गोदी मीडिया के अजेंडे पर राहुल, प्रियंका के खिलाफ बोलकर भी कांग्रेस के नेता अपने आपको कांग्रेस का वफादार दिखाना चाहते हैं। यह आंख के अंधे को भी दिख जाएगा कि सड़क से लेकर संसद तक और मीडिया के बीच जाकर भी कौन प्रधानमंत्री मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी के खिलाफ लड़ रहा है। उनकी एसपीजी सुरक्षा वापस ले ली गई। सुरक्षा कारणों से दिया प्रियंका का सरकारी आवास खाली करवा लिया गया। पूरे मीडिया को उनके पीछे लगा दिया गया। फिर भी नहीं डरे। जनता की आवाज उठाते रहे तो विपक्ष में से ही ममता बनर्जी से सवाल उठवा दिए। और यह खुद जी 23 के जयचंद तो हैं ही जो पिछले एक साल से राहुल की पीठ पर वार पर वार करते चले जा रहे हैं। मगर इन सबके बावजूद खुद को इस तरह पेश कर रहे हैं। जैसे इनके साथ बहुत बड़ा अन्याय हुआ हो। कांग्रेस के पास राज्यसभा नहीं है। मगर इनकी नाराजगी है कि इन्हें राज्यसभा क्यों नहीं दी गई। राज्यसभा मिल जाती तो विपक्ष के नेता भी बने रहते। केन्दीय मंत्री स्तर की सभी सुविधाएं मिलती रहतीं। खैर बाकी सभी सुविधाएं तो अभी भी हैं। मोदी जी ने जिस तेजी के साथ प्रियंका से आवास खाली करवाया था वैसा तो अभी राज्यसभा गए दस महीने हो जाने के बाद भी उनसे नहीं करवाया गया। बल्कि एक जम्मू और एक श्रीनगर में दिए जाने की भी व्यवस्था कर दी गई है। पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते पहले मिलते थे। मगर फारुख और महबूबा मुफ्ती से आवास खाली करवाने के लिए वहां पूर्व मुख्यमंत्रियों से खाली करवा लिए गए थे।
कांग्रेस की राजनीति का अगर बहीखाता देखा जाए तो इसमें जितना गुलाम नबी आजाद को मिला है उतना किसी नेता को नहीं। वे कोई जननेता नहीं थे। न आज हैं। वे भारतीय राजनीति के पहले मैनेजर थे। जिसके बाद भाजपा में प्रमोद महाजन और सपा में अमर सिंह हुए। जो मुफ्ती मोहम्मद सईद उन्हें सत्तर के दशक में इन्दिरा गांधी के पास लेकर गए थे उन्हीं के खिलाफ माहौल बना कर आजाद ने उन्हें कांग्रेस से बाहर जाने पर मजबूर किया था। मुफ्ती कांग्रेस के वे दिग्गज नेता थे जो शेख अब्दुल्ला की आंखों में आंख डालकर बात करते थे। कांग्रेस के सबसे लंबे समय तक प्रदेश अध्यक्ष रहने वाले मुफ्ती मुख्यमंत्री तो बहुत कम समय के लिए रह पाए जम्मू कश्मीर में आज भी सबसे लोकप्रिय और हालात को सुधारने वाले मुख्यमंत्री माने जाते हैं। 2002 में जब वे मुख्यमंत्री बने तो केन्द्र में वाजपेयी की सरकार थी। मगर कांग्रेस के सहयोग से मुख्यमंत्री बनने वाले मुफ्ती ने वाजपेयी की केन्द्र सरकार से भी उतने ही अच्छे संबंध रखे। वाजपेयी ने उनकी कश्मीर में अमन वापसी की कोशिशों का पूरा समर्थन किया। इसी तरह 2004 में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मुफ्ती का जख्मों को कुरेदो नहीं, उन्हें बढ़ाओ नहीं, उन पर मरहम रखो कार्यक्रम लगातार चलता रहा। तीन साल बाद 2005 में उन्होंने समझौते के मुताबिक कुर्सी छोड़ दी और तब आजाद पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने।
आज आजाद इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी की चाहे जितनी बातें कर लें मगर वे भी जानते हैं कि उन दोनों ने हमेशा उन्हें राज्य के बाहर से संसद में पहुंचाया। जम्मू कश्मीर से पहली बार वे 1996 में फारुख अब्दुल्ला के सहयोग से राज्यसभा पहुंचे थे। हमेशा मनोनयन के आधार पर आगे बढ़ते आजाद आज संगठन में चुनाव की बातें कर रहे हैं। मजेदार यह है कि इन दिनों जम्मू कश्मीर का दौरा कर रहे आजाद वहां के प्रदेश संगठन को तरजीह नहीं दे रहे हैं। अपने समर्थकों के साथ राज्य का दौरा करते हुए वे जनसभाओं में कांग्रेस की कमजोर पार्टी बता रहे हैं। पूंछ में उन्होंने कहा कि 2024 के चुनाव में कांग्रेस बड़ी उम्मीद कर रही है मगर उसकी 300 सीटें नहीं आ रहीं। चुनाव पहले यह हौसला तोड़ने वाले बात क्या कोई पार्टी मजबूत करने वाला आदमी करता है?
2005 में बिहार के चुनाव में लालू यादव दावा कर रहे थे कि उनकी पार्टी जीत रही है। मगर माहौल कुछ और कह रहा था। लेकिन लालू बोलते रहे। मतगणना के दिन जब उनसे पूछा तब भी वे दम से यही बोले। जब हार गए तो उन्होंने कहा कि मुझे मालूम था। तब पत्रकारों ने उनसे कहा कि आप तो जीत की बात कर रहे थे। तो वे बोले कि चुनाव लड़ते हुए ये नहीं बोलते तो इतनी सीटें भी नहीं आतीं। फिर कहा कि मगर मतगणना में जाने से पहले भी बोले। तो कहा कि क्या पार्टी के पोलिंग एजेन्टों का पहले से हिम्मत तोड़ देते? फिर क्या वे अंदर जाते? एक एक वोट के लिए लड़ते? लड़ाई में हार पहले से कभी नहीं मानी जाती। मगर यहां कांग्रेस में हालत यह है कि दुनिया भर की सीखें और उपदेश दे रहे नेता जनता के बीच कह रहे हैं कि 300 सीटें तो नहीं आतीं। ऐसा ही जी 23 के दूसरे नेता मनीष तिवारी ने 2014 के चुनाव शुरू होने से पहले अपने नहीं लड़ने की घोषणा करके माहौल में कांग्रेस के लिए संदेह का वातावरण बना दिया था।
लड़ाई में क्या होता है? फौज का मनोबल बढ़ाया जाता है। नेपिलयन ने कहा था कहां है आल्पस? और आल्पस के ऊंचे पहाड़ पर अपना घोड़ा चढ़ा दिया था। पंजाब में महाराज रणजीत सिंह ने चढ़ी हुई कटक में अपना घोड़ा उतार दिया था। अभी लालू का उदाहरण दिया। वाजपेयी एक साथ तीन तीन सीटों पर लोकसभा का चुनाव लड़ते थे। उस समय भाजपा जिसका नाम जनसंघ था दूसरे और तीसरे नंबर की भी पार्टी नहीं थी। 1985 में तो केवल दो ही सीटें आईं थीं। मगर क्या कभी किसी भाजपा नेता से निराशा की बात सुनी? 1977 में तो कांग्रेस पहली बार हारी थी। कांग्रेसियों के सिर पर तो जैसे आसमान ही टूट गिरा था। हर जगह निराशा। कांग्रेसी घर से बाहर निकलने को तैयार नहीं। मगर क्या इन्दिरा गांधी हार मान गईं? वे तो निकल पड़ीं। फिर से लड़ने।
भरी बरसात में भीगी हुई साड़ी पहने इन्दिरा दी हाथी पर बेलछी पहुंच गई। वहां भी नाला ऐसा ही चढ़ा था। जीप जा नहीं सकती थी। हाथी लाया गया। चढ़े हुए बरसाती नाले से निकलकर रात में गांव पहुंची। ये 1977 की बात है। हार के तत्काल बाद की। दलितों का नरसंहार हुआ था। इन्दिरा जी खुद को रोक नहीं सकीं। पहुंच गईं। और उसी दिन से बाजी पलट गई। उसी समय 1980 में इन्दिरा जी ने पहला चुनाव आजाद को महाराष्ट्र से लड़वाया और जितवाया था।
तो वह सब तो आजाद भूल गए और आज जब राहुल और प्रियंका उसी तरह जैसे इन्दिरा जी लड़ी थीं, लड़ रहे हैं तो उनके साथ खड़े होने के बदले उन पर सवाल उठा रहे हैं। बात नहीं मानने का आरोप लगा रहे हैं। क्या बात? कांग्रेस के ये नेता 2014 से कह रहे हैं कि मोदी जी से मत लड़ो। तमाम वरिष्ठ नेताओं ने उसी समय हथियार डाल दिए थे और मोदी जी की प्रशंसा करना शुरू कर दी थी। इसकी शुरूआत दिल्ली की 15 साल मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित और मीडिया महासचिव जनार्दन द्वीवेदी ने की थी। फिर धीरे धीरे कई और शामिल हो गए। और अब तो खुली बगावत का बिगुल बज गया है।
एक तरफ ममता दूसरी तरफ कांग्रेसी, तीसरी तरफ पूरी सरकार और सत्तारुढ़ पार्टी तो चौथी तरफ मीडिया! ऐसा सम्मान किस को मिला होगा। राहुल जो अभी किसी पद पर नहीं हैं उनके लिए ऐसा चक्रव्यूह! क्या बात है? राजनीति में यह विलक्षण घटना है। देखना है कितना राहुल को घेरा जाता है और कितने वे तप कर कुंदन होकर निकलते हैं!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)