वाहिद नसीम
अफगान में तालिबान ने अपनी हुकूमत बना ली और अमारात ए इस्लामिया का नाम दिया, लगभग 90% दुनिया इस्लामिक गैर इस्लामिक नास्तिक सभी को इस बात की फिक्र है की तालिबान की नई हुकूमत का तर्ज ए अमल क्या होगा? दुनिया भर की मीडिया में अलग-अलग तरह से तालिबान के इक्तदार में आने को लेकर लेख लिखे जा रहे हैं कयास कहे जा रहे हैं और विश्लेषण किए जा रहे हैं, हर कोई अपने देश को ध्यान में रख कर अपनी विदेश नीति के आधार पर तालिबान की आमद को वर्णित कर रहा है! कही औरतो के हुकूक उठाए जा रहे हैं कही ह्यूमेन राइट का मुद्दा है तो कही आंतकवाद का खतरा है और कही इस्लामिक विजय का मुद्दा!
मैं भी कोशिश कर रहा हूं एक निष्पक्ष पारदर्शी दूरदर्शी विश्लेषण और विवेचना के रूप में यह लेख पूरा करूँ! आपको पूरी आजादी है कि आप उस एतबार करें या ना करें, मैं जितना समझ पाया और जितना समझ पा रहा हूं उसी के कुछ अनछुए पहलुओं को आपके सामने प्रस्तुत करता हूं! क्योंकि उपर लिखी फिक्रमंदी सिर्फ अपनी अपनी मोका परस्ती है।
यह लड़ाई 90 के दशक से शुरू हुई और यहां तक आ पहुंची, जिसके सभी पहलू पर बात इस वक्त मुमकिन नही,मगर मेरे विश्लेषण के आधार पर यह लड़ाई दो सुपर पावर के बीच थी, वो सुपर पावर जिन्होंने पूरी दुनिया में अपने अलग-अलग ठिकाने बनाएं अपनी अदृश्य विस्तृत योजनाओं को आगे बढ़ाने का काम किया, और जिस की चपेट में कोरियन द्वीप वियतनाम अफ्रीका फिर अरब जगत और एशिया प्रशांत के कई देश भी आए जिनमें से एक अफगानिस्तान भी है। दो बड़ी ताकतों की अदृश्य सत्ता कमांड के विस्तार का सिलसिला अदलता बदलता रहा और बस एक कदम पहले, जिसकी में कई बार चर्चा कर चुका हूं, द ग्रेट गेम बनाम ग्रेटर यूरेशिया का रूप धारण कर लिया, इस गेम में रूस के साथ जुड़े कई एशिया प्रशांत के देशों पर अमेरिका अपनी पकड़ बनाने में कामयाब रहा, और ठीक उसी तरह अमेरिका के साथ कूटनीति व सेन्य गठबंधन वाले कई देशों पर रूस ने भी अपना असर ओ रसूख कायम कर लिया।
ज्यादातर पत्रकार दार्शनिक कूटनीतिज्ञ इस खेल को वियतनाम अमेरिका की हार जीत, सीरिया आईएसआईएस की हार जीत, रूस के टूट कर बिखरने में रूस तालिबान अमेरिका की हार जीत, और अब तालिबान अमेरिका की हार जीत के रूप में वर्णित करते हैं, मगर में सिर्फ इसके अंधेरे पहलुओं पर चर्चा कर रहा हूं जो कभी चर्चा में नहीं आते। पश्चिमी जगत और रूस चीन की इस थकावट भरी लंबी लड़ाई में कुछ दिनों पहले तक सल्तनत ए उस्मानिया का बड़ा ख्वाब तुर्की को दिखाकर रूस ने अपने बहुत से पहलुओं को मजबूत किया, मगर अब रूस का थिंक टैंक यह भी सोचता है कि तुर्की एक तकनीक समृद्ध और विकसित देश है, जो कभी भी पश्चिम जगत के साथ खड़े हो कर रूस की ताकत को चुनोती देने के हालात पैदा कर सकता है, जिसका एक नमूना हम नागोर्नो कारबक और लीबिया में देख चुके हैं और इससे भी एक कदम आगे रूस के खिलाफ पश्चिम की कठपुतली युक्रेन को ड्रोन बेचने की तुर्की की पेशकश ने यह डर ओर भी बड़ा कर दिया है। अपितु यह भी एक सत्य है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों मैं कोई किसी का सदा के लिए ना दुश्मन होता है ना दोस्त, इसलिए शक की निगाह सब पर होती है।
