चूंकि आज का सबसे बड़ा मुद्दा यूपीएससी द्वारा किया गया सिविल सर्विस नियुक्ति महाघोटाला है, और इस बारे में मैं आज रात 7 बजे आपके बीच लाइव आऊंगा, फिर भी कुछ मित्र चाहते हैं कि NDTV की पूर्व एंकर निधि राजदान का मामला चूंकि पत्रकारिता से जुड़ा है, इसलिए मैं इसपर कम से कम एक टिप्पणी तो जरूर कर दूं।
प्रथमदृष्टि में ये मामला बकलोली या बेवकूफी का है, जिसके शिकार हममें से कोई भी हो सकता है। लेकिन किसी चैनल में बैठकर लाइव शो करने वाली एंकर या पत्रकार के लिए ये अच्छी बात नहीं है, क्योंकि आपको कई बार अपने पास आने वाली सूचनाओं को खुद भी फिल्टर करना पड़ता है। आपमें झूठ पकड़ने की क्षमता होनी चाहिए। बेशक अपनी या संस्थान की नीतियों के कारण आपको हर दिन झूठ बोलना पड़ता हो, लेकिन सूचनाओं की गेटकीपिंग का काम आना चाहिए। अच्छी बात है कि एंकर को अक्सर इतना दिमाग लगाना नहीं पड़ता है और सामने स्क्रीन पर जो लिखा आता है, या ईयरपीस पर जो भी सवाल पूछने को कहा जाती है, वह उसे बोल देना पड़ता है। इस ठगी मामले में निधि राजदान एक कमजोर पत्रकार साबित हुई हें।
मेरी दूसरी चिंता ये है कि जिसने निधि को बेवकूफ बनाया है क्या उसने एप्लिकेशन की प्रोसेसिंग फीस या हार्वर्ड में टीचर्स क्वार्टर की बुकिंग के लिए कुछ लाख रुपए भी वसूले हैं। क्योंकि इस तरह का फ्रॉड सिर्फ मस्ती के लिए कोई शायद ही करेगा। इसमें मेहनत भी लगी होगी और दिमाग भी। उम्मीद है कि निधि राजदान के साथ ऐसा नहीं हुआ होगा।
तीसरी बात को मैं ज्यादा गंभीर मानता हूं। निधि राजदान को ऐसा क्यों लगा कि उसके पास एसोसिएट प्रोफेसर बनने का ऑफर आएगा और जब ऐसा ऑफर आने की बात हुई तो उसे या किसी को शक क्यों नहीं हुआ। एक तो, एसोसिएट प्रोफेसर इनविटेशन पर नहीं बनाया जाता। प्रोफेसर बनाने का ये एक तरीका होता है, बाकी पदों पर ऐसा नहीं होता। फिर भी किसी के दिमाग में खतरे की घंटी क्यों नहीं बजी। जहां तक मेरा सवाल है तो मुझे लगा कि ऊंचे परिवार से है, सोशल कनेक्शन से ऑफर मिल गया होगा। भारत के किसी टीचर्स ने वहां भी सामाजिकता निभा दी होगी। ऐसा होता रहता है। इसे सोशल कैपिटल बोलते हैं। लेकिन मैंने इस बारे में लिखने से परहेज किया।
चौथी बात, निधि की अपनी योग्यता भी पत्रकारिता पढ़ाने की नहीं है। ये वो भी जानती हैं। बात ये नहीं है कि उनके पास सिर्फ डिप्लोमा है। कम पढ़ा-लिखा होना कोई अपराध नहीं है। हमने कम डिग्री वाले बड़े-बड़े विद्वान देखे हैं। लेकिन उन विद्वानों ने अपने स्वाध्याय से पढ़ाई की है, जीवन से ज्ञान अर्जित किया है। निधि को क्यों लगा कि वे किसी यूनिवर्सिटी में मीडिया थ्योरी, मीडिया हिस्ट्री, प्रोसेस, कॉनसेप्ट सब पढ़ा लेंगी, स्टूडेंट्स के रिसर्च को गाइड कर देंगी, उन विषयों में, जिसकी उन्होंने कभी पढ़ाई की ही नहीं है।
निधि की कुल जमा योग्यता ये संयोग है कि वे जाति व्यवस्था के सबसे ऊंचे पायदान पर मौजूद खाते-पीते परिवार में पैदा हुईं। पिता एक मीडिया संस्थान में बड़े पद पर रहे। चूंकि प्रणय राय की कुख्याति रही है कि वे NDTV में अक्सर ऐसे लोगों को आसानी से भर्ती करते हैं जो प्रभावशाली राजनीतिक या अफसर परिवारों के हैं, तो वे एनडीटीवी में आ गईं और खबरें पढ़ने लगीं। हो सकता है कि वे नौकरी पाने के योग्य भी रही हों। मेरी जानकारी में न तो उन्होंने कोई थीसिस लिखी है, न पेपर और न ही कोई किताब। किसी कॉन्फ्रेंस में उनका अपने सब्जेक्ट पर दिया गया कोई वक्तव्य भी मैंने नहीं देखा है। पत्रकारिता का पतन हो गया है और सरकार बोलने पर पाबंदी लगा रही है, जैसी जेनेरिक बातों को व्याख्यान न माना जाए। (अगर आपके संज्ञान में उनको कोई वक्तव्य हो तो बताएं।) इसके बावजूद उनके अंदर एनटाइलटेमेंट का जो एहसास है, वो भारतीय समाज व्यवस्था से आया है। उन्हें लगा कि ऐसा ही होता होगा। उन्हें लगा कि अब तो सब कुछ हासिल होता रहा है तो आगे भी हो जाएगा।
उन्होंने हार्वर्ड में पढ़ाना शुरू करने से पहले और वहां ज्वाइन करने से पहले वहां के पदनाम का इस्तेमाल किया, ये सरासर अनैतिक और शायद गैरकानूनी भी है। लेकिन ये शिकायत सिर्फ हार्वर्ड यूनिवर्सिटी कर सकती है। निधि राजदान की बेवकूफी क्षमायोग्य है। वे दया की भी पात्र हैं। लेकिन आखिरी दो मामलों में उनकी भूमिका सही नहीं है। हो सकता है कि निधि इस मामले में पूरा सच नहीं बता रही हैं। मेरी ये टिप्पणी अब तक के उनके दिए गए तथ्यों पर आधारित है। मुझे पक्का यकीन है कि समाज उनके प्रति उदारता बरतेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)