यादों में दिलीप साहब: जब लखनऊ में धरने पर बैठे थे ट्रेजडी किंग

दीपक कबीर

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

लखनऊ GPO यानी गांधी प्रतिमा-हजरतगंज की सफेद सीढ़ियों पर दिलीप कुमार एक दिन धरने पर बैठे थे। उनके साथ जॉनी वाकर या जगदीप मतलब कोई हास्य अभिनेता भी आए थे। 98 -99 का सितंबर महीना था, 4 अक्टूबर को पोलिंग थी। कल्याण सिंह की सरकार थी, लोकसभा इलेक्शन हो रहे थे, लाहौर बस यात्रा हो चुकी थी। और लखनऊ से भाजपा के अब तक के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी चुनाव लड़ रहे थे। उनसे दिलीप कुमार मित्रवत भी थे। मगर इसके बावजूद मुद्दों पर अलग होने की वजह से उस सत्ता जनित हिंसक घटना के विरोध में वो धरने को समर्थन देने आये थे। ये मामला राजनैतिक नाटक टीम पर हमले का था जो टीम सहमत की ओर से शबनम हाशमी के नेतृत्व में लखनऊ आयी थी, मेरी भूमिका स्थानीय सहयोग और आयोजन की थी। ये इंडिया शाइनिंग का हाहाकारी दौर था।

“भूखा भारत तड़प रहा है-

अटल का ‘इंडिया’ चमक रहा है”

पूरी तरह सफेद कपड़ों में बिल्कुल आम इंसानों जैसे जब दिलीप कुमार आए तो मुझे उन्हें पहचानने में भी थोड़ी असुविधा हुई। धीमी आवाज़ में बेहद विनम्रता से बोलने वाले शख्स थे। मुख्य कार्यक्रम शाम का था तो भीड़ भी बिल्कुल नहीं थी, फोटोज़ का सवाल ही नहीं क्योंकि मोबाइल का जन्म ही नहीं हुआ था। धरने पर आ जा रहे लखनऊ के तरक्की पसंद लोग उनसे मिलते रहे, इतना याद है कि मैंने उनसे विज़िटर बुक पर मैसेज लिखवाया था और फिर पीछे चाय पिलाने ले गया था, उनको लगा कोई बैठने की जगह होगी तो साथ आ गये थे मना करने के बावजूद,कि ठंडी हो जाएगी मगर पीछे बाउंड्री फांद कर सड़क पार से लाना था तो मुस्कुरा कर वहीं रुक गये।

शायद तब उनका वो क्रेज़ न रह गया हो या लोग झिझक गये हों, तब भी सड़क पर चल रहे लोगों ने बस पहचानने की कोशिश की न कोई हंगामा न आटोग्राफ। उस दौर के सक्रिय रहे सभी लखनऊ के साथियों को याद होगा। हाँ, शाम को बहुत भीड़ हो गयी थी। अब कल्पना करिये, आज आप सामान्य दिनों में भी GPO पर बैठ नहीं पाते ,गिरफ्तार हो जाते हैं, तब प्रधानमंत्री के चलते चुनाव में भी रात दिन हम सब धरने पर बैठ सकते थे। जबकि दोनो जगह इसी भाजपा की सरकार थी।

आज अगर दिलीप कुमार बैठते तो UAPA में जेल जाते और फादर स्टैन स्वामी या वरवर राव की गति को प्राप्त होते। सिर्फ हमने ही बहुत कुछ नहीं खोया। भाजपा ने भी अपनी शर्म और लोकतंत्र लगभग पूरा ही खोया है। पर जो भी हो, दिलीप साहब भरपूर जिए, और शानदार जिए, मुझे एक्टिंग वेक्टिंग की समझ नहीं और बतौर एक्टर दिलीप साहब ने बहुत प्रभावित नहीं किया मगर एक गाना उसके बेखुदी अंदाज़ के चलते मुझे बहुत पसंद है।जो पता चला उनपर ही फिल्माया गया है। तो उसे देख रहा हूँ और इतना ही ताउम्र अब मुझे उनसे जोड़े रखेगा। “ये मेरा दीवानापन है” और इसमें सायरा बानो जी का योगदान अमूल्य है। मैं उनके आगे के सफर के बारे में सोच रहा हूँ।

(लेखक सोशल एक्टिविस्ट हैं, ये उनके निजी विचार हैं)