डिजिटल प्रचार, किसका होगा बेड़ा पार

पलाश सुरजन

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कोरोना की तीसरी लहर के बीच पांच राज्यों में चुनाव का ऐलान तो हो गया, लेकिन इसके साथ ही सावधानी बरतने के लिहाज से निर्वाचन आयोग ने रैलियों, सभाओं पर बैन लगा दिया है। घर-घर जाकर संपर्क करने में भी लोगों की संख्या सीमित है। ऐसे में जनता तक पहुंचने के लिए सोशल मीडिया और वर्चुअल रैली का ही सहारा है। जब से यह तय हुआ है कि इस बार चुनाव में डिजिटल प्रचार होगा, तब से ये सवाल उठ रहा है कि इसमें किसका बेड़ा पार होगा। जैसे चुनावी चंदा हासिल करने में भाजपा बाकी दलों से आगे है, जिस तरह भाजपा सबसे अमीर पार्टी है, उसी तरह डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर भी भाजपा ही फिलहाल सबसे मजबूत है। इसलिए सवाल उठने लगा है कि क्या भाजपा के लिए सोची-समझी रणनीति के तहत बढ़त का रास्ता तैयार किया गया है।

उत्तरप्रदेश में सपा के बहुमत का दावा करने वाले अखिलेश यादव डिजिटल प्रचार को लेकर परेशान नजर आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि भाजपा के लोग डिजिटल प्लेटफॉर्म पर कब्जा जमाए हुए हैं। अखिलेश ने कहा कि जिन कार्यकर्ताओं के पास संसाधन नहीं है वो वर्चुअल रैली कैसे करेंगे। जो छोटी पार्टियां हैं उन्हें कैसे स्पेस मिलेगा। जो सवाल अखिलेश यादव ने उठाए हैं, वहीं बहुत से जानकार भी उठा रहे हैं कि आखिर इस डिजिटल प्रचार की दौड़ में छोटे और क्षेत्रीय दल भाजपा का मुकाबला कैसे करेंगे। जहां तक भाजपा का सवाल है तो उसने कोरोना की पहली लहर के बाद से ही डिजिटल प्रचार की तैयारी शुरु कर दी थी। भाजपा ने दो साल पहले ही जमीनी स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं को नवीनतम तकनीकों और डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से लोगों तक पहुंचने के लिए प्रशिक्षित कर दिया है। बूथ स्तर सहित पार्टी के सभी कार्यालयों में वर्चुअल अभियान के लिए प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए गए हैं।

वैसे भी भाजपा तो शुरु से डिजिटली मजबूत रही है। ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप ऐसे तमाम सोशल मीडिया ऐप एक तरह से भारत में उसकी मुट्ठी में ही हैं। कई ऐसी रिपोर्ट आ चुकी हैं, जिनसे पता चला है कि किस तरह भाजपा ने एक बड़े वर्ग को अपने अनुसार ढालने के लिए डिजिटल मीडिया का सहारा लिया है। अभी राहुल गांधी ने हाल ही में ऐसा एक ट्वीट भी किया है कि बुली बाई ऐप मामले में अभियुक्तों की कम उम्र देखकर पूरा देश पूछ रहा था कि इतनी नफ़रत आती कहां से है? दरअसल भाजपा ने नफ़रत की कई फ़ैक्टरी लगा रखी हैं। टेक फॉग उनमें से एक है।

इससे पहले भाजपा की आईटी सेल में काम कर चुकी एक महिला ने आरोप लगाया था कि ‘टेक फॉग’ नाम के ऐप का इस्तेमाल सत्ताधारी दल से संबद्ध राजनीतिक लोगों द्वारा कृत्रिम रूप से पार्टी की लोकप्रियता बढ़ाने, इसके आलोचकों को प्रताड़ित करने और सभी प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बड़े पैमाने पर जन धारणाओं को एक ओर मोड़ने के लिए किया जाता है। कमोबेश ऐसे ही आरोप दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफार्म को लेकर भी भाजपा पर लग चुके हैं। इसके बाद जब यह तय हो गया है कि इन चुनावों में अब डिजिटल प्रचार ही होगा तो फिर यह सवाल उठना लाजिमी है कि इसमें निष्पक्ष मतदान की गुंजाइश कितनी बचेगी।

एक ख़बर आई है जिसके मुताबिक भाजपा ने 8 हज़ार कार्यकर्ताओं को डिजिटल प्रचार के लिए प्रशिक्षित किया है। भाजपा के पास इस आईटी सेना का खर्च उठाने के लिए भी भरपूर संसाधन होंगे, लेकिन बाकी दल भाजपा के आगे कैसे टिक पाएंगे। वैसे कांग्रेस ने भी डिजिटल प्रचार की तैयारी तो कर ली है और हो सकता है प्रियंका गांधी, राहुल गांधी के युवा नेतृत्व में युवा पीढ़ी के नेता डिजिटल प्रचार में सहज महसूस करें, लेकिन क्या पुराने कांग्रेसियों के लिए यानी उम्रदराज लोगों को इसमें दिक्कत आएगी और यही सवाल मतदाताओं के लिए भी है। युवा मतदाता तो संचार के नए माध्यमों के साथ काम करने में सहज होते हैं, लेकिन वृद्ध मतदाताओं तक राजनैतिक दल किस तरह अपनी बात पहुंचा पाएंगे। क्या इन चुनावों में युवा मतदाता ही जीत और हार तय करेंगे।

ग्रामीण जनता तक डिजिटल तौर पर पहुंचना भी एक कठिन काम है, क्योंकि डिजिटल इंडिया में अभी शाइनिंग इंडिया और फील गुड वाले लोगों की गिनती ही अधिक है। भारत के ग्रामीण अंचलों में बिजली और इंटरनेट की सुविधा अब भी एक बड़ा ख़्वाब है। लॉकडाउन में जब स्कूल-कालेज बंद थे, तब बच्चों को आनलाइन कक्षाओं में कितनी दिक्कतें आती थीं, इस बात को शहरों में रहने वाले संपन्न लोग नहीं समझ सकते। उन दूर-दराज के गांवों तक और शहरों में भी गरीब तबके के लोगों तक राजनैतिक दल किस तरह अपने प्रचार को पहुंचा पाएंगे। क्या आम मतदाता के पास इतना डेटा रहेगा कि वह हरेक पार्टी के भाषणों को सुन सके या फिर एक बार फिर दूरसंचार के निजी खिलाड़ियों को नए सिरे से मुनाफ़ा पहुंचाने का कोई खेल यहां भी तलाश लिया जाएगा।

वैसे सबसे अहम सवाल तो ये है कि कोरोना का ख़तरा था तो चुनाव महीने-दो महीने टाले क्यों नहीं जा सकते थे। प.बंगाल चुनावों के वक़्त भी कहा गया कि एहतियात बरती गई है लेकिन उसके बाद महामारी का विस्फोट देश ने झेला है। तो क्या उस कड़वे अनुभव को देखते हुए बेहतर नहीं होता कि कुछेक महीने या कम से कम होली तक रुक जाते, फिर आयोग चुनाव की घोषणा करता। तब तक वैक्सीनेशन और बूस्टर डोज़ की रफ्तार बढ़ाई जाती।

(लेखक देशबन्धु के संपादक हैं)