अनिल जैन
वैश्विक स्तर पर भारत की साख सिर्फ आर्थिक मामलों में ही नहीं गिर रही है, बल्कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी, मानवाधिकार और मीडिया की आजादी में भी भारत की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग लगातार नीचे आ रही है। कुल मिला कर इस समय देश का जो परिदृश्य बना हुआ है, वह आने वाले समय में हालात के और अधिक संगीन होने के संकेत दे रहा है।
आठ साल पहले नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के करीब तीन महीने बाद 15 अगस्त 2014 को स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से पहली बार देश को संबोधित किया था, तब उनके भाषण को समूचे देश ने ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे तमाम देशों ने भी बड़े गौर से सुना था। विकास और राष्ट्रवाद की मिश्रित लहर पर सवार होकर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी ने अपने उस भाषण में देश की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर बदलने का इरादा जताते हुए देशवासियों और खासकर अपनी पार्टी तथा उसके सहमना संगठनों के कार्यकर्ताओं से अपील की थी कि अगले दस साल तक देश में सांप्रदायिक या जातीय तनाव के हालात पैदा न होने दें।
मोदी ने कहा था- ”जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, सामाजिक या आर्थिक आधार पर लोगों में विभेद आदि ऐसे जहर हैं जो हमारे आगे बढ़ने में बाधा डालते हैं। आइए, हम सब अपने मन में एक संकल्प लें कि अगले दस साल तक हम इस तरह की किसी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे। हम आपस में लड़ने की बजाय गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा तथा तमाम सामाजिक बुराइयों से लड़ेंगे और एक ऐसा समाज बनाएंगे जो हर तरह के तनाव से मुक्त होगा। मैं अपील करता हूं कि यह प्रयोग एक बार अवश्य किया जाए।”
इतना ही नहीं, मोदी ने अपने उस भाषण में पड़ोसी देश पाकिस्तान की ओर भी दोस्ती का हाथ बढ़ाने का संकेत दिया था। उन्होंने गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आतंकवाद आदि को भारत और पाकिस्तान की समान समस्याएं बताते हुए आह्वान किया था कि दोनों देश आपस में लड़ने के बजाय कंधे से कंधा मिला कर इन समस्याओं से लड़ेंगे तो दोनों देशों की तस्वीर बदल जाएगी।
मोदी का यह भाषण उनकी स्थापित और बहुप्रचारित छवि के बिल्कुल विपरीत, सकारात्मकता और सद्इच्छा से भरपूर माना गया था। देश-दुनिया में इस भाषण को व्यापक सराहना मिली थी, जो स्वाभाविक ही थी। प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद उम्मीद लगाई जा रही थी कि उनकी पार्टी तथा उसके उग्रपंथी सहमना संगठनों के लोग अपने और देश के सर्वोच्च नेता की ओर से हुए आह्वान का सम्मान करते हुए अपनी वाणी और व्यवहार में संयम बरतेंगे, लेकिन रत्ती भर भी ऐसा कुछ नहीं हुआ।
प्रधानमंत्री की नसीहत को उनकी पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ता तो दूर, केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और पार्टी के प्रवक्ताओं-जिम्मेदार पदाधिकारियों ने भी तवज्जो नहीं दी। इन सबके मुंह से सामाजिक और सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने वाले नए-नए बयानों के आने का सिलसिला न सिर्फ जारी रहा बल्कि वह नए-नए रूपों में और तेज हो गया। हैरानी और अफसोस की बात तो यह है कि इन सारी घटनाओं का सिलसिला कोरोना जैसी भीषण महामारी के दौर में भी नहीं थमा और आज तो चरम पर है।
सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ, कैसे हुआ और क्यों हो रहा है? दरअसल सत्ता में आने के कुछ समय बाद ही मोदी सरकार की प्राथमिकताएं बदल गईं। दुनिया ने देखा है कि आठ वर्षों के दौरान उनकी सरकार और पार्टी का एक ही मूल मंत्र रहा- ‘विकास का झंडा और नफरत का एजेंडा।’ इसी फार्मूले पर काम कर रही मोदी सरकार अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर तो बुरी तरह नाकाम साबित हुई ही, देश के सामाजिक हालात भी बेहद खराब बने हुए हैं। पिछले सात-आठ वर्षों के दौरान देश के भीतर बना जातीय और सांप्रदायिक तनाव-टकराव का समूचा परिदृश्य गृहयुद्ध जैसे हालात का आभास दे रहा है, जिसके लिए पूरी तरह उनकी सरकार और पार्टी की विभाजनकारी राजनीति जिम्मेदार है।
मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों से देश की अर्थव्यवस्था का जो हाल हुआ है, उसकी तस्वीर बेहद डरावनी है। नोटबंदी और जीएसटी- ये मोदी सरकार के दो ऐसे विनाशकारी फैसले रहे हैं, जिनकी वजह से देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट हो चुकी है और जिनकी मार से किसान, मजदूर, कर्मचारी, छोटे और मंझोले कारोबारियों समेत समाज का तबका आज भी बुरी तरह कराह रहा है।
सरकार भले ही दावा करे कि आर्थिक तरक्की के मामले में पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि आर्थिक मामलों के तमाम वैश्विक अध्ययन संस्थान भारत की आर्थिक स्थिति का शोकगीत गा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनडीपी ने विभिन्न आंकड़ों के आधार पर बताया है कि भारत टिकाऊ विकास के मामले में दुनिया के 190 देशों में 117वें स्थान पर है।
अमेरिका और जर्मनी की एजेंसियों ने जानकारी दी है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया के 116 देशों में भारत 101 वें स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र के खुशहाली सूचकांक में भारत की स्थिति में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। ‘वर्ल्ड हैपिनेस रिपोर्ट’ यानी ‘वैश्विक खुशहाली सूचकांक- 2022’ में भारत को इस बार 136वां स्थान मिला है। 146 देशों में भारत का मुकाम दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों से ही नहीं बल्कि पाकिस्तान समेत सभी छोटे-छोटे पड़ोसी देशों और युद्धग्रस्त फिलिस्तीन से भी पीछे है।
देश में बेरोजगारी की भयावह स्थिति चरम पर है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकानॉमी (सीएमआईई) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक मार्च 2022 में भारत का रोजगार बाजार और सिकुड़ गया। इस महीने रोजगार की तलाश से निराश होकर 14 लाख लोगों ने अपने को इस बाजार से अलग कर लिया। इस तरह भारत के श्रम बाजार में मौजूद लोगों की संख्या 39 करोड़ 60 लाख रह गई है। सीएमआईई ने अपनी रिपोर्ट में कहा गया है- ‘ये आकंड़े भारत में आर्थिक विपदा का सबसे बड़ा संकेत है। लाखों लोगों ने रोजगार बाजार छोड़ दिया है। इसका कारण यह है कि वे नौकरी पाने में नाकामी से वे बेहद हताश हो गए हैं।’
सीएमआईई ने बताया है कि बीते फरवरी में भारत में श्रम भागीदारी दर 39.9 फीसदी थी, जो मार्च में 39.6 प्रतिशत रह गई। किसी भी खुशहाल देश में यह दर 60 से 70 फीसदी के बीच होती है। यानी कामकाज में सक्षम आबादी के बीच कुल इतने लोग रोजगार बाजार में मौजूद रहते हैं। भारत की कहानी उलटी दिशा में है। इस तरह की रिपोर्टों के बीच पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था और देश को आत्मनिर्भर बनाने के प्रधानमंत्री के दावे कितने हवाई हैं- यह आसानी से समझा जा सकता है।
कुछ समय पहले जारी हुई पेंशन सिस्टम की वैश्विक रेटिंग में भी दुनिया के 43 देशों में भारत का पेंशन सिस्टम 40वें स्थान पर आया है। उम्रदराज होती आबादी के लिए पेंशन सिस्टम सबसे जरूरी होता है ताकि उसकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। भारत इस पैमाने पर सबसे नीचे के चार देशों में शामिल है। पासपोर्ट रैंकिंग में भी भारत 84वें स्थान से फिसल कर 90वें स्थान पर पहुंच गया है। यह स्थिति भी देश की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह से खोखली हो जाने की साफ गवाही देती है।
सरकार का कहना है कि कोरोना महामारी ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया है। लेकिन सच यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था के ढहने का सिलसिला कोरोना महामारी के पहले नोटबंदी के साथ ही शुरू हो गया था, जिसे कोरोना महामारी तथा याराना पूंजीवाद पर आधारित सरकार की आर्थिक नीतियों ने तेज किया है और जिसके चलते देश आर्थिक रूप से खोखला हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपए की गिरावट के नित नए कीर्तिमान बन रहे हैं।
वैश्विक स्तर पर भारत की साख सिर्फ आर्थिक मामलों में ही नहीं गिर रही है, बल्कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी, मानवाधिकार और मीडिया की आजादी में भी भारत की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग लगातार नीचे आ रही है। कुल मिला कर इस समय देश का जो परिदृश्य बना हुआ है, वह आने वाले समय में हालात के और अधिक संगीन होने के संकेत दे रहा है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, सभार देशबन्धु)