि अदालत ने भी तीखी टिप्पणियां की है। एक टिप्पणी के काऱण तो दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज साहब का तबादला भी रातोरात कर दिया गया। अभी 2019 में सरकार के दुबारा आने के बाद भी, जबकि अभी दो साल भी पूरे नहीं हुए हैं, दिल्ली में दो बार दंगे भड़क उठे। गणतंत्र दिवस के समारोह, बीटिंग रिट्रीट के समय, इजरायल दूतावास में बम धमाका हो गया है। बार बार इंटरनेट बंद करना पड़ रहा है। अब तो एक राज्य हरियाणा में पूरा इंटरनेट बंद कर दिया गया है। रेड एलर्ट की तमाम सतर्कताओ के बीच, उपद्रवी लाल किला पहुंच गए। उन्होंने वहां अपनी मनमानी और हिंसा की, 400 पुलिसजन घायल हुए, और उन उपद्रवियों के खिलाफ आज तक कोई प्रभावी कार्यवाही तक नहीं की गयी। औऱ अब पुलिस संरक्षण में सत्तारूढ़ दल के अराजक तत्वो द्वारा किसानों पर पथराव की घटना ने, दिल्ली पुलिस की कार्यप्रणाली और नेतृत्व पर स्वाभाविक  सवाल खड़े कर दिये हैं। पुलिस की जिम्मेदारी राजनीतिक दल, सत्तारूढ़ दल और सरकार के राजनीतिक दलीय एजेंडे को पूरा करना नहीं है बल्कि हर परिस्थिति में कानून को कानूनी तरह से ही लागू करना है। हो सकता है यह स्थिति सरकार के लिये कभी कभी असहजता उत्पन्न कर दे, पर पुलिस को ऐसे ही मुश्किल भरे लहरों से खुद को निकालना होता है।

पुलिस के बल प्रयोग और भाजपा के कुछ नेताओं की गुंडई से, किसान आन्दोलन की सड़क भले ही खाली हो जाय, पर उत्तर भारत और कुछ हद तक देश भर के गांवों में जो आक्रोश पनप रहा है, उसे कम होने के आसार नहीं दिख रहे हैं। यदि वह आक्रोश इसी प्रकार बढ़ता रहा तो, उसे नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा। या तो रोज रोज ऐसे ही हंगामे होंते रहेंगे, जिससे,  प्रशासन तथा पुलिस पर अनावश्यक दबाव पड़ेगा या फिर यह चिंगारी और दूर तक फैलती  जाएगी।

आंदोलन और असंतोष तथा आक्रोश में अंतर है। आंदोलन उस आक्रोश और असंतोष की अभिव्यक्ति है। यह तात्कालिक रूप या प्रतिक्रिया है। लेकिन असंतोष और आक्रोश अभिव्यक्ति, नहीं भाव होता है। वह कुछ कारणों से उपजता है। उन कारणों का निदान या समाधान जब तक नही होता है, वह पनपता रहता है और जैसे और जहां ही उसे अवसर मिलता है, वह मुखर हो जाता है। इस आंदोलन के आयोजकों को अब भी गांधी के आंदोलन के आजमाए नुस्खे को छोड़ना नहीं चाहिए। उस नुस्खे ने दुनिया के सबसे ताकतवर साम्राज्य को नष्ट किया है। अब यह लड़ाई धर्म के आधार पर बंटवारे की सोच और फर्जी राष्ट्रवाद तथा गांधी की सोच और, संविधान की मूल आत्मा के बीच है।

आज जो इस आंदोलन के खिलाफ, पुलिस को लाठी चलाने के लिये उकसा रहे है, वे सब यह समझ नहीं पा रहे हैं कि, वे एक ऐसे भयावह भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं जहां कानून को कानूनी रूप से लागू करने के लिये गठित, कार्यपालिका का यह सबसे महत्वपूर्ण तंत्र, एक संगठित गिरोह में बदल कर रह जायेगा। कहाँ तो सरकार से उम्मीद थी कि, वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, पुलिस सुधार कार्यक्रमों को लागू कर एक विधिपालक और अनावश्यक स्वार्थी राजनीतिक दबावों से मुक्त पुलिस बल विकसित करती पर यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार खुद ही एक राजनीतिक एजेंडा ओरिएंटेड पुलिस को प्रश्रय दे रही है। पुलिस के वरिष्ठ अफसरों को स्वतः पुलिस के इस स्वार्थी राजनीतिकरण के विरुद्ध सचेत और सजग रहना होगा। एक अच्छे और सबल नेतृत्व का यह तकाज़ा है और उनके समक्ष एक गंभीर चुनौती भी।

(लेखक पूर्व आईपीएस हैं)