संवाद का संकट: जिस अर्थव्यवस्था ने समाज को ज़हरआलूदा किया है उसके खात्मे के अलावा…

क्या कभी ऐसा हुआ कि आप परिवार के सदस्यों के साथ किसी मुद्दे पर बात कर रहे हैं और अचानक अपने महसूस किया इस बातचीत को यहीं रोक देना चाहिए वरना सदस्यों के बीच तनाव निर्मित हो जायेगा? या कभी कहीं किसी दुकान पर जलपान करते हुए ऐसा महसूस हुआ हो, या कभी ट्रेन के सफ़र में सहयात्रियों के साथ चर्चा के दौरान ऐसा हुआ हो? या, क्या आपने अपने पास-पड़ोस के लोगों से मिलने जुलने में एहतियात बरतना शुरू कर दिया है कि कहीं बातचीत तनाव या लड़ाई झगड़े का कारण न बन जाये? क्या ऐसा हुआ है कि आप ट्रेन के सफ़र में लोगों के साथ बातचीत को इग्नोर करने के लिए मोबाइल पर गाने सुनते रहते हैं या बिना मन के पढ़ने का नाटक करते हैं? अगर आप गाँव के रहने वाले हैं और आपकी उम्र 40 के पार है तो बताएं कि क्या अब भी आप गाँव में किसी के घर महज़ मिलने भर के लिए जाते हैं? क्या दूसरे लोग अब भी आपके घर वैसे ही आ जाते हैं जैसे 20 साल पहले आया करते थे? क्या आप आज पड़ोसियों के साथ खाली वक़्त गुज़ारते हैं या आसपास की चाय की दुकानों पर? एक और बात, क्या गाँव में जाति और धर्म के आधार पर लोग समूह बनाने लगे हैं?

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सोचेंगे तो ऐसे ही कई और प्रश्न आपके ज़ेहन में आयेंगे. ये बहुत पुरानी बात नहीं है कि ट्रेन के कुछ घंटों के सफ़र में बहुत से लोग इतने अच्छे दोस्त बन जाते थे कि उनके साथ जीवन भर का रिश्ता हो जाता था लेकिन आज अगर दो अलग धर्मों या जातियों के लोग साथ में सफ़र करते हैं तो उनमें 30 साल पहले वाले दौर की तरह संवाद नहीं होता. सहयात्री अगर मुसलमान या दलित हुआ तो वो डरा सहमा बैठा रहता है और कई बार तो लोग उसके धर्म या जाति को जानने के बाद उससे ऐसे खेलते हैं कि वो अपमानित महसूस करता रहता है. हलांकि ये अभी आम घटना नहीं है लेकिन धर्म के आधार पर परस्पर संवादहीनता और दूरियां आम बात होती जा रही हैं. ये बात मैं हिन्दी भाषी राज्यों के अपने अनुभव के आधार कह रहा हूँ और आप मित्रों में जिनके साथ मुझे बात करने का मौका मिला उनका भी लगभग ऐसा ही अनुभव है.

जो लोग शहरों में बहुमंज़िला इमारतों में रहते हैं उनके बीच भी संवादहीनता आम है, कमाल तो ये है कि धर्म और जाति के आधार पर पैदा होने वाले तनाव के इतर भी यहाँ लोग एक दूसरे से दूर रहने की कोशिश करते हैं. समाज और समूह से अलग अपने में सिमट चुके लोगों के लिए सोशल मीडिया ने एक विकल्प दिया है. ऐसे लोग जिन्हें पूरे दिन में कोई एक फोन करने वाला नहीं है, जिनसे महीने में एक बार भी मिलने आने वाला कोई नहीं है उनके फेसबुक पर हज़ारों दोस्त और फालोवर्स हैं. इसमें कोई बुराई नहीं है. तकनीक ने जीवन को आसान बनाया है तो संवाद को सरल और सहज बनाने में भी तकनीक का इस्तेमाल होना ही चाहिए, पर क्या जो दिक्क़त आप समाज में महसूस करते हैं वही दिक्क़त लगभग उसी तरह यहाँ भी महसूस नहीं करते?

सोशल मीडिया में आप जो लिखते बोलते हैं उसकी प्रेरणा अक्सर तीन तरह से मिलती है, प्रथम, किसी ने कुछ लिखा या बोला और उसकी प्रतिक्रिया में अपने कुछ लिख या बोल दिया, दूसरा, आप किसी मिशन या एजेंडे पर काम करते हैं और उसी के अनुरूप लिखते बोलते हैं, तीसरा, आप किसी सर्जनात्मक काम में लगे हैं और कुछ सृजित किया है तो उसे आप सबसे शेयर करना चाहते हैं. अब, आप किसी एक या कुछ विषयों के जानकर हों सकते हैं, उसी से जुड़ा हुआ कुछ लिखते बोलते हैं, जब आपके लिखने बोलने में कोई पहलु छूट जाता है या कुछ ऐसा आप बोल जाते हैं जो तथ्यात्मक रूप से सही नहीं होता तो लोग आपके लिखे में रह गयी कमी को पूरा करने से पहले नाराज़गी जताते हैं कि अपने ‘ये कैसे लिख या बोल दिया, ये क्यूँ नहीं पढ़ा, ये क्योँ नहीं जानते’ वगैरह वगैरह. यहाँ हम किसी को डाटने या नीचा दिखाने के बजाय उसके लिखे या बोले में रह गयी कमी को अपनी जानकारी से पूरा कर सकते हैं. अगर हम ऐसा कर पायें तो सोशल मीडिया का प्लेटफार्म सब के लिए सामान रूप से उपादेय हो सकता है. अफ़सोस, हम ऐसा कम ही करते हैं. ऐसा नहीं है कि ऐसा कुछ उजड्ड लोग ही करते हैं, ऐसे लोग जो किसी विषय के विशेषज्ञ हैं, वर्षों से पत्रकारिता कर रहे हैं, शिक्षक हैं या राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय हैं, सभी ये गलतियाँ कर रहे हैं.

राजनीतिक पार्टियाँ संवाद की एक अलग ही दुनिया निर्मित कर रही हैं, उन्होंने आई टी सेल बना रखे हैं, इस सेल का उद्देश्य अपनी पार्टी के पक्ष में जनमत निर्मित करना है. अब ये लोग तथ्य और तर्क से परे ग़लत अवधारणा और ग़लत तथ्य के सहारे संवाद की बिलकुल नयी दुनिया बना रहे हैं. इनके लिए सत्य और तथ्य कोई मायने नहीं रखता, इन्हें तो बस अपने एजेंडे के पक्ष में विपरीत पक्ष को खामोश करना है, विपरीत पक्ष तर्क से चुप हो, कुतर्क से चुप हो या फिर गाली या लड़ाई से, सब जायज़ है. जब सियासत ये काम करती है तो इसका असर सामाजिक और पारिवारिक जीवन पर भी पड़ता है. हिन्दुत्व की सियासत करने वाले लोग ये कम तो लगभग एक सदी से करते आ रहे हैं लेकिन दूसरे लोग जो घोषित रूप से ऐसी सियासत नहीं करते वो भी यही कर रहे हैं. 1990 के बाद से सियासत के इस रूप का असर समाज पर स्पष्टरूप से दिखाई देने लगा है और गुज़रते वक़्त के साथ बढ़ता ही जा रहा है. आज की युवा पीढी जो इसी माहौल में पैदा और जवान हुई है तो वो इसके बहुत ज़्यादा असर में हैं.

पहले पैराग्राफ में जिन प्रश्नों से मैंने बातचीत की शुरूआत की है, उसके उत्तर आपको इसी असर के हवाले से देखना चाहिए. साम्प्रदायिक और जातीय नफ़रत पर आधारित जिस सियासत पर हमारे देश में लगातार सभी राजनीतिक पार्टियाँ काम कर रही थीं, आज वो एक भयानक हकीक़त के रूप में सामने है और इसके कारण हमारे परिवार और समाज में परस्पर संवाद कठिन हो गया है. यहाँ तक कला और साहित्य जगत में भी ये ज़हर तेज़ी से फ़ैल रहा है. अब प्रश्न ये है कि इसकी जड़ें कहाँ हैं?

इस देश में साम्प्रदायिक सियासत तो पिछली सदी के बिलकुल शुरू में ही शुरू हो गयी थी, हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के झंडे तले संगठन खड़े हुए और उन्होंने देश की जनता के बजाय अंग्रेज़ी हुकूमत को अपना मसीहा माना और उनके ही ज़ेरे निगरानी काम करते रहे. इसी का परिणाम था कि देश जब आज़ाद हुआ तो दोनों साम्प्रदायिकता के आधार पर दो देश बने. लेकिन भारत ने साम्प्रदायिकता को तिलांजलि देकर सेक्युलर होना चुना.

जब तक देश की अर्थव्यवस्था में इतनी ताब थी कि उससे आम लोगों की जरूरतें पूरी होती रहें, हिंदुत्व की सियासत के पैरोकारों के भरपूर मेहनत के बावजूद उन्हें जनसमर्थन बहुत कम मिला, इतना कि इसकी बदौलत वो किसी राज्य में सरकार नहीं बना सकते थे. लेकिन जैसे जैसे अर्थ व्यवस्था में आम जनता की जरूरतों को नज़रंदाज़ किया जाने लगा, जातीय और साम्प्रदायिक सियासत को जन समर्थन मिलने लगा. ये बात शायद आपको अजीब लगे कि जब जनता को मिलने वाली सहूलतें कम होने लगीं तो उसने साम्प्रदायिक और जातीय सियासत का समर्थन क्यों किया उन्हें तो एक होकर इसके खिलाफ़ लड़ना चाहिए था!

दरअसल यही विडंबना है, दुनिया में अर्थव्यवस्था का जो स्वरूप आज कल हम देख रहे हैं इसे पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था कहते हैं, इसका मुख्य मकसद है कि पूंजीपति का मुनाफ़ा हर हाल में बढ़ते रहना चाहिए. जब तक पूजीपतियों के मुनाफ़े को बढ़ाते हुए भी आम जनता के लिए भी कुछ करने की संभावना अर्थव्यवस्था में बनी रहती है जनता को जाति, धर्म या नस्ल आदि की बुनियादों में पर लड़वाने की कोशिश नहीं की जाती लेकिन जब ऐसा नहीं रह जाता तो लोगो को इन्हीं बुनियादों पर लडवाया जाता है ताकि वो राज्यसत्ता के खिलाफ़ बग़ावत न कर दें.

भारत में आप देखेंगे कि नेहरू जी साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ खड़े होते हैं, हलांकि उन्हीं की पार्टी के कुछ सदस्य हिंदुत्व के साथ भी होते हैं लेकिन वो ज़्यादा प्रभावशाली नहीं हो पाते, नेहरू जी के दौर में भारत में बुनयादी विकास की ज़रूरत थी, भारत का पूंजीपति भी तब इतना सक्षम नहीं था कि वो आज की तरह देश ही निगलने की जुर्रत कर पाता, इसलिए भारत का विकास भारत के लोगों के सहयोग से और उन्हीं के लिए होता हुआ दिखाई देता है और बड़े पैमाने पर मजदूरों को काम मिलता है और पढ़े लिखे लोग ऑफिस के बाबू बनते हैं. लेकिन इंदिरा जी के दौर के आते आते विकास का स्वारूप बदलने लगता है, जनता के लिए भी ‘बेहतर करने के अवसरों’ को कम होना पड़ता है और पहली बार इंदिरा जी साम्प्रदायिक सियासत में हाथ डालती हैं और खुद ही इस आग में भस्म हो जाती हैं. फिर आधुनिक भारत का सपना लेकर राजीव जी आते हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था तो अब पूंजीपतियों के मुनाफ़े को समर्पित हो चुकी थी, उससे इतना भी नहीं बच रहा था कि जनता के असंतोष को तुष्ट किया जाता लिहाज़ा अपनी माँ के हस्र से कोई सबक न लेते हुए वो भी साम्प्रदायिकता के जिन्न को बोतल से निकालते हैं, असमय उनकी मौत न हुई होती तो बहुत मुमकिन था कि अयोध्या में जो कुछ आज हुआ वो उनकी हुकूमत में उनके द्वारा हुआ होता.

लेकिन अब वक्त और बदल चुका था, पूरी दुनिया में पूंजीवादी निजाम अपने चेहरे से इंसानियत का मुखौटा उतार चुका था लिहाज़ा भारतीय पूंजीपति भी उनसे पीछे रहने को तैयार नहीं था. राजीव जी के बाद भारत के सियासत को आप जाति और धर्म के गंदे तालाब में डुबकी लगाते हुए देखते हैं और आज भारतीय जनता का एक बड़ा हिस्सा इस गंदे तालाब में डुबकी लगाने को अपना सौभाग्य समझने लगा है. परिणामतः राज्यसत्ता जनता से जीने के बुनियादी संसाधन छीनते हुए भी अजेय बनी हुई है.

इस सियासत से संवाद का संकट कैसे पैदा हो गया, इसे समझते हैं. 1990 के दशक तक पूंजीवाद अपने को अजेय घोषित कर चुका था, पहला समाजवादी खेमा अपने जन्म के कुछ ही साल बाद ध्वस्त हो चुका था, अब पूंजीवाद के सामने कोई चुनौती नहीं थी. ऐसे में लूट ही उसका धर्म था, लेकिन लूट के लिए ज़रूरी है कि जनता को ये दिखाई न दे और दे भी तो उसे इस पर सोचने की फुर्सत न हो. लिहाज़ा पूंजीपतियों ने साम्प्रदायिक सियासत को खूब फंड दिया, मीडिया के ज़रिये इस सियासत में जान फूंकी गयी, साम्प्रदायिक नफ़रत के नए औतार खड़े किये गये और देखते देखते एक साम्प्रदायिक भाषा भी तैयार हो गयी. इसने जो मानस निर्मित किया उसे आज हम परिवार, समाज और सोशल मीडिया में देख रहे हैं.

प्रश्न है कि हम करें क्या? जिस अर्थव्यवस्था ने समाज को ज़हरआलूदा किया है, उसके खात्मे के अलावा दुनिया को सुन्दर बनाने का कोई रास्ता नहीं है. हमें ही तय करना पड़ेगा कि दुनिया पूंजीपतियों के मुनाफ़े के लिए तिल तिल कर मरेगी या अर्थव्यवस्था को आम जनजीवन के लिए उपादेय बनाकर दुनिया को सुन्दर बनाएगी. काम कठिन है लेकिन तभी तक जब तक हम इसका इरादा नहीं कर लेते.