नेहरू की सादगी, ग़ुस्सा और आशिक़ी…!
रेहान फ़ज़ल
नेहरू की मौत के तुरंत बाद चीन के प्रधानमंत्री चू एन लाई ने चीन की यात्रा पर आए श्रीलंकाई प्रतिनिधिमंडल से कहा था, “मैं खुश्चेव से मिला हूँ, मैं चांग काई शेक से मिला हूँ, अमरीकी जनरलों से भी मेरी मुलाक़ात रही है, लेकिन नेहरू से ज़्यादा अहंकारी शख़्स मैंने नहीं देखा।” बांडुंग सम्मेलन में जब श्रीलंका के प्रधानमंत्री सर जॉन कोटलेवाला ने इस ओर ध्यान दिलाया कि पोलैंड, हंगरी, बुलगारिया और रोमानिया जैसे देश उसी तरह सोवियत संघ के उपनिवेश हैं जैसे एशिया और अफ़्रीका के दूसरे उपनिवेश हैं तो नेहरू को बहुत बुरा लगा। वो उनके पास गए और आवाज़ ऊँची करके बोले, “सर जॉन आपने ऐसा क्यों किया? अपना भाषण देने से पहले आपने उसे मुझे क्यों नहीं दिखाया?” सर जॉन ने छूटते ही जवाब दिया, “मैं क्यों दिखाता अपना भाषण आपको? क्या आप अपना भाषण देने से पहले मुझे दिखाते हैं?” ग़ुस्से से लाल नेहरू इतना सुनना था कि नेहरू का चेहरा ग़ुस्से से लाल हो गया। इंदिरा गाँधी ने उनका हाथ पकड़ कर उनके कान में फुसफुसाया कि ‘आप शांत हो जाइए’। लेकिन दो पड़ोसी देशों के प्रधानमंत्री स्कूली बच्चों की तरह लड़ते रहे। वहाँ मौजूद चू एन लाई ने अपनी टूटी फूटी अंग्रेज़ी में सर जॉन को समझाना चाहा, ‘मी यॉर फ़्रेंड!’ सब लोगों ने स्तब्ध होकर देखा कि किस तरह महान लोग भी साधारण इंसानों की तरह व्यवहार कर सकते थे।
सुबह होने तक ये तूफ़ान निकल गया। सर जॉन ने बहुत गरिमापूर्ण ढंग से माफ़ी मांगते हुए कहा, “मेरा उद्देश्य इस सम्मेलन में व्यवधान पहुँचाने का कतई नहीं था।” बाद में सर जॉन कोटलेवाला ने अपनी किताब ‘एन एशियन प्राइम मिनिस्टर्स स्टोरी’ में लिखा, “मैं और नेहरू हमेशा बेहतरीन दोस्त रहे। मुझे विश्वास है कि नेहरू ने मेरी उस धृष्टता को भुला दिया होगा।” नेहरू के सचिव रहे एमओ मथाई अपनी किताब ‘रेमिनिसेंसेस ऑफ़ नेहरू एज’ में लिखते हैं कि नेहरू इतने सुसंस्कृत थे कि अहंकारी हो ही नहीं सकते थे। लेकिन ये सही है कि उनमें धीरज नहीं था और वो बेवकूफ़ों को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। वैसे भी चू एन लाई को नेहरू पर फ़ैसला सुनाने का कोई हक़ नहीं था, क्योंकि उन्होंने ख़ुद भारत पर चीन के हमले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
धैर्य का अभाव
नेहरू के ग़ुस्से पर पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने एक क़िस्सा सुनाया कि एक बार नेहरू उनसे इस बात पर बहुत नाराज़ हो गए कि उन्होंने उनके नेपाल नरेश को लिखे गए पत्र को विदेश मंत्रालय के सेक्रेट्री जनरल को न दिखा कर अपनी आलमारी में रख लिया था। उस ज़माने में नटवर सिंह सेक्रेट्री जनरल के सहायक हुआ करते थे। वो याद करते हैं, “शाम साढ़े छह बजे नेहरू का नेपाल नरेश महेंद्र को लिखा पत्र मेरे पास आया। मैंने सोचा कि सुबह इसे पढ़ूंगा। सुबह मैं सेक्रेट्री जनरल को छोड़ने हवाई अड्डे चला गया जो सरकारी यात्रा पर मंगोलिया जा रहे थे। वहाँ उनका विमान लेट हो गया।”
नटवर सिंह आगे कहते हैं, “वहीं एक शख़्स मेरे पास आ कर बोला कि आपको पंडित जी बुला रहे हैं। मैं तुरंत साउथ ब्लॉक पहुँचा। वहाँ नेहरू के निजी सचिव खन्ना ने मुझसे कहा कि प्रधानमंत्री के कमरे में मत घुसिएगा। वो इतने ग़ुस्से में हैं कि कोई चीज़ आपके ऊपर फेंक कर मार देंगे। हुआ ये कि अगले दिन जैसा कि उनकी आदत थी, नेहरू विदेश सचिव के कमरे में जा पहुंचे और पूछा कि नेपाल नरेश को जो पत्र मैंने लिखा है, क्या आपने देखा है? विदेश सचिव ने कहा कि नहीं क्योंकि वो पत्र तो मेरे पास आया ही नहीं।”
हमेशा फ़िट रहे नेहरू
नटवर सिंह आगे बताते हैं, “बाद में पता चला कि पत्र तो नटवर सिंह के पास है। विदेश सचिव ने नटवर को बचाने के उद्देश्य से कहा कि शायद नटवर को वो पत्र बहुत पसंद आया है। उन्होंने पढ़ने के लिए रख लिया होगा। ये सुनना था कि नेहरू का पारा सातवें आसमान को पहुंच गया। बोले मैंने वो ख़त नटवर सिंह को ख़ुश करने के लिए नहीं लिखा। फ़ौरन पुलिस बुलाइए। उनकी आलमारी तुड़वाइए और वो पत्र मेरे सामने पेश करिए। इस घटना के सात दिनों बाद तक मैं नेहरू के दफ़्तर के सामने से नहीं गुज़रा।”
नेहरू के सुरक्षा अधिकारी रहे केएम रुस्तमजी अपनी किताब ‘आई वाज़ नेहरूज़ शैडो’ में लिखते हैं, “जब मैं उनके स्टाफ़ में आया तो वो 63 साल के थे लेकिन 33 के लगते थे। लिफ़्ट का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं करते थे। और तो और एक बार में दो सीढ़ियाँ चढ़ा करते थे। एक बार डिब्रूगढ़ की यात्रा के दौरान मैं उनका सिगरेट केस लेने उनके कमरे में घुसा तो मैंने देखा कि उनका सहायक हरि उनके फटे मौज़ों की सिलाई कर रहा है। उन्हें चीज़ों को बरबाद करना पसंद नहीं था। एक बार सऊदी अरब की यात्रा के दौरान वो उस महल के हर कमरे में जा कर बत्तियाँ बुझाते रहे, जिसे ख़ासतौर से उनके लिए बनवाया गया था।”
उसी यात्रा के दौरान नेहरू को रसूल-अस-सलाम कह कर पुकारा गया था जिसका अरबी में अर्थ होता है शाँति का संदेश वाहक। लेकिन उर्दू में ये शब्द पैग़म्बर मोहम्मद के लिए इस्तेमाल होता है। नेहरू के लिए ये शब्द इस्तेमाल करने के लिए पाकिस्तान में शाह सऊद की काफ़ी आलोचना भी हुई थी।
दरियादिल नेहरू
तब जाने माने कवि रईस अमरोहवी ने एक मिसरा लिखा था जिसे कराची से छपने वाले अख़बार डॉन ने प्रकाशित भी किया था –
जप रहे हैं माला एक हिंदू की अरब,
ब्राहमनज़ादे में शाने दिलबरी ऐसी तो हो।
हिकमते पंडित जवाहरलाल नेहरू की कसम,
मर मिटे इस्लाम जिस पर काफ़िरी ऐसी तो हो।
नेहरू के पर्सनल असिस्टेंट के रूप में काम करने वाले डॉक्टर जनकराज जय ने बीबीसी से बात करते हुए एक दिलचस्प किस्सा सुनाया, “नेहरू के बाल काटने के लिए राष्ट्रपति भवन से एक नाई आया करता था। एक बार नेहरू ने उससे कहा हम विलायत जा रहे हैं। बोलो तुम्हारे लिए क्या लाएं? नाई ने शर्माते हुए कहा हज़ूर कभी-कभी आने में देर हो जाती है। अगर घड़ी ले आएं तो अच्छा होगा। जब नेहरू विलायत से लौटे तो वो नाई फिर उनका बाल काटने आया। नेहरू बोले तुम पूछोगे नहीं कि मैं तुम्हारे लिए घड़ी लाया हूँ या नहीं। जाओ सेशन (उनके निजी सहायक) से जा कर घड़ी ले लो।”
