ज़ाहिद ख़ान
‘‘फ़िराक़ हूं और न जोश हूं मैं, मजाज़ हूं सरफ़रोश हूं मैं।’’ शेर-ओ-अदब की महफ़िल में जब भी ग़ज़लों-नज़्मों का जिक्र छिड़ता है, मजाज़ लखनवी का नाम ज़रूर आता है। एक लंबा अरसा गुज़र गया, मगर उनकी शायरी की धमक कम नहीं हुई। आज भी मजाज़, अवाम के महबूबतरीन शायर हैं। मजाज़ के अलावा और भी ऐसे कई शायर हैं, जिन्हें अपने ज़माने में खूब शोहरत मिली लेकिन मजाज़ की मक़बूलियत कुछ और ही है। उनके समूचे कलाम में दिलों के अंदर उतर जाने की जो कैफ़ियत है, वह बहुत कम लोगों को नसीब हुई है। मजाज़ की ख़ूबसूरत, पुरसोज शायरी के पहले भी सभी दीवाने थे और आज भी उनकी मौत के इतने सालों बाद, यह दीवानगी जरा सी कम नहीं हुई है। मजाज़ सरापा मुहब्बत थे। तिस पर उनकी शख़्सियत भी दिलनवाज़ थी। वे जब अपनी सुरीली आवाज़ और ख़ूबसूरत तरन्नुम में नज़्म पढ़ते, तो चारों और ख़ामोशी पसर जाती। सामयीन उनकी नज़्मों में डूब जाते। एक दौर था, जब मजाज़ उर्दू अदब में आंधी की तरह छा गए थे। आलम यह था कि जब वे अपनी कोई नज़्म लिखते, तो वह प्रगतिशील रचनाशीलता की एक बड़ी परिघटना होती। लोग उस नज़्म पर महीनों चर्चा करते।
लखनऊ के एक पुराने कस्बे रुदौली में 19 अक्टूबर, 1911 को असरार-उल-हक यानी मजाज़ की पैदाइश हुई। उनकी शुरुआती तालीम लख़नऊ में ही हुई। उसके बाद उन्होंने आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में दाखिला ले लिया। आगरा में उस्ताद शायर फ़ानी बदायूंनी, अहसन मारहरवी और मैकश अकबराबादी की शायराना संगत मिली। या यूं कहें इन उस्ताद शायरों की शार्गिदी में वे शायरी का हुनर सीखे। मजाज़ ने अपनी इब्तिदाई शायरी में उनसे ज़रूरी इस्लाह ली। सच बात तो यह है कि फ़ानी बदायूंनी ने ही उन्हें ‘मजाज़’ का तख़ल्लुस दिया। कॉलेज में मुइन अहसन जज़्बी और आले अहमद सुरूर उनके दोस्त थे। ज़ाहिर है इस माहौल में मजाज़ के अंदर भी शायरी की जानिब मोहब्बत जागी। अदबी महफ़िलों में शिरकत करने के साथ-साथ वे भी शे’रगोई करने लगे। दीगर शायरों की तरह मजाज़ की शायराना ज़िंदगी की इब्तिदा, ग़ज़लगोई से हुई। आगाज़ भी लाजवाब,-
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए।
इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में
सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए।
लेकिन चंद ही ग़ज़लें कहने के बाद, मजाज़ नज़्म के मैदान में आ गए। आगे चलकर नज़्मों को ही उन्होंने अपने राजनीतिक सरोकारों की अभिव्यक्ति का वसीला बनाया। अलबत्ता बीच-बीच में वे जरूर ग़ज़ल लिखते रहे।
मजाज के आगे की तालीम अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में हुई। अलीगढ़, उस वक्त क्रांतिकारी ख़याल रखने वाले तालिब—इल्मों और उस्तादों का गढ़ बना हुआ था। अली सरदार जाफ़री, सिब्ते हसन, जांनिसार अख़्तर, हयातुल्लाह अंसारी, जज़्बी, सआदत हसन मंटो, इस्मत चुग़ताई, ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे उर्दू अदब के बड़े नाम उस वक्त एक साथ, वहां तालीम ले रहे थे। इस अदबी माहौल का असर मजाज़ की शख्सियत पर भी पड़ा और यही वह जमाना था जब उन्होंने ‘इंक़लाब’, ‘नज्रे-खालिदा’ और ‘रात और रेल’ जैसी अपनी मक़बूल नज़्में लिखीं। अपनी शायरी से थोड़े से ही अरसे में मजाज़ नौजवानों दिलों की धड़कन बन गए। उनके शे’र, हर एक की ज़बान पर आ गए। ऐसे ही उनके ना भुलाए जाने वाले कुछ मशहूर शे’र हैं-
जो हो सके, हमें पामाल करके आगे बढ़/
न हो सके, तो हमारा ज़वाब पैदा कर।
ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए
ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता।
