संजय कुमार सिंह
उत्पाद शुल्क में दो बार की कटौती से केंद्र सरकार को 2.2 लाख करोड़ का घाटा हो रहा है। वित्त मंत्री ने कहा और हिन्दुस्तान टाइम्स ने छाप दिया। ये नहीं बताया कि जब बढ़ाया था को कितना मुनाफा हो रहा था। अखबारों ने इतनी प्रमुखता से ये भी नहीं बताया कि ट्रेन में वरिष्ठ नागरिकों की छूट खत्म करने से कितने की बचत हुई या किराया बढ़ाने से कितने की कमाई हुई या टिकट रद्द कराने के नियम बदल कर सरकार (रेलवे) यात्रा नहीं करने वालों से कितने पैसे कमा ले रही है।
असल में यह राशि छोटी है पर यह नुकसान बहुत बड़ा इसलिए लीड। बेशक, इस लिहाज से यह बड़ी खबर है और लीड बन सकती है लेकिन दूसरे अखबारों में लीड नहीं है – जाहिर है पत्रकारिता का नियम स्पष्ट नहीं हैं या उनका दुरुपयोग हो रहा है। भविष्य के पत्रकारों को यह सब कौन बताएगा। वे कैसे जानेंगे। राजा का बाजा बजाना अगर कला है तो इस कला का भी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि काम करने वाला काम करे, अपने काम को वैसे ही देखे, फूहड़ न लगे।
इन खबरों की प्रस्तुति देखकर मेरा मन हो रहा है पत्रकारिता पढ़ाने वाली किसी कोर्स में दाखिला लेने और यह जानने-सीखने का कि इस पत्रकारिता के बारे में क्या पढ़ाया बताया जा रहा है। या ऐसी खबरों को कैसा ट्रीटमेंट देना है इस बारे में कुछ बताया जा रहा है कि नहीं। आखिर भविष्य की पत्रकारिता की भी तो चिन्ता की जानी चाहिए। अगर मीडिया इसी तरह राजा का बाजा बजाता रहेगा और कांग्रेसी अगर गलती से सत्ता में आ गए तो अब भाजपा को ना कोई नरेन्द्र मोदी मिलेगा और ना देश में विपक्ष बचेगा। ना जनता फिर झांसे में आएगी। आप जानते ही हैं कि जनता पार्टी की खिचड़ी सरकार तीन साल भी नहीं टिक पाई थी। इमरजेंसी जैसा मुद्दा था तब भी। विषयांतर हो गया था।
टाइम्स ऑफ इंडिया में इस खबर का शीर्षक है, 2.2. लाख करोड़ का पूरा बोझ केंद्र सरकार उठाएगी। जाहिर है, पूरा लाभ भी वही उठा रही होगी। पर बात शीर्षक बनाने की है। असल में जीएसटी का प्रचार करते हुए एक देश एक टैक्स का नारा दिया गया था। उस हिसाब से पेट्रोल डीजल पर जीएसटी लग रहा होता तो राज्यों का भी हिस्सा होता और कटौती का नुकसान भी राज्यों को होता। यहां उत्पाद शुल्क कम किया गया है क्योंकि पेट्रोल पर जीएसटी नहीं है। अखबारों की खबरों से मैं यही समझ पाया हूं। और जीएसटी नहीं है क्योंकि उसमें केंद्र सरकार का फायदा है और मेरी याददाश्त सही है तो कानून बदल कर पैट्रोल पर ज्यादा टैक्स वसूला जा रहा है और एक समय वह 50 प्रतिशत से भी ज्यादा था। लेकिन खबर में इन बातों की कोई चर्चा नहीं है।
अब जब अखबार वित्त मंत्री के दावे को इतनी प्रमुखता से छाप रहे हैं तो संदर्भ के लिए पुरानी चर्चा होनी चाहिए थी ताकि पाठकों की आम जानकारी दुरुस्त हो जाती। मंत्री को तो नहीं ही बताना था पर अखबारों का काम यही है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस मुख्य खबर के साथ एक और खबर छापी है, करों में इस कटौती से (वैसे उत्पाद शुल्क है लेकिन यहां टैक्स यानी कर है) सरकार की प्रमुख योजनाओं को भी लाभ होगा। वैसे तो यह पहले पन्ने पर अलग से बताने वाली बात नहीं है पर प्रचार करना है, मंत्री ने कहा है तो बता दिया गया लेकिन मुद्दा यह भी तो है कि बढ़ाते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा गया था कि इससे सरकारी योजनाओं को भी नुकसान हो सकता है। अखबार में इसकी चर्चा भी हो सकती थी। और पहले ही होनी थी। पर मकसद प्रचार करना है या खबर देना – यह महत्वपूर्ण है।
द हिन्दू में यह खबर लीड है। शीर्षक टाइम्स ऑफ इंडिया जैसा ही है लेकिन यहां उपशीर्षक कुछ बताता है या जानने के लिए प्रेरित करता है। सीतारमण ने कहा कि पेट्रोल और डीजल पर बुनियादी उत्पाद शुल्क जो राज्यों से साझा किया जाता है वह अनछुआ है। इससे साफ है कि जो छुआ या कम किया गया है वह केंद्र सरकार की कमाई है। जरूरत से ज्यादा वसूली हो रही थी या जो वसूली की जा रही थी वह ज्यादा लगी तो उसे कम किया गया है। पर खबर ऐसे छप रही है जैसे जनता पर भारी अहसान किया गया हो और सरकार जनता का बहुत ख्याल रखती है। सरकार की यह छवि मीडिया ने ऐसी खबरों से वर्षों में बनाई है। प्रचारक नेता पहले मामले को ऐसे ही पेश करते हैं बाकी काम मीडिया और चैनल वाले चीख-चीख कर कर देते हैं।
द टेलीग्राफ में यह सरकारी बयान या प्रचार तो नहीं ही है एक खबर है जिसका शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होगा (अनुवाद मेरा), “कांग्रेस केंद्र से : पेट्रोल पर लोगों को मूर्ख बनाना छोड़िये।” कहने की जरूरत नहीं है कि यह खबर किसी और अखबार में पहले पन्ने पर नहीं है। इस खबर के पहले वाक्य का एक हिस्सा है, “…. ईंधन की कीमत में जो मामूली कमी बताई जा रही है उसे राहत के रूप में पेश करके लोगों को मूर्ख बनाना छोड़िए।” हो सकता है आप इससे सहमत ना हों पर खबर देने के धंधे में हैं तो दोनों देना चाहिए। द टेलीग्राफ ने कांग्रेस का पक्ष देते हुए भी यह तो बताया ही है कि सरकार क्या कह रही है पर दूसरे अखबारों में ऐसा नहीं है। कम से कम शीर्षक में तो बिल्कुल नहीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है)