मायावती की सियासत का किस्सा हुआ तमाम? इतिहास बन गई बसपा!

मायावती बेमन से खेल रही हैं। ऐसा लगता है कि वे क्रीज पर जाना नहीं चाहतीं, मगर मजबूरी में जाना पड़ता है। वह मजबूरी क्या है? मजबूरी यह है कि अगर उन्होंने क्रीज पर जाने से मना कर दिया तो मैदान से बाहर हो जाएंगी। मतलब राजनीति से बाहर। और राजनीति से बाहर होना वे अफोर्ड नहीं कर सकतीं। राजनीति से बाहर का मतलब है अनुपयोगी हो जाना। और अगर यह दिख गया, प्रचारित हो गया कि मायावती खत्म हो गई हैं तो फिर उनके लिए वह सारी सुख संपत्ति, वैभव बचाना असंभव हो जाएगा जिसके लिए ही वे रोज नए समझौते कर रही है। मायावती अब फिर से अपनी पार्टी को स्थापित करने की राजनीति नहीं कर रही हैं। वे सिर्फ दो काम कर रही हैं। एक केन्द्र की मोदी और यूपी की योगी सरकार को खुश रखना और दूसरे अपने परिवार को राजनीति में उतना स्थापित कर देना कि वे उनके द्वारा अर्जित संपत्तियों और पैसे की रक्षा कर सकें।

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मायावती अब अपने मूल जनाधार दलितों पर भी आरोप लगाने लगीं। यह पहली बार है कि मायावती ने यह स्वीकार किया है कि दलितों ने उन्हें वोट नहीं दिया। और उनकी बात से अलग दलितों ने बीजेपी की बात स्वीकार की। हालांकि कहा यही जा रहा था कि विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाजपा की मदद की। मगर अब मायवती ने इसे एक नया एंगल दिया है, लेकिन वह उनके ही खिलाफ जा रहा है। मायवती ने कहा कि दलित संघ और भाजपा के झूठे प्रचार में आ गए कि भाजपा को जिताने पर मायावती को राष्ट्रपति बना दिया जाएगा। मायावती के इसी कहने पर हम लिख रहे हैं कि यह खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा बयान है। बैट्समेन के आउट आफ फार्म होने का ही नहीं उसके थक जाने, निराश हो जाने और एