अपने गांव लौटना चाहते हैं उच्च जाति द्वारा गांव से निकाले गए दलित परिवार, लेकिन मुश्किल हैं राहें

बंजर ज़मीन पर बांस से बने घर, मिट्टी से लदी घर की दीवारें, धूप की तपिश से बचने के लिये नारियल के पत्तों की छाया और बारिश से बचाने के लिए तिरपाल की चादरों की छतें ये ओडिशा के पुरी जिले के नाथपुर गांव का मंज़र है। अब यह मंज़र ही 40 दलित परिवारों का घर है। जिसे निर्मित करके “घर” बनाने की कोशिश करी जा रही है। दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले परिवार, कभी यहां से 20 किलोमीटर दूर अपने गांव में एक ठीक-ठाक जीवन व्यतीत करते थे। अब उनका आरोप है कि उच्च जाति के ग्रामीणों के आदेशों का पालन करने से इनकार करने के कारण उन्हें उनके घरों से निकाल दिया गया। उच्च जाति की प्रथा अनुसार, दलित समुदाय के सदस्यों से अपेक्षा की जाती थी कि वे उच्च जाति के परिवारों की बारात में पालकी लेकर जाएं और शादी में भोजन के बदले में दूल्हे या दुल्हन को गांव की परिक्रमा कराएं। 2013 में दलित समुदाय के युवकों ने पालकी ले जाने से मना कर दिया था। इसके बाद जो हुआ, उसने इन परिवारो की ज़िंदगी ही बदल दी, पालकी ले जाने से मना करने पर इन्हें इनके ही घरों से निकाल दिया।

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33 वर्षीय संग्राम भोई बताते हैं कि “जब हमने पालकी ले जाने से इनकार कर दिया, तो पर चिल्का में मछली पकड़ने के लिये भी प्रतिबंधित कर दिया गया, सदियों से, हमारी आजीविका का स्रोत मछली पकड़ना ही रहा है, अचानक हमें आजीविका के हमारे अधिकारों से वंचित कर दिया गया। जिससे हमारे गांव में हमारे समुदाय से पहली बार पलायन हुआ। स्कूल से बाहर हुए युवक काम की तलाश में चेन्नई, बेंगलुरु की ओर पलायन करने लगे। दूसरों ने आस-पास के गांवों में खेत मजदूर के रूप में काम करना शुरू कर दिया।”

एक के बाद के फरमान

संग्राम भोई बताते हैं कि फरवरी 2021 में, दलित समुदाय के एक 25 वर्षीय युवक के नशे की हालत में, एक फेरीवाले से मिठाई खरीदने के लिए गाँव पहुँचने के बाद समुदायों के बीच एक बड़ा विवाद शुरू हो गया और उच्च जाति के पुरुषों द्वारा उसके नशे की हालत में उसका सामना किया गया। इसके बाद, एक नया आदेश दिया गया और दलित समुदाय के सदस्यों को गांव में प्रवेश करने, जुलूस निकालने या अपने रिश्तेदारों को गांव में आमंत्रित करने से मना कर दिया गया। उनके लिए राशन की दुकानों को स्थायी रूप से बंद कर दिया गया, उन्हें पीने योग्य पानी के कुएं, नहाने और कपड़े धोने के लिए गांव के तालाब से पानी के इस्तेमाल से भी इनकार कर दिया गया, उन्हें नावों में फेरी लगाने की इजाजत नहीं थी।

संग्राम कहते हैं कि उनकी एकमात्र शर्त यह थी कि हम फिर से पालकी ले जाना शुरू कर दें लेकिन उसके बदले में मेहनताना भी न लें। संग्राम कहते हैं कि हमारी पीढ़ी और उसके बाद की पीढ़ी शिक्षित हो रही है। हम खुद को फिर से परिभाषित करने और आगे बढ़ने, अधिक जागरूक होने और अधिकारों के लिए खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं। हम फिर से ऐसी किसी प्रथा के लिए कैसे सहमत हो सकते हैं जो हमें वापस उस स्थिति में ले जाए जहां से हम निकलना चाहते हैं?

