कृष्णकांत
लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के खिलाफ आचार संहिता के उल्लंघन की कई शिकायतें हुईं। इनमें से चार शिकायतें प्रधानमंत्री से जुड़ी थीं। इस मामले को लेकर चुनाव आयोग के दो सदस्यों- सुशील चंद्रा और सुनील अरोड़ा ने मोदी को क्लीन चिट दे दी। लेकिन अशोक लवासा ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि मोदी ने चुनावी रैली में सशस्त्र बलों का आह्वान किया, जो चुनाव आयोग के नियमों का उल्लंघन है। हालांकि, तीन सदस्यीय चुनाव आयुक्तों की टीम में अशोक लवासा अल्पमत में थे। दो अन्य आयुक्तों ने मोदी के पक्ष में निर्णय सुनाया। अशोक लवासा की असहमति को रिकॉर्ड पर भी नहीं लिया गया। हालांकि, ये बात बाहर आ गई कि लवासा ने मोदी के भाषण को आचार संहिता का उल्लंघन माना था, लेकिन उनकी असहमति को सुना नहीं गया।
द वायर की पेगासस प्रोजेक्ट रिपोर्ट कहती है कि चुनाव आचार संहिता उल्लंघन के आरोपों पर मोदी और शाह को मिली क्लीनचिट का विरोध करने के बाद से अशोक लवासा की निगरानी करने की तैयारी बनी। इसी प्रकरण के बाद ही अशोक लवासा की भी जासूसी शुरू हुई।
मोदी को चुनाव नियमों के उल्लंघन का दोषी ठहराने के बाद लवासा जांच एजेंसियों के निशाने पर आ गए। उनकी पत्नी को आयकर विभाग ने आयकर नोटिस भेज दिया। लवासा के बेटे और उनकी बहन को भी आयकर विभाग ने निशाने पर ले लिया। कुछ महीने बाद लवासा ने चुनाव आयोग छोड़ने और एशियाई विकास बैंक में उपाध्यक्ष पद पर जाने का रास्ता चुना, जबकि वे मुख्य चुनाव आयुक्त बनने वाले थे।
इसके अलावा, निगरानी सूची में इस केस से जुड़े दो और लोग हैं। चुनाव सुधार पर काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के संस्थापक जगदीप छोकर और मोदी के चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर स्टोरी करने वाली इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकार ऋतिका चोपड़ा। मतलब ये है कि जिसने भी जहां आवाज उठाने की कोशिश की, उसे निशाने पर लिया गया। बेचारे अशोक लवासा ने समझौता किया, चुनाव आयोग छोड़ दिया और उनका लोया होने से बच गया। इस तरह, मोदी एंड कंपनी अजेय घोषित हुई।
(लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)