राष्ट्रपिता का अनादर संयोग नहीं, साज़िश है

पलाश सुरजन

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कालीचरण प्रकरण के बाद हिन्दू कट्टरपंथी उसके समर्थन में सड़कों पर उतर गए और इसके साथ ही एक बार फिर महात्मा गांधी के बारे में लोग अनर्गल बातें करने लगे। इंदौर में हिंदूवादियों के एक समूह ने गांधी प्रतिमा के ही सामने धरना देते हुए कालीचरण के ख़िलाफ़ मामला वापस लेने की मांग की, उन्हीं में से कुछ लोगों ने पुलिस की मौजूदगी में गोड़से ज़िंदाबाद के नारे भी लगाए। पुलिस के लोग सर झुकाए सुनते रहे, बाद में 50 लोगों पर मामला दर्ज किया गया। इस घटना के दो दिन बाद ही नरसिंहपुर के भागवत कथावाचक तरुण मुरारी ने एक सार्वजनिक आयोजन में कहा कि महात्मा गांधी न तो महात्मा हैं और न ही राष्ट्रपिता हो सकते हैं। जो देश के टुकड़े कर दे, वह राष्ट्रपिता कैसे हो सकता है ? महात्मा गांधी ने जीते-जी देश के टुकड़े कर दिए। मैं उनका विरोध करता हूं। वह देशद्रोही हैं। मामला दर्ज हुआ तो तरुण मुरारी ने अपने बयान का ठीकरा उससे बात करने वाले पत्रकार पर फोड़ा और माफ़ी मांगते हुए वीडियो जारी किया।

यह संयोग नहीं है कि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के बारे में दुष्प्रचार को तब से बढ़ावा मिला है, जब से भाजपा दूसरी बार केंद्र में सत्ता में आई है। राष्ट्रपिता की तस्वीर पर पिस्तौल तानना,सोशल मीडिया पर उनके आपत्तिजनक मीम्स प्रसारित करना और गोडसे की मूर्तियां स्थापित करने की कोशिश करना – एक सोची समझी साज़िश का हिस्सा जान पड़ते हैं। हमने पहले भी लिखा है कि भारतीय जनमानस में गांधीजी की छवि मटियामेट करने की कोशिश उसी दिन शुरू हो गई थी, जिस दिन उन्हें स्वच्छ भारत अभियान के दायरे में क़ैद कर दिया गया था। उस अभियान में भी गांधीजी को नहीं, केवल उनके चश्मे को प्रतीक बनाया गया। सत्य,अहिंसा और अपरिग्रह के उनके सिद्धांतों के साथ ही “बुरा मत देखो, बुरा मत कहो और बुरा मत सुनो” का सन्देश देने वाले तीन बंदरों को भी उठाकर कचरे के डिब्बे में डाल दिया गया। जब आचरण ही इन सिद्धांतों और सन्देशों के विपरीत करना है, तो फिर इन प्रतीकों की भी ज़रुरत ही कहां है।

स्वच्छता अभियान को गांधीजी के डेढ़ सौंवी जयंती पर उनके प्रति श्रद्धांजलि बताया गया था। इसके चलते शहर तो साफ़ दिखने लगे, लेकिन वैचारिक प्रदूषण अपनी सारी हदें पार कर गया, लोगों के दिलो-दिमाग में नफ़रत का ज़हर भर दिया गया। यही ज़हर कालीचरण और तरुण मुरारी जैसों के दिमाग में भी भरा गया होगा। इस काम में सोशल मीडिया एक औजार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, जिस पर अब एक नया सवाल उछाला गया है कि मोहनदास करमचंद गांधी – जिन्हें महात्मा कहा जाता है, की किसी हिन्दू देवी-देवता की पूजा करते हुए कोई तस्वीर है क्या ? इस सवाल का मक़सद साफ़ है – गांधीजी के हिन्दू होने पर संदेह पैदा करना। वास्तविकता ये है कि गांधीजी ने हिन्दू धर्म में अपनी आस्था को कभी छिपाया नहीं। वे खुद को सनातनी हिन्दू कहते थे क्योंकि वे वेदों, उपनिषदों, पुराणों और हिन्दू धर्मग्रंथों में विश्वास रखते थे। ईश्वर और उसकी अद्वितीयता, मूर्ति पूजा, अवतारों, पुनर्जन्म और गो-रक्षा में भी उनका विश्वास था।

इससे पहले आज़ादी की लड़ाई में गांधीजी के योगदान को लेकर, आज़ादी का श्रेय उन्हें देने पर भी सवाल उठाए जा चुके हैं। उन्हें राष्ट्रपिता मानने से इनकार किया जा रहा है और महात्मा कहे जाने पर भी ऐतराज़ जताया जा रहा है। जबकि महात्मा और राष्ट्रपिता सम्बोधन तो उन्हें रवींद्रनाथ टैगोर और सुभाषचंद्र बोस ने दिए थे। ये वही विभूतियाँ हैं पहले जिनके नाम पर शोर मचाकर और फिर उनके जैसी शक़्ल-सूरत बनाकर बंगाल का चुनाव लड़ा गया। दुनिया भर में गांधीजी अहिंसक प्रतिरोध के सबसे बड़े प्रतीक माने जाते हैं। विपक्षी नेताओं की तरह अपना विरोध और आक्रोश जताने के लिए भारतीय जनता पार्टी के लोगों को भी उनकी शरण में जाना पड़ता है -संसद हो, विधानसभा हो या कोई और जगह। पंजाब के हालिया घटनाक्रम के बाद जगह-जगह गांधी प्रतिमा के सामने भाजपाइयों का धरना दिया जाना इसका उदाहरण है। दुखद है कि उन्हीं गांधीजी से लोगों को घृणा करना सिखाया जा रहा है और उन्हें विस्मृति के गर्त में ले जाया जा रहा है।

हर 2 अक्टूबर और 30 जनवरी को मोदीजी राजघाट पर सर नवाते हैं और विदेश यात्राओं के दौरान अपने भाषणों में भी बापू का हवाला भी देते हैं। लेकिन देश के भीतर राष्ट्रपिता को अपमानित करने की जो कोशिशें आए दिन होती रहती हैं, उन पर वे कुछ नहीं कहते। गोड़से को देशभक्त बताने पर उन्होंने अपनी पार्टी की सांसद को कभी माफ़ न करने की जब बात की थी, उसी वक़्त वे कोई कठोर कदम उठा लेते तो शायद और लोगों की हौसला अफ़ज़ाई होने नहीं पाती। न ही छत्तीसगढ़ के पूर्व गृह मंत्री और मध्यप्रदेश के मौजूदा गृह मंत्री, कालीचरण की गिरफ़्तारी पर सवाल उठा पाते। आज़ादी की लड़ाई के ही नहीं, बल्कि इस सदी के सबसे बड़े नायक पर कीचड़ उछालने की कोशिशें अगर रोकी नहीं जा सकती हैं, तो विदेशी राजनीतिज्ञों को साबरमती आश्रम ले जाने या हज़ार करोड़ रूपया खर्च करके उसका विकास करने की भी क्या ज़रुरत है ? बेइज़्ज़त और बदनाम कर दिए गए एक बूढ़े के बारे में जानने-समझने आख़िर वहां कौन आएगा ?

(लेखक देशबन्धु के संपादक हैं)