आरोपों से इनकार

उच्च जाति के सदस्य जनक जेना ने आरोपों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “आरोप सही नहीं हैं। उन्होंने हमारे अपने क्षेत्रों में प्रवेश करने पर आपत्ति जताई है, लेकिन हमें उम्मीद है कि वे चिल्का से मछली पकड़ेंगे और हमारी आजीविका छीन लेंगे। उनके पास कोई जमीन नहीं है, इसलिए वे खुद को हम पर थोप रहे हैं।”

नहीं हुई सुनवाई

गांव से निकाले गए समुदाय के लोगों का दावा है कि प्रशासन से बार-बार गुहार लगाने के बाद भी कोई समाधान नजर नहीं आ रहा है। जब इस बाबत पुरी के जिला कलेक्टर समर्थ वर्मा से संपर्क किया गया तो उन्होंने कहा कि मामले की जांच पहले ही शुरू कर दी गई है। “मुद्दा जाति-आधारित है और आजीविका-आधारित भी है। हमने ग्रामीणों से बात की है और मामले की जांच कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि जल्द ही मामला सुलझ जाएगा।”

संग्राम पूरे जिले के अन्य युवा दलित कार्यकर्ताओं के समर्थन से अब अपने गांव में रहने के अपने अधिकार को पुनः प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। संग्राम की तरह, हाल के दिनों में पुरी में दलित समुदाय के बहुत से युवा सदस्यों और अन्य पिछड़ी जातियों को देखा गया है, जो विभिन्न संगठनों से जुड़े हुए हैं या व्यक्तिगत रूप से काम कर रहे हैं, लेकिन साथ में एक टीम भी बना रहे हैं, ऐसे परिवारों की तलाश कर रहे हैं जो अपने गांवों से बाहर हैं उन्हें वापस लाने के लिए प्रयास कर रहे हैं।

लोगों में है डर

एक अन्य एक्टिविस्ट 35 वर्षीय दिबाकर बारिक बताते हैं कि उनके परिवार को दो दशक पहले उनके पिता द्वारा उच्च जातियों द्वारा स्थापित मानदंडों का पालन करने से इनकार करने के बाद उनके गांव से बाहर निकाल दिया गया था। दिबाकर कहते हैं कि लोगों को डर है कि अगर वे गाँव लौटेंगे, तो उन्हें फिर से हिंसा, धमकियों और सामाजिक बहिष्कार का शिकार होना पड़ेगा। हम उनके गांव में उनके लिए एक सुरक्षित जगह बनाना चाहते हैं, जो उनका हक है। बहुत सारे परिवार अपने गांव लौटने और गरिमापूर्ण जीवन जीने के इच्छुक हैं। यह तभी संभव होगा जब हम एक समुदाय के रूप में एक साथ खड़े हों।

दिबाकर बारिक कहते हैं कि “मैं ग्रेजुएट हूँ, मेरा भाई भी पढ़ रहा है, और मेरी बहन पत्रकारिता में ग्रेजुएट है। मेरे पिता जानते थे कि अगर वह चाहते हैं कि उनके बच्चे आगे बढ़ें और वे बनें जो वे चाहते हैं, तो उन्हें उच्च जाति के आदेशों का पालन करना छोड़ना होगा। क्योंकि हमें अपने गांव छोड़ना पड़ा था, जहां हम पैदा हुए थे, वहां से पलायन का दर्द है, मैं उस दर्द को समझता हूं, जब इन परिवारों को अपने ही गांवों से बाहर निकालकर गरिमापूर्ण जीवन जीने की कोशिश की जाती है।