नेहरू और वो टैक्सी वाला
डॉक्टर जनकराज जय एक और क़िस्सा सुनाते हैं, ”एक बार जब जवाहरलाल दफ़्तर जा रहे थे तो साउथ एवेन्यू के पास उनकी कार पंक्चर हो गई। दूर से एक सरदार टैक्सी वाले ने देख लिया। वो अपनी टैक्सी ले कर पहुंचा और बोला मैरा सौभाग्य होगा अगर आप मेरी टैक्सी में बैठ जाएं। मैं आपको दफ़्तर ले कर चलूँगा। नेहरू बिना किसी की सुने उसकी टैक्सी में बैठ गए। दफ़्तर पहुँचकर वो अपनी जेब टटोलने लगे लेकिन उनकी जेब में पैसे तो होते नहीं थे। टैक्सी वाला बोला आप क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं। क्या मैं आपसे पैसे लूँगा? अब तो मैं पाँच दिनों तक किसी को इस सीट पर बैठाउंगा भी नहीं!”
पूर्व विदेश सचिव दिनशॉ गुंडेविया ने अपनी आत्मकथा ‘आउटसाइड आर्काइव्स’ में लिखा है कि एक बार स्विट्ज़रलैंड में मशहूर अभिनेता चार्ली चैपलिन ने नेहरू को अपने घर खाने पर आमंत्रित किया। खाने से पहले एक ट्रे में शैम्पेन की कई बोतलें लाई गईं। चैपलिन ने एक गिलास उठा कर नेहरू के हाथ में दे दिया। नेहरू बोले क्या आपको पता नहीं कि मैं पीता नहीं हूँ। चैपलिन ने कहा, “प्रधानमंत्री महोदय, आप कैसे मुझे मेरी शेंपेन पीने के सम्मान से वंचित कर सकते हैं?” नेहरू फिर भी झिझके। चार्ली झुके और उन्होंने शैम्पेन से भरा गिलास नेहरू के होठों से लगा दिया।
नेहरू ने गिलास से एक सिप लिया और पूरे वक़्त तक उस गिलास को अपने बगल में रखे बैठे रहे। रुस्तमजी भी लिखते हैं कि उन्होंने कभी नेहरू को शराब पीते नहीं देखा। हाँ वो सिगरेट ज़रूर पिया करते थे और वो भी स्टेट एक्सप्रेस 555 जो कि उस ज़माने का ख़ासा मशहूर ब्रैंड होता था।
नेहरू का इश्क
नेहरू को लॉर्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना माउंटबेटन से इश्क था। मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर ने बीबीसी को बताया कि जब वो ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त थे तब उनको पता चला कि एयर इंडिया की फ़्लाइट से नेहरू रोज़ एडविना को पत्र भेजा करते थे। एडविना उसका जवाब देती थीं और उच्चायोग का आदमी उन पत्रों को एयर इंडिया के विमान तक पहुंचाया करता था।
नैयर ने एक बार एडविना के नाती लार्ड रैमसे से पूछ ही लिया कि क्या उनकी नानी और नेहरू के बीच इश्क था? रैमसे का जवाब था, “उनके बीच आध्यात्मिक प्रेम था।” इसके बाद नैयर ने उन्हें नहीं कुरेदा। नेहरू के एडविना को लिखे पत्र तो छपे हैं लेकिन एडविना के नेहरू को लिखे पत्रों के बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं हैं।
