जज्बात मुसलमानों को पीछे खीचेंगे, शिक्षा और खुला दिमाग आगे बढ़ाएंगे

शुक्रवार को जो हुआ उसकी आशंका किसी को नहीं थी। एक दो मुस्लिम संगठनों ने जरूर प्रिकाशन लेते हुए मुसलमानों से अपील की थी कि जुमे के दिन कोई बंद प्रदर्शन नहीं करें। उन्होंने और आगे बढ़ते हुए यह भी कहा था कि बंद, प्रदर्शन की अगर कई अपील आ रही है तो वह फर्जी है। उस पर विश्वास न करें।

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

मगर 10 जून शुक्रवार को जो हुआ उसने मुसलमानों के पोलिटिकल सेंस पर फिर एक बड़ा सवाल लगा दिया। देश के कई हिस्सों में जुमे की नमाज के बाद लोग सड़कों पर निकल आए और फिर जो हुआ उसने भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति को फिर से ताकत दे दी। बेकाबू नारे लगती हुई भीड़, पथराव, आगजनी, पुलिस फायरिंग, लाठीचार्ज के बाद तस्वीर एक दम से बदल गई। सबने हिंसा की निंदा की। कड़े स्वरों में की। मगर अभी तक जो गुस्सा नुपूर शर्मा और नवीन जिंदल की तरफ था वह मुसलमानों की तरफ मुड़ गया।

यह स्वाभाविक भी था। नुपूर शर्मा के बयान के बाद हिन्दुओं के बड़े वर्ग ने उसका विरोध किया था। उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की थी। बीजेपी के लिए सबसे असहज स्थिति यही होती है। जब हिन्दू उसका विरोध करते हैं। और भारत में इस घटना पर नहीं, हमेशा से बड़ी तादाद में हिन्दू भाजपा और संघ की साम्प्रदायिक राजनीति का विरोध करते हैं। गांधी मारे ही इसीलिए गए थे कि वे साम्प्रदायिक राजनीति का विरोध करते थे और सर्वधर्म समभाव की बात करते थे।

तो खैर इस नुपूर शर्मा के टीवी डिबेट में पैगम्बर साहब के बारे में कहे अपमानजनक कथन के बाद सब तरफ से उसका विरोध हुआ। लेकिन भाजपा और मोदी सरकार को यह सूट करता था इसलिए कोई कर्रवाई नहीं हुई। लेकिन मामला इस्लाम के पैगम्बर साहब का था इसलिए दुनिया के दूसरे देशों में भी विरोध शुरु हो गया। कतर ने सबसे पहले विरोध किया। इसके बाद कई इस्लामिक देशों ने विरोध किया। यूएन भी बोला। उससे पहले अमेरिका के विदेश मंत्री ने धार्मिक स्वतंत्रता पर एक रिपोर्ट जारी करते हुए भारत से कड़े सवाल किए थे। इन सबसे दबाव में आई भाजपा ने पहले एक बयान जारी करके सर्वधर्म समभाव की बात की। फिर नुपूर शर्मा को पार्टी से संस्पेंड और नवीन जिंदल को पार्टी से निकाला। इससे पहले संघ प्रमुख भागवत ने भी अमेरिका के प्रेशर को कम करने के लिए कहा कि हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग क्यों ढुंढना?

इस पूरे दौरान मुसलमान आम तौर पर शांत रहे और धीरज से अपनी बात कहते रहे। मगर पिछले जुमे 3 जून को कानपुर में कुछ लोगों ने नमाज के बाद बाजार बंद करवाने की कोशिश की। उसका विरोध हुआ। फिर पथराव, लाठीचार्ज, गिरफ्तारियों का दौर शुरु हो गया। बाजार बंद करवाने वाले कुछ नए नेता टाइप लोग थे। जो इसके जरिए राजनीति करना चाहते थे। वे सब भी गिरफ्तार हुए। मगर तमाम बेकसूर लोगों पर भी जुल्म हुआ। गिरफ्तारियां हुईं। उस दिन हमने ट्वीट किया था कि कुछ बेवकूफ मुसलमानों ने बैठे बिठाए भाजपा और सरकार को मौका दे दिया।

