क़मर इंतिख़ाब
आज एक ऐसी औरत के बारे में जानिए जो मुस्लिमो और ख़ासकर औरतों की तालीम के लिये एक मिसाल है। जिसके बेटे को तो बहुत से जानते है लेकिन कुलसुम सयानी किसी को याद नही? सिर्फ़ 17 साल की उम्र में जिसने मुल्क़ की आज़ादी के ख्वाब को अपनी आँखों में संजोया और सब कुछ छोड़ गाँधी जी के पाँव के पीछे अपने पाँव बढ़ा दिए। एक लड़की जिसके जज़्बे के आगे अंग्रेज़ों को तो झुकना था, लीगियों को भी झुक जाना पड़ा, उन्हें दोहरी लड़ाई लड़नी थी। एक अंग्रेज़ों को बाहर निकालने की दूसरी मुस्लिम लीग के पृथक्करण के विरुद्ध। गाँधी जी का इस तेज़ तर्रार महिला के सर पर हाथ था, तो इस महिला का हाथ समाज की नब्ज़ पर था। अपने दम पर गुजरात में रहने वाली वह अंग्रेज़ों को तो धूल चटा ही गईं साथ में आने वाले भारत की बुनयाद भी रख गईं।
कुलसुम पहली महिला थीं जिन्होंने गुजरात में घूम-घूम कर स्कूल खोले, शिक्षा का प्रचार किया। लड़कियों की पढ़ाई पर इतना ज़ोर दिया, कि कांग्रेस के कार्यालयों में क्लास चलने लगी। जब आज़ादी के वक़्त मुस्लिम लीग ने लोगों को भड़काने का काम किया तो इन्होंने शिक्षा का ऐसा आंदोलन खड़ा कर दिया की उसके सामने सब बौने हो गए। आज़ादी की इस महत्वपूर्ण साथी ने देश आज़ाद होने पर कुछ भी नही लिया,चाहती तो ऊँचे ओहदों पर होतीं मगर ख़ामोशी से तालीम के छोटे छोटे चिराग जलाती हुई चली गईं। हममे से किसी को उन्हें याद करने की भी फुर्सत नही। हमारे मुल्क़ के ढाँचे में ऐसे लाखों चेहरे दफ़न हो गए,जिन्हें शायद हमे याद रखना था।
1938 में बॉम्बे में कांग्रेस सरकार द्वारा स्थापित पहली राष्ट्रीय योजना समिति में भी रहीं। 1939 में गठित बॉम्बे सिटी सोशल एजुकेशन कमेटी ने सयानी को महिलाओं के खानपान के अपने 50 केंद्रों को संभालने के लिए कहा,उनकी देख रेख में धीरे-धीरे और केंद्र बढ़ते गए और यह गिनती 600 तक पहुंच गईं। उन्हें 1944 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की महासचिव भी नियुक्त किया गया और उन्होंने महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम किया। उनका सबसे बड़ा काम शिक्षा ही माना गया, शिक्षा का प्रचार प्रसार करने में ही उन्हें सबसे ज्यादा याद भी किया जाता है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ (मार्च 10, 1970) के नई दिल्ली संस्करण में कहा गया है, “1939 से जब उन्होंने (कुलसुम सयानी) ने बॉम्बे सिटी सोशल एजुकेशन कमेटी का कार्यभार संभाला, पाँच लाख वयस्क पाँच भाषाओं में से किसी एक के माध्यम से साक्षर हो गए हैं – उर्दू, हिंदी, गुजराती, मराठी और तेलुगु।
कुलसुम की दोपहर भर बच्चों को, वयस्कों को पढ़ाई से जोड़ने के लिए स्कूलों की ओर भागती हैं और वह रातों में साक्षरता की नई नई योजनाओं का सपना देखने में बिताती हैं।”
काँग्रेस के “जन जागरण”अभियान को इन्होंने ही सबसे सफल बनाया। जब सब तरफ मायूसी थी,पढ़ना लिखना मुश्किल था,स्कूल सबकी पहुँच में नही थे । तब “रहबर” नाम से एक प्रौढ़ शिक्षा का अभियान चलाया जो बेहद सफल हुआ। उस दौर में उनके इतना प्रौढ़ शिक्षा पर किसी ने काम नही किया । उन्होंने पढ़ाने में बहुत प्रयोग किये,समाज की नब्ज समझकर तरीकों में बदलाव किए,जो आज भी बदस्तूर जारी हैं, पर किसी को नही पता कि इसकी बुनियाद किसने रखी । दसयों किताबें लिखी मगर अब वोह ज़िक्र से ही बाहर हैं।
यह महिला हैं कुलसूम सयानी। आज उनकी पुण्यतिथि है,हो सके तो मुल्क़ की नीव रखने वाले हर हाथ को ढूंढकर महसूस कीजिये। उनके पति जान मोहम्मद सयानी जब प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आए,सन 1921 में,तो जो उनके विरोध में शासन और जनता में संघर्ष हुआ,उन घायलों के इलाज के लिए,पहला कॉंग्रेस हॉस्पिटल खोलने वालों में थे । आज़ादी के सिपाही हों या पुलिस कर्मी,हर घायल को अपनी कार में ही लिटाकर मरहम पट्टी करते।
वैसे लोग कुलसूम आपा को भले ही न जानते हों मगर उनके बेटे रेडियो की मशहूर आवाज़ अमीन सयानी को ज़्यादातर जानते ही होंगे। अमीन सयानी से पहले ताउम्र जूझने वाली और हज़ारों अमीन सयानी बनने की बुनियाद रखने वाली कुलसूम सयानी को याद कर लीजिये।