अब रूस के ग्रेटर यूरेशिया मिशन को तालीबान, पाकिस्तान के रूप में एक नई उम्मीद नज़र आई जिसे रूस ने लपक लिया और अमेरिका की भारत के साथ बढ़ रही दोस्ती का हिसाब बराबर करते हुए चीन के रूप में भविष्य में चुनोती के मध्यनज़र चीन के साथ भारत की तरह सरहदों के साझा होने का गणित भी पूरा कर लिया! और इससे भी आगे बढ़ते हुए मुस्लिम जगत पर पकड़ मजबूत करने के लिए तालीबान नाम का एक ओर नया झंडा तैयार कर लिया, पिछले कुछ सालों से रजब तैयब ओर्दोगान जिस प्रकार मुस्लिम जगत में कोई भी हलचल होने पर सबसे पहले सामने आ रहे थे और मुस्लिम जगत का लीडर बनने की कोशिश कर रहे थे, अचानक अब इस कहानी में एक नया मोड़ आ गया है, यानी जो खाब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने रजब तैयब को लेकर देखा था उसमें तुर्की के एग्रेसिव तेवर देखकर मुस्लिम जगत को कई भागों में बांटने का मौका तलाश करना शुरू कर दिया, जैसा कि भूराजनीति में अक्सर किया जाता है।
रूस के लिए यह खेल इस लिए भी आसान हो गया क्योंकि मुस्लिम जगत की मानसिक बटवारे की लकीर धरती के पटल पर साफ उभरी नज़र आने लगी, जैसे कि एक धड़ा तुर्की के साथ खड़ा हुआ ननजर आएगा, जो मुस्लिम प्रोग्रेसिव जगत में से होंगे, एक धड़ा पहले से ही सऊदी अरब के साथ खड़ा है और तीसरा धड़ा पाकिस्तान की कोशिशों के चलते अफगानिस्तान तालिबान हुकूमत के झंडे के साथ चलना पसंद करेगा, और अभी तक अपने आप को इस्लामिक क्रांति का अलंबरदार और खुद को इस्लामिक गणतंत्र कहने वाला ईरान जो पहले से सऊदी अरब के खिलाफ है और तुर्की को पसंद नहीं करता, अब तालिबान के खिलाफ यह कह कर खड़ा हो जाएगा की अफगानिस्तान में लोकतंत्र होना चाहिए, और मानवाधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए, मगर इन सभी मानसिक बंटवारे की तरफ बढ़ते धड़ो में एक मुख्य कोमन् बात यह होगी कि रूस और चीन मिलकर अपने खेल को आगे बढ़ाएंगे और सभी का साथ अदल बदल कर देंगे, जिसे मुद्दा आधारित समर्थन कहेंगे, ईस प्रकार तुर्की के झंडे तले मुस्लिम जगत के इकट्ठा होने की संभावना कम हो जाएगी, इस प्रकार मुस्लिम जगत रूस और चीन के साथ ही खड़े रहेंगे और आपस में टकराव की स्थिति भी आगे बढ़ती रहेगी,इस खेल को आगे बढ़ते देखकर पश्चिमी जगत खामोशी अख्तियार कर लेगा और इनमें से पश्चिम के अलग-अलग देश अलग-अलग व्यापारिक रूपरेखा ऊपर धीरे-धीरे उनका साथ देना शुरू कर देंगे मगर ईरान जो कि मैं पहले भी कह चुका हूं धीरे-धीरे पश्चिम जगत की तरफ अग्रसर हो जाएगा इसके मुख्य दो कारण होंगे।
पहले से ही सऊदी अरब से मनमुटाव की स्थिति पर चल रहे ईरान के सामने एक और नई इस्लामिक क्रांति के रूप में अफगान तालिबान खड़े होंगे पहले से ही सऊदी अरब को काउंटर कर रहे ईरान की पॉलिसी अफगानिस्तान को बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर पाएगी, और खुद को इस्लामिक क्रांति का घोतक और इस्लामिक गणतंत्र कहने वाले को इस्लामी राष्ट्र पर ही आपत्ति होगी, पश्चिमी जगत से आर्थिक बाजार चीन जाने के कारण पश्चिमी जगत की अर्थव्यवस्था खड़ा होने की कोशिश शुरू करेगी मगर रूस और चीन का गठजोड़ यूरेशिया के गेम को आगे बढ़ाते हुए पाकिस्तान और अफगानिस्तान को बेल्ट एंड रोड से जोड़ते हुए अपनी अर्थव्यवस्था को विस्तार देने में कामयाब रहेंगे और ईरान में भारी पूंजी निवेश का वादा करने वाला चीन ईरान से दो कदम पीछे खींचने की कोशिश करेगा क्योंकि जिस समंदर में ईरान के जरिए चीन अपनी पहुंच बनाना चाहता था वह पाकिस्तान पूरी करेगा, और चीन अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एशिया होते हुए यूरोप तक अपनी पहुंच बना लेगा।
इस पूरे खेल में थोड़ा सा अलग पढ़ चुके भारत को अमेरिका का भरपूर साथ तो मिलेगा मगर अमेरिका की बहुत सारी शर्तें भी भारत को माननी पड़ेगी, भारत और अमेरिका की निकटता इसलिए भी ओर ज्यादा होगी क्योंकि अमेरिका के पास पाकिस्तान और अफगानिस्तान से अपने अड्डे खत्म करने के उपरांत इस पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी उपस्थिति बनाए रखने के लिए भारत का सहयोग ही निर्णायक होगा,अमेरिका की इस मजबूरी का अगर भारत के कूटनीतिज्ञ कोई अच्छा फायदा उठाना चाहे तो इससे अच्छा मौका फिर निकट भविष्य में भारत के हाथ नहीं आएगा।
जबकि रूस और चीन पूरी कोशिश करेंगे कि भारत के साथ अमेरिका के सैनिक गठजोड़ या आदान-प्रदान की स्थिति अगले मोर्चे पर न पहुंचे, अमेरिका भारत के गठजोड़ को अगले लेवल पर जाने से रोकने पर भारतीय उपमहाद्वीप सहित एशिया प्रशांत में रूस और चीन का दबदबा बढ़ जाएगा और अमेरिका को बचे कुछ जापान कोरिया साउथ चाइना सी जैसे इलाके भी छोड़ने पड़ जाएंगे, जबकि अमेरिका यह बात जानता है कि चीन के बढ़ते अधिपत्य को हर हाल में रोकना ही होगा वरना पश्चिमी जगत के हाथ से पूरी दुनिया का बाजार निकल जाएगा, इस लेख मे अब तक हमने जिसका जिक्र नहीं किया वह है इजराइल, दोस्तों हमें यहां एक बात और ध्यान मैं रखनी होगी इजराइल पिछले 70 सालों से लगातार पूरी दुनिया पर अपने अधिपत्य को स्थापित करने की भरपूर कोशिश कर रहा है जिसे कामयाब बनाने के लिए अपनी अदृश्य चौसर को बखूबी खेलने की कोशिश कर रहा है। मगर अब रूस इसके पूरे खेल के आड़े आ चुका है,रूस यह बात जानता है कि इजराईल को अमेरिका और ब्रिटेन से आर्थिक और फौजी समर्थन हासिल है इजराईल अपने पक्ष में विश्व के सबसे बड़े धनाड्यों के समर्थन का फायदा उठाते हुए अरब जगत सहित एशिया प्रशांत के कई देशों में अपनी घुसपैठ को मजबूत करते हुए रूस और चीन के ग्रेटर यूरेशिया के गेम को फ्लॉप करने की भरपूर कोशिश करेगा। इसीलिए रूस इन मुस्लिम जगत के धड़ों का इस्तेमाल करते हुए इजराइल को घुटने टेकने पर मजबूर कर देगा, और इसका श्रय भी मुस्लिम जगत को ही लेने देगा। ठीक वैसे जैसे अफगानिस्तान में तालिबान को लेने दिया!
तालिबान सरकार को रूस सहित बहुत से देश हर तरह का समर्थन तो करते रहेंगे मगर पहले मान्यता देने में जल्दबाजी नहीं करेंगे, फिर एक वक्त आएगा जब इनकी मान्यता को भी इनकी एक ओर जीत की तरह दर्शाया जाएगा! इससे अदृश्य ताकतों को एक बार फिर मुस्लिम जगत का बेवकूफ बनाने में सफलता प्राप्त होगी, एक सवाल आप सब से पूछते हुए इस लेख को विराम दूंगा कि जो देश दुनिया में सबसे बेहतर हथियार अपने घर में नहीं बना सकता वह देश विश्व विजेता कैसे बन सकता है? अगर इस तरह का कोई सपना देखता है या इस तरह की कोई बात कर उम्मीद जगाता है तो यह हंसी की पात्रता के सिवा कुछ भी नहीं, , क्योंकि यह कटु सत्य है की गुलेल लेकर टैंक से लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती, अगर ऐसे मुकाबले की हार जीत में, कोई गुलेल की टैंक पर जीत दर्शाता है तो वह तुम्हें भ्रमित कर रहा है और तुम्हें अति आशावादी बनाकर निकम्मे बनाने का षड्यंत्र कर रहा है। युद्ध का तरीका बदला है युद्ध खत्म नहीं हो रहे हैं, नए युद्ध शुरू हुए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव जिओ पॉलिटिक्स के जानकार हैं)