दिबाकर जिन परिवारों को अपने गांव लौटने में मदद कर रहे हैं, उनमें महेश्वर बारिक का परिवार है, जिन्हें मार्च 2019 में उनके घर से निकाल दिया गया था, उनके घरों में तोड़फोड़ की गई थी। नाई (बारिक) और धोबी समुदाय (धोबा) के सदस्य, जो अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के अंतर्गत आते हैं, को सदियों पुरानी बार्टन प्रथा या जजमानी प्रथा का पालन करने से इनकार करने के लिए सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता था। इस प्रथा के अनुसार इन समुदायों से उच्च जाति की सेवा करने की अपेक्षा की जाती थी, इसके लिये कोई खास मेहनताना भी तय नहीं है, बस कार्य के बदले उन्हें उच्च जाति के लोगों की तरफ से प्रति वर्ष 12-15 किलोग्राम चावल दे दिये जाते हैं।

इतने लोग हुए बंधुआ मजदूरी से आज़ाद

साल 2010 में बंधुआ मजदूर प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 के तहत पूछताछ शुरू की गई और पूरी जांच के बाद पुरी के लगभग 2,200 लोगों को बंधुआ मजदूरी से आज़ाद कराकर उन्हें प्रमाण पत्र से सम्मानित किया गया। हालांकि 2,500 से अधिक अन्य अभी भी बंधुआ मजदूरी से अपनी रिहाई के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मनापुर गांव के रहने वाले महेश्वर बताते हैं कि 2013 में, हमें प्रशासन की ओर से जारी पत्र मिला, जिसके मुताबिक़ हम अब धान के बदले काम करने के लिए बाध्य नहीं थे। लेकिन इतने सालों में कोई राहत नहीं थी। हमें कहीं नहीं जाना था; इसलिए हम गाँव में रहे, लेकिन बार-बार हमें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। मार्च में, हमारे घर में तोड़फोड़ की गई क्योंकि हमने काम करने से इंकार कर दिया इसलिए हमने अपना गाँव छोड़ दिया। मनापुर गांव से निकाले गए तीन लोगों में से एक परिवार माहेश्वर का भी था। माहेश्वर बताते हैं कि उच्च जाति के परिवारों के पैर धोना, नाखून काटना, बचा हुआ सामान उठाना, किसी भी आयोजन से पहले और बाद में उस जगह की सफाई करना, अन्य छोटे-छोटे काम उन्हें ही करने होते थे। महेश्वर करीब 20 अन्य परिवारों के साथ पिछले शुक्रवार को कलेक्टर कार्यालय के बाहर धरना दे रहे थे.

गांव लौटना चाहते हैं

दिबाकर बताते हैं कि “100 से अधिक ऐसे परिवार हैं जो अपने-अपने गांवों में वापस लौटना चाहते हैं। हालांकि उनमें से कई डर के मारे अधिकारियों के पास भी नहीं जाते हैं। लेकिन हम उन्हें उनके अधिकारों के बारे में, उन कानूनों के बारे में बताने की कोशिश कर रहे हैं जो उनकी रक्षा कर सकते हैं, ताकि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ सकें। दिबाकर कहते हैं कि शिक्षा हमेशा उनके उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, अधिकांश दलित और ओबीसी परिवारों के लिए, दशकों से इस तरह के जबरन पलायन ने उन्हें भूमिहीन बना दिया है, इतना ही नहीं इन्हीं जबरन पलायन की वजह से उन्हें आवास योजनाओं या यहां तक ​​कि चक्रवात राहत सहायता के तहत किसी भी तरह की संभावना को समाप्त कर दिया है।

इस पूरे घटनाक्रम पर पुरी के कलेक्टर कहते हैं कि उनके संज्ञान में ऐसी कोई घटना नहीं लाई गई है। “अगर किसी को अपना गाँव छोड़ने के लिए कहा जा रहा है या रिहाई प्रमाण पत्र रखने के बाद भी उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है, तो वे हमसे संपर्क कर सकते हैं और आवश्यक कार्रवाई की जाएगी। अभी तक मेरे पास ऐसी कोई सूचना नहीं आई है।’

(इस रिपोर्ट को इंडियन एक्सप्रेस से अनुदित किया गया है)