मगर कौन सुनता है! उल्टे लोग गालियां और देने लगते हैं। लेकिन खैर आजकल गालियां तो सभी देने लगे हैं। जिसे बात पसंद नहीं आती है। हर पार्टी, हर समुदाय। तो समझ में किसी के आया नहीं। और इस जुमे को उससे कई गुना ज्यादा हो गया। सरकार पर और भाजपा पर जो दबाव बना था वह तो खत्म हो ही गया उल्टा मुसलमान और ज्यादा निशाने पर आ गए। अभी तक जो लोग पूरी तरह समर्थन कर रहे थे। उन्हें भी हिंसक घटनाओं के बाद पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा।

यहां यह सवाल उठता है कि आखिर कौन लोग हैं जो इतने नाजुक वक्त में मुसलमानों को गुमराह करते हैं। जाहिर है कि मुसलमानों के पास और कोई नेतृत्व तो है नहीं। न राजनीतिक, न सामाजिक ( सीविल सोसायटी), न बौद्धिक। केवल और केवल धार्मिक नेता हैं। या मोहल्ला टाइप गैर जिम्मेदार नेता।

आज मुसलमानो को यह सोचने की जरूरत है और केवल भारत में नहीं पूरी दुनिया में कि क्या बिना पढ़ा लिखा नेतृत्व बनाए वे आज की तेज गति वाली दुनिया में आगे बढ़ सकते हैं? और पढ़ाई लिखाई को प्राथमिकता बनाए बिना क्या पढ़ा लिखा नेतृत्व तैयार हो सकता है। यहां समझाने के लिए खासतौर से मुसलमानों को एक बात बताते हैं। सबसे पहला विरोध कतर ने किया। बड़ा दमदार। उसी से माहौल बना। तो कतर सबसे छोटा देश। मगर पहल इतनी बड़ी। क्यों?

क्योंकि उसने एजुकेशन को अपनी पहली प्राथमिकता बना रखा है। इस्लामिक मुल्कों में सिर्फ कतर एक ऐसा है जिसने अपने एजुकेशन समिट में हमको आमंत्रित किया। हम वहां गए। दुनिया भर के उच्च शिक्षण संस्थानों की हस्तियां वहां आई हुईं थी। कतर में आधुनिक शिक्षा की हवा बह रही थी। साथ में आर्थिक प्रगति, आधुनिकता के साथ एक और हवा बहुत तेज थी। वह थी फुटबाल की। वहां इस साल वर्ल्डकप फुटबाल हो रहा है।

अब आप देखिए। इतना छोटा देश और फीफा का इतना बड़ा आयोजन। बड़े- बड़े देशों को जिसमें हमारा देश भी शामिल है अभी तक नहीं मिला। और न अभी दूर दूर तक कोई संभावना है। तो समझिए। यह ताकत होती है। तालीम की। पैसे की। तरक्की की। मार्डन विश्व को समझने की। जो वह फुटबाल के जरिए दिखा रहा है। खिलाड़ी तो आएंगे। दुनिया भर के फुटबाल प्रेमी आएंगे। अपनी संस्कृति, पहनावे, तौर तरीकों के साथ। समझिए। दुनिया बहुरंगी है। इस्लामिक देश इसे समझ रहे हैं। मगर भारत में मुसलमानों का बड़ा हिस्सा अभी भी मार्डन एजुकेशन और तरक्कीपसंद सोच से दूर है।

