फ़रीदा जलाल: हर किरदार को खुद में जीने वाली अदाकारा

वीर विनोद छाबड़ा

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शायद ही कोई ऐसा हो जिसने ये गाना न सुना हो, आज की पीढ़ी के लाखों संगीत प्रेमियों ने न देखा हो…बागों में बहार है…आज सोमवार है…हां है…तुमको हमसे प्यार है…हां है… न न न…युवा नटखट राजेश खन्ना और प्यारी सी चुलबुली फ़रीदा जलाल. दोनों ही यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स टैलेंट हंट की खोज थे. मगर सबकी अपनी किस्मत, अपना नसीब. राजेश खन्ना को जीपी सिप्पी की ‘राज़’ मिली और राजश्री वालों को फ़रीदा पसंद आ गयी. उन्हें ‘तक़दीर’ (1967) में लांच किया जो लीड प्लेयर भारत भूषण और शालिनी की बेटी बनी. उनकी तुलना में फ़रीदा की भूमिका छोटी मगर प्रभावशाली रही…जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराये मुझे तुम याद आये…आईये बहार को हम बांट लें ज़िंदगी के प्यार को हम बांट लें…हर कोई ये जानने को आतुर हो उठा कि फूल सी दिखने वाली ये छोटे कद की कली कौन है? हालांकि ‘राज’ की तरह ‘तक़दीर’ भी नहीं चली, लेकिन ‘आख़िरी ख़त’ से राजेश जम गए. फ़रीदा की खूबसूरती सिर्फ़ चर्चा में ही रही.

शक्ति सामंत को ‘आराधना’ के दो रोल थे. पहले राजेश अरुण के लिए शर्मीला मिल चुकी थी, मगर उनके बिंदास बेटे राजेश की प्रेमिका की तलाश जारी थी जो हंसमुख हो और चुलबुली भी. अब फ़रीदा से बढ़िया कौन हो सकती थी? याद आ गया न…बागों में बहार है…पूरे गाने में वो हीरो को लप्पा-झप्पी करने नहीं देती और फिर भी ज़बरदस्त इफ़ेक्ट. दर्शकों को भा गयीं वो. मगर तक़दीर फ़रीदा से रूठी रही. फिल्मफेयर का बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवार्ड जीतते-जीतते रह गयी. इस बीच आयी ‘बहारों की मंज़िल’ में वो मीना कुमारी की बेटी नलिनी थीं, फिल्म आयी और चली गयी. न फिल्म नोटिस हुई और न फ़रीदा. तभी उन्हें ‘गोपी’ (1970 ) में साइड रोल मिला. रोल कैसा है, इसकी छान-बीन नहीं की, और ज़रूरत भी नहीं समझी. बस यही काफी रहा कि वो अभिनय सम्राट दिलीप कुमार की बहन बनी हैं. अब बहन बनने की कीमत तो उन्हें चुकानी ही थी. ‘पारस’ (1971) में भी बहन बनीं, संजीव कुमार की. लेकिन ये रोल उन्होंने यूं ही स्वीकार नहीं किया. वो पूरी तरह आश्वस्त हुईं कि नायिका राखी तो बस पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने और झरने के नीचे नहाने के लिए है. कहानी तो भाई और बहन के इर्द-गिर्द घूमती है. उनके ऑपोज़िट थे कॉमेडी किंग महमूद. ऐसे में फ़रीदा के लिए कॉमेडी का भी स्कोप बन गया. उन्हें इसका अच्छा फल भी मिला। उस साल का बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस फिल्मफेयर अवार्ड उनकी झोली में गिरा. कम आयु और कम फ़िल्मी सफर के चलते इस अवार्ड का मिलना मायने रखता था. परंतु ये तो अंततः स्थापित हो ही गया कि इस एक्ट्रेस में जन्मजात टैलेंट है.

शायद इसीलिए राजकपूर साहब को ‘बॉबी’ में निक्की के छोटे से रोल के लिए फ़रीदा की याद आई जो बड़ी तो है मगर मानसिक रूप से बच्ची है. इसके लिए बच्चा दिखती फ़रीदा से बेहतर कोई परफेक्ट चॉइस हो ही नहीं सकती थी. उन्होंने दिल जीतने वाली परफॉरमेंस दी. तब राज साहब ने खुश होकर फ़रीदा से कहा था, तब तुम आरके फिल्म्स का परमानेंट हिस्सा हो. उन्होंने अपना वादा याद रखा. ‘हिना’ के लिए उन्होंने फरीदा को बीवी गुल का किरदार दिया जो एक्सीडेंट से याददाश्त खोने के कारण बॉर्डर क्रॉस कर गए ऋषि कपूर का इलाज करती है. मगर अफ़सोस राज साहब अपने जीते जी हिना पूरी नहीं कर पाए. 1988 में उनका देहांत हो गया. तब उनके बेटे रंधीर कपूर ने कमान संभाली. लेकिन फ़रीदा ने निराश नहीं किया. 1992 में इसके लिए एक बार फिर बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवार्ड जीता. ये फ़रीदा की जोरदार एक्टिंग की स्टैम्प है कि बहुचर्चित हिना के अन्य किसी डिपार्टमेंट में किसी ने कोई अवार्ड नहीं जीता.

