सरकार को कुछ दिनों के लिये, अंडमान की राजधानी, पोर्ट ब्लेयर शिफ्ट हो जाना चाहिए। चारो तरफ समुद्र और न किसी के आने का भय न आराम में खलल। कम से कम जनता को तो, जिसे राजधानी दिल्ली आना जाना है, उसे तो दिक्कत न हो। वैसे भी आजकल बहुत कुछ आभासी है तो वही पर इत्मीनान से बैठ कर सबकुछ बेचे बाचे। वैसे भी अब बेचने के अलावा सरकार के पास काम ही क्या बचा है।
जब सब बिक जाय तो, सरकार को चाहिए कि वह सेलुलर जेल में जा कर, उन कमरों में, जहां हमारे नायक कभी बंदी थे, बारी बारी से, थोड़ी देर बैठे और आज़ादी के उन महान हुतात्माओं का स्मरण करे। वहां हुतात्माओं की जिजीविषाये अब भी जिंदा है, बशर्ते उन्हें महसूस करने की संवेदनशीलता सरकार की मर न गयी हो तो । कम से कम, संकल्पपत्र की वादाखिलाफी का, कुछ तो प्रायश्चित होगा। सावरकर की भी कोठरी में जाइयेगा और उन्हें भी याद कीजियेगा । कष्ट उन्होंने भी अंडमान में कम नही भोगा है।
सरकार को यदि यह लगता है कि वह जनता और किसानों को घेर रही है तो यह उसका भ्रम है। सरकार खुद जनता से मुंह चुरा रही है। वह खुद रेत में गर्दन घुसा रही है। रेत में मुंह छुपाने से आंधियां बंद नहीं होती है, दोस्त। वातानुकूलन कमरे का तो होता है, पर बाहर का मौसम उस कमरे के मौसम से अक्सर जुदा होता है । पूर्ण बहुमत, अपार लोकप्रियता, मज़बूत नेतृत्व, यह सब कहानियां, जब जनरव और जनघोष उठता है तो पत्ते की तरह बिखर जाता है।
(लेखक पूर्व आईपीएस हैं, ये उनके निजी विचार हैं)