देखिए भारत में भाजपा जो धर्म की राजनीति करती है। उसका उद्देश्य होता है। वह मुसलमानों के खिलाफ इसलिए करती है कि इससे उसको ध्रुवीकरण में सहायता मिलती है। अगर मुसलमान के नाम पर हिन्दुओं का ध्रुवीकरण न हो तो वह इसे कम या बंद कर देगी। किसी और को टारगेट करेगी। दलित को, आरक्षण को। या राजनीति का कोई दूसरा तरीका सोचेगी। मुसलमानों से उसकी नफरत राजनीतिक है। अगर राजनीति में फायदा नहीं होगा तो नफरत बंद या कम कर दी जाएगी। आज के समय में हर चीज राजनीतिक है। और लोकतंत्र में यह स्वाभाविक भी है। और यहीं मुसलमानों की सबसे बड़ी हार होती है। उनका पोलिटिकल सेंस सबसे कमजोर है। वे भावनाओं में बह जाते हैं। अपना खुद का फायदा नुकसान नहीं समझते। धार्मिक नेताओं का यह हाल है कि वे मसलहत ( बुदिधमानी से समयानुकूल सोच) को बुरा कहते हैं। मार्डन एजुकेशन के खिलाफ रोज नई से नई काल्पनिक बातें लाते हैं। कहते हैं कि अगर तालीम से तुम्हारे दीन ( धर्म) में बाधा आती है तो तालीम छोड़ दो। महिला शिक्षा का तो समर्थन करते ही नहीं हैं। उनके नौकरी करने का तो खुलकर विरोध करते हैं।

कतर में इस साल के अंत में फीफा हो रहा है। ध्यान रखें दुनिया का पहला मुस्लिम देश है जिसे फीफा का आयोजन मिला है। आगे हो सकता है ओलंपिक भी मिल जाए। तो शिक्षा, समृद्धि, आधुनिक सोच, नई पहल ही मुसलमान को आगे बढ़ाएगी। कतर का असली संदेश यही है।

नुपूर शर्मा तो कामयाब हो गई। उसका राजनीतिक ग्राफ तो उपर जाएगा। मगर जिन मुसलमानों पर मुकदमे दर्ज हुए हैं वे कब तक इसमें फंसे रहेंगे कोई नहीं जानता। बुलडोजर मकान तोड़ रहे हैं। नौजवानों को थाने में मारा जा रहा है। रांची में पुलिस की गोली से दो लड़के मर गए। आज सड़क पर उतरने का समय नहीं है। अदालतें खामोश हैं। प्रधानमंत्री मौन। मीडिया पार्टी बना हुआ है। विरोध करना ही अपराध बताया जा रहा है। बात समझना होगी। समय को पहचानना होगा। आज विरोध किसी का अधिकार नहीं रहने दिया गया है। राहुल गांधी को सड़क पर गिरा दिया जाता है। प्रियंका को अपने हाथों पर लाठियां रोकना पड़ती हैं। चौधरी चरण सिंह के पोते जयंत चौधरी को तो घेर कर पुलिस लाठियां बरसाती है। पचास उदाहरण हैं। ऐसे में पहले से निशाना बने मुसलमान का सड़क पर निकलना भारी राजनीतिक अपरिपक्वता है। इसीलिए मायावती साफ कहती हैं कि हम (दलित कमजोर लोग) प्रदर्शन नहीं करते।

यूपी चुनाव शांति से गुजर गए थे। लेकिन अब जो माहौल बना है भाजपा उसे 2024 लोकसभा चुनाव तक जारी रखने की पूरी कोशिश करेगी। उसके हाथ में फिर एक नया मुद्दा आ गया है। अरब देशों के विरोध के बाद चुप पड़े टीवी चैनलों को नई आक्सीजन मिल गई है। सरकार और भाजपा दोनों पर से दबाव हट गया है। सिर्फ मूर्खता की वजह से। राजनीतिक समझ का उपयोग न करने से। भावनाओं में बहने से। और सबसे बड़ी बात अपने अंदर के उस दुश्मन को न पहचानने से जो मुसलमानों को आगे बढ़ने से हमेशा रोकता है। धार्मिक नेतृत्व। जो पीछे की तरफ ही धकेल रहा है। मार्डन एजुकेशन, महिला शिक्षा, महिला नौकरी का विरोध कर रहा है। भावनाओं में फंसाता रहता है। इस जाल को तोड़े बिना मुसलमान के लिए अपनी समस्याओं का हल करना बहुत मुश्किल है।