अब तक फ़रीदा ये स्वीकार कर चुकी थी कि बहन बनना उनकी मजबूरी है और इसका उन्हें कोई मलाल भी नहीं था. उनका एकमात्र उद्देश्य था, बहन के किरदार को उस ऊंचाई तक पहुंचाना है जहाँ अब तक कोई बहन नहीं पहुंच पायी और जो नायिका से किसी भी सूरत में उन्नीस न हो. प्रेम जी की ‘मजबूर’ (1974) में वो अमिताभ की अपंग बहन बनीं…देख सकता हूँ मैं कुछ भी होते हुए, नहीं मैं नहीं देख सकता तुझे रोते हुए…नायिका परवीन बॉबी की जगह कहानी के केंद्र में फरीदा का किरदार रहा और दो राय नहीं कि इसमें उनकी जोरदार परफॉरमेंस का भी बड़ा हाथ था. फिल्मफेयर अवार्ड के लिए वो नॉमिनेट भी हुई.

कैरीयर के एक मोड़ पर फ़रीदा को लगा, अब आगे कुछ नहीं है. अब हर फिल्म में बहन के किरदार जोरदार तो हो नहीं सकते थे. तमाम हीरोइनों ने फ़रीदा की फिल्म में मौजूदगी पर नाक-भौं सिकोड़नी शुरू कर दी. इसीलिए ऑफर आने भी कम हो गए. 1974 की ‘जीवनरेखा’ में तबरेज़ फ़रीदा के हीरो थे. फिल्म भले नहीं चली थी, लेकिन तबरेज उनके दिल में बस गए. दोनों ने घर बसा लिया. फ़रीदा बैंगलोर चली गयी जहाँ तबरेज़ की साबुन फैक्ट्री थी. इस बीच जब कभी कोई अच्छी फिल्म मिलती तो वो मुंबई चली जाती. एक दिन उन्हें श्याम बेनेगल का ऑफर मिला, महमूदा बेग़म उर्फ़ ‘मम्मो’ (1994) का. इसमें अब वो बहन से दादी बन जाती है. विभाजन की त्रासदी से त्रस्त पाकिस्तानी नागरिक बन चुकी मम्मो बम्बई में वीज़ा लेकर अपनी बड़ी बहन के साथ रहती है. वो रिश्वत देकर बार-बार वीज़ा बढ़वाती रहती है. मगर एक दिन एक सख्त पुलिस वाला उन्हें ज़बरिया फ्रंटियर मेल में बैठा देता है जो उसे पाकिस्तान ले जाती है. कई बरस गुज़र गए. इधर बम्बई में उसकी बड़ी बहन का पोता रियाज़ बड़ा हो जाता है. वो मम्मो को भूल नहीं पाता है. उसे बहुत तलाश करता है. उनकी याद में नॉवल लिखता है, शायद मम्मो पढ़ ले और लौट आये. और एक दिन सबको हैरान करती हुई मम्मो लौट आती है. वो अब कभी नहीं लौटेगी क्योंकि वो दुनिया की निगाह में मर चुकी है. मक़सद ये है कि विभाजन की रेखा पर रिश्ते भारी पड़ते हैं. इस फिल्म को बेस्ट फीचर फिल्म का नेशनल अवार्ड मिला और फ़रीदा को फिल्मफेयर का बेस्ट एक्ट्रेस का क्रिटिक अवार्ड.

यश चोपड़ा की ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ (1995) की लाजवंती उर्फ़ लाजो के किरदार में एक बार फिर ‘वक़्त’ की मां अचला सचदेव की याद ताज़ा हो गयी…ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं तुझे मालूम नहीं…वो पति के आधिपत्य से त्रस्त है, मगर बेटी काजोल से कहती है जो मैं नहीं कर पायी वो तू करेगी. तुझे मेरी तरह कमज़ोर नहीं बनना है. वो उसे अपने प्रेमी के साथ भाग जाने को उकसाती है. इस ब्लॉक-बस्टर फिल्म को कई फिल्मफेयर अवार्ड मिले, जिसमें बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवार्ड फरीदा के नाम भी रहा.

फ़रीदा ने 180 से ज़्यादा फ़िल्में की हैं, नायिका के कम, बहन और मां के ज़्यादा किरदार किये. हर बार डायरेक्टर की पहली पसंद रही. कुछ ज़िक्र ऊपर हो चुका है. अन्य यादगार फ़िल्में हैं, महल, प्यार की कहानी, लोफर, धर्मात्मा, खुशबू, उलझन, शक, बंडलबाज, जुरमाना, जुदाई, दिल तो पागल है, कुछ कुछ होता है, कहो न प्यार है, क्या कहना, चोरी चोरी चुपके चुपके, लज्जा, कभी ख़ुशी कभी ग़म, बधाई हो बधाई, स्टूडेंट ऑफ़ दि ईयर आदि. हर फ़िल्म में उन्होंने जोरदार मौजूदगी दर्ज कराई. उनके स्वर्गवास होने की दो बार खबर उड़ी. पिछली फरवरी में ही उन्हें कैंसर बताते हुए बेवक्त मौत दे दी गयी. फ़रीदा को खुद सामने आकर खंडन करना पड़ा, मैं ज़िंदा हूँ, सही सलामत और आपके सामने हूँ. कहते हैं जिनके मरने की झूठी ख़बरें उड़ती हैं, ऊपरवाला उनकी आयु लम्बी कर देता है.