अपनी तालीम पूरी करने के बाद, मजाज़ दिल्ली चले गए। जहां उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में एक-दो साल मुलाज़मत की। लेकिन उन्हें यह नौकरी रास नहीं आई, लिहाज़ा वे वापिस लौटकर लखनऊ आ गए। लखनऊ उस वक्त तरक़्क़ीपसंद अदीबों का अड्डा बना हुआ था। सज्जाद ज़हीर, डॉ. रशीद जहां, डॉ. अब्दुल अलीम, एहतिशाम हुसैन, हयातुल्लाह अंसारी, अहमद अली जैसे आला दर्जे के अदीब यहां एक साथ सक्रिय थे। मजाज़ भी इस ग्रुप में शामिल हो गए। लखनऊ में मजाज़ ने सिब्ते हसन और अली सरदार जाफरी के साथ मिलकर पहले ‘परचम’ और बाद में साल 1939 में ‘नया अदब’ रिसाला निकाला, जो बाद में तरक़्क़ीपसंद तहरीक का मुख्यपत्र बन गया। बहरहाल ‘आवारा’ वह नज़्म है, जिसने मजाज़ को एक नई पहचान दी। मजाज़ का दौर मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद का दौर था। बरतानवी हुकूमत की साम्राज्यवादी नीतियों और सामंतवादी निज़ाम से मुल्क में रहने वाला हर बाशिंदा परेशान था। ‘आवारा’ पूरी एक नस्ल की बेचैनी की नज़्म बन गई। नौजवानों को लगा कि कोई तो है, जिसने अपनी नज़्म में उनके ख़यालों की अक्काशी की है। ‘आवारा’ नज़्म पर यदि गौर करें, तो इस नज़्म की इमेजरी और काव्यात्मकता दोनों रूमानी है, लेकिन उसमें एहतेजाज़ और बग़ावत के सुर भी हैं। यही वजह है कि वे नौजवानों की पंसदीदा नज़्म बन गई। आज भी यह नज़्म नौजवानों को अपनी ओर, उसी तरह आकर्षित करती है।
शहर की रात और मैं नाशादो-नाकारा फिरूं
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूं
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूं
ए-ग़मे-दिल क्या करूं ऐ वहशते-दिल क्या करूं।
‘आवारा’ पर उस दौर की नई पीढ़ी ही अकेले फिदा नहीं थी, मजाज के साथी शायर भी इस नज़्म की तारीफ करने से अपने आप को नहीं रोक पाए। उनके जिगरी दोस्त अली सरदार जाफ़री ने लिखा है,‘‘यह नज़्म नौजवानों का ऐलाननामा थी और आवारा का किरदार उर्दू शायरी में बग़ावत और आज़ादी का पैकर बनकर उभर आया है।’’ इस नज़्म के अलावा मजाज़ की ‘शहरे-निगार’, ‘एतराफ’ वगैरह नज़्मों का भी कोई ज़वाब नहीं। खास तौर पर जब वे अपनी नज़्म ‘नौ-जवान से’ में नौजवानों को खि़ताब करते हुए कहते थे,
जलाल-ए-आतिश-ओ-बर्क़-ओ-सहाब पैदा कर
अजल भी काँप उठे वो शबाब पैदा कर
तू इंक़लाब की आमद का इंतिज़ार न कर
जो हो सके तो अभी इंक़लाब पैदा कर।
तो यह नज़्म, नौजवानों में एक जोश, नया जज़्बा पैदा करती थी। उनमें अपने मुल्क के लिए कुछ कर गुज़रने का जज़्बा जाग उठता था। वे अपने वतन पर मर मिटने को तैयार हो जाते थे। मजाज़ अपनी शायरी से कम अरसे में ही तालीमयाफ्ता नौजवानों, उनमें भी खास तौर पर लड़कियों के महबूब शायर बन गए। मजाज़ जिस दौर में लिख रहे थे, उस दौर में फै़ज़ अहमद फ़ै़ज़, अली सरदार जाफ़री, मख़्दूम, मुईन अहसन जज़्बी आदि भी अपनी शायरी से पूरे मुल्क में धूम मचाए हुए थे। लेकिन वे इन शायरों में सबसे ज्यादा मक़बूल और दिलपसंद थे। मजाज़ की गैर मामूली शोहरत के बारे में मशहूर अफ़सानानिगार इस्मत चुग़ताई ने लिखा है,‘‘जब उनकी क़िताब ‘आहंग’ प्रकाशित हुई, तो गर्ल्स कॉलेज की लड़कियां इसे अपने सरहाने तकियों में छिपाकर रखतीं और आपस में बैठकर पर्चियां निकालती थीं कि हम में से किसको मजाज़ अपनी दुल्हन बनाएगा।’’
मजाज़ की ज़िंदगानी में उनकी नज़्मों का सिर्फ एक मजमुआ ‘आहंग’ (साल 1938) छपा, जो बाद में ‘शबाताब’ और ‘साजे-नौ’ के नाम से भी शाया हुआ। ‘आहंग’ में मजाज़ की तकरीबन 60 नज़्में शामिल हैं और सभी नज़्में एक से बढ़कर एक। फै़ज़ अहमद फै़ज़, मजाज़ की ‘ख़्वाबे सहर’ और ‘नौजवान खातून से ख़िताब’ नज़्मों को सबसे मुकम्मल और सबसे कामयाब तरक़्क़ीपसंद नज़्मों में से एक मानते थे। फै़ज़ की इस बात से फिर भला कौन नाइत्तेफाक़ी जतला सकता है। ‘नौजवान खातून से ख़िताब’ नज़्म, है भी वाकई ऐसी-
हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर गर उठा लेती तो अच्छा था
ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था।
तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।
इस नज़्म में साफ दिखलाई देता है कि मजाज़ औरतों के हुकूक के हामी थे और मर्द-औरत की समानता के पैरोकार। मर्द के मुकाबले वे औरत को कमतर नहीं समझते थे। उनकी निगाह में मर्दों के ही बराबर औरत का मर्तबा था। मजाज़ ने अपनी नज़्मों में दकियानूसियत, सियासी गुलामी, शोषण, साम्राज्यवादी, सरमायादारी, और सामंतवादी निज़ाम, सियासी गुलामी के खिलाफ आवाज उठाई। उनकी नज़्मों में हमें आज़ादख़्याली, समानता और इंसानी हक की गूंज सुनाई देती है। ‘हमारा झंडा’, ‘इंक़लाब’, ‘सरमायेदारी’, ‘बोल अरी ओ धरती बोल’, ‘मज़दूरों का गीत’, ‘अंधेरी रात का मुसाफिर’, ‘नौजवान से’, ‘आहंगे-नौ’ वगैरह उनकी नज़्में इस बात की तस्दीक करती हैं।
मजाज़ ने दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी भी की और रेडियो के रिसाले ‘आवाज़’ के सब एडीटर रहे। हार्डिंग लायब्रेरी में असिस्टेंट लायब्रेरियन के तौर पर काम किया। कुछ दिन मुंबई भी रहे, जहां उस वक़्त उनके कई दोस्त काम कर रहे थे, लेकिन वे कहीं टिककर नहीं रहे। साल 1936 में मजाज़ ने अपनी नायाब नज़्म ‘नज़्र-ए-अलीगढ़’ लिखी। किसी भी शायर के लिए इससे ज्यादा फ़ख्र की क्या बात होगी कि जिस यूनिवर्सिटी से वह पढ़कर निकला, उसी यूनिवर्सिटी का यह तराना, कुलगीत बन जाए। आज भी यह नज़्म यूनिवर्सिटी में गायी जाती है।
सरशार-ए-निगाह-ए-नर्गिस हूँ पा-बस्ता-ए-गेसू-ए-सुम्बुल हूँ
ये मेरा चमन है मेरा चमन मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ।
मजाज़ में गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर था। वे तुर्की-व-तुर्की जवाब देते थे। एक मर्तबा जोश ने मजाज़ को समझाने की गरज़ से कहा,‘‘शराब पीने में सब्र बरतना चाहिए। मुझे देखो मैं अपने सामने घड़ी रखकर पीता हूं।’’ इस बात पर मजाज़ का जवाब था,‘‘अगर मेरा बस चले तो घड़ी नहीं, घड़ा रखकर पीयूं।’’ एक बार वे अल्लामा इक़बाल से मिलकर लौटे, तो दोस्तों ने मुलाकात के बारे में जब पूछा तो उनका कहना था,‘‘इक़बाल और मुझमें कोई खास फर्क नहीं। वह हां जी, हां जी करते रहे और मैं जी हां, जी हां !’’ वामपंथी विचारधारा में यकीन रखते थे, लेकिन सही बात को सही कहने का माद्दा भी उनमें था। इतने ज़िंदादिल, हंसमुख शायर और फिलॉसफर की ज़ाती ज़िंदगी कोई ज्यादा अच्छी नहीं रही। इश्क़ में लगातार नाकामियां और जे़हनी परेशानियों की वजह से मजाज़ पर कई बार नर्वस ब्रेक डाउन का हमला हुआ। जिसके चलते वे अस्पताल और पागलखाने तक पहुंचे। घर वालों और दोस्तों की देखभाल से वे हर बार ठीक भी हुए। लेकिन वे अपनी ज़िंदगी को ज्यादा लंबे समय तक महफ़ूज़ नहीं रख पाए। 5 दिसम्बर, 1955 को महज 44 साल की उम्र में मजाज़ इस बेदर्द दुनिया को हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। मजाज़ लख़नऊ में दफ़न हैं और कब्र पर उनका अपना ही एक शे’र लिखा है-
अब इसके बाद सुब्ह है और सुब्हे-नौ मजाज़
हम पर है ख़त्म शामे-ग़रीबाने-लख़नऊ।
(लेखक पत्रकार एंव स्तंभकार हैं, उनकी प्रगतिशील आंदोलन पर दो चर्चित किताब ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ और ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’ समेत अभी तलक छह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ज़ाहिद ख़ान मध्यप्रदेश के शिवपुरी के महल कॉलोनी में रहते हैं, उनसे 94254 89944 पर संपर्क किया जा सकता है)