कुलदीप नैयर ने एक बार इंदिरा गाँधी से उन पत्रों को देखने की अनुमति मांगी थी लेकिन उन्होंने उन पत्रों को दिखाने से साफ़ इनकार कर दिया था। एडविना ही नहीं सरोजिनी नायडू की पुत्री पद्मजा नायडू के लिए भी नेहरू के दिल में सॉफ़्ट कॉर्नर था। कैथरीन फ़्रैंक इंदिरा गाँधी की जीवनी में लिखती हैं कि विजयलक्ष्मी पंडित ने उन्हें बताया था कि नेहरू और पद्मजा का इश्क ‘सालों’ चला।
इंदिरा की ख़ातिर
नेहरू ने उनसे इसलिए शादी नहीं की क्योंकि वो अपनी बेटी इंदिरा का दिल नहीं दुखाना चाहते थे। इंदिरा, नेहरू के जीवनीकार एस गोपाल से इस बात पर नाराज़ भी हो गई थी क्योंकि उन्होंने नेहरू के ‘सेलेक्टेड वर्क्स’ में उनके पद्मजा के लिखे प्रेम पत्र प्रकाशित कर दिए थे। 1937 में नेहरू ने पद्मजा को लिखा था, “तुम 19 साल की हो (जबकि वो उस समय 37 साल की थीं)।।। और मैं 100 या उससे भी से ज़्यादा। क्या मुझे कभी पता चल पाएगा कि तुम मुझे कितना प्यार करती हो।” एक बार और मलाया से नेहरू ने पद्मजा को लिखा था, “मैं तुम्हारे बारे में जानने के लिए मरा जा रहा हूँ।। मैं तुम्हें देखने, तुम्हें अपनी बाहों में लेने और तुम्हारी आँखों में देखने के लिए तड़प रहा हूँ।”(सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ नेहरू, सर्वपल्ली गोपाल, पृष्ठ 694)
जानवरों से लगाव
नेहरू को पालतू जानवर बहुत पसंद थे। एक बार उनके कुत्ते सोना ने एडविना माउंटबेटन का उस समय हाथ काट लिया था जब वो उसे सहलाने की कोशिश कर रही थीं। नेहरू को दुःखी मन से उस कुत्ते को प्रधानमंत्री निवास से बाहर भेजना पड़ा था। ख्रुश्चेव ने एक बार नेहरू को एक घोड़ा भेंट किया था। सऊदी शाह ने भी नेहरू को दो शानदार घोड़ियाँ भेंट में दी थीं जिन्हें कुछ दिन रखने के बाद नेहरू ने सेना को दे दिया था। नेहरू के पास पिंजड़े में बाघ और तेंदुए के बच्चे भी रहा करते थे जो उन्हें मध्य प्रदेश के कुछ लोगों ने भेंट में दिए थे। छह महीने तक रखने के बाद नेहरू ने उन्हें दिल्ली चिड़ियाघर भिजवा दिया था।
मथाई ने अपनी किताब ‘माई डेज़ विद नेहरू’ में लिखा है, “एक बार नेहरू बीमार पड़ गए और पालतू पांडा भीमसा को खाना खिलाने के लिए उनके बाड़े में नहीं जा पाए। मैं भीमसा को घर के दरवाजे पर ले आया। वो सीढ़ियाँ चढ़ कर नेहरू के शयन कक्ष में पहुंच गया। मैंने नेहरू को बांस की पत्तियाँ दी जिसे उन्होंने अपने हाथों से भीमसा को खिलाया और बहुत ख़ुश हुए।” 1964 में 27 मई को पूरे भारत को पता था कि नेहरू मौत से जूझ रहे हैं। ‘ब्लिट्ज़’ के संपादक रूसी करंजिया ने अपने सबसे काबिल स्तंभकार ख़्वाजा अहमद अब्बास को बुलाया और कहा कि ‘नेहरू किसी भी मिनट मर सकते हैं। तुम्हें चार घंटे के अंदर उनकी ऑबिट लिखनी है’।
अब्बास ने अपने को एक कमरे में बंद किया। तभी आर्ट विभाग का एक शख़्स आया और बोला पहले हेड लाइन लिखिए। अब्बास ने लिखा ‘नेहरू डाइज़,’ फिर लिखा, ‘नेहरू डेड’, फिर लिखा ‘नेहरू नो मोर।’ फिर उन्होंने तीनों हेडलाइंस को काट दिया और नए सिरे से एक हेडलाइन दी। अगले दिन यही ब्लिट्ज़ की हेडलाइन थी… नेहरू लिव्स…!
(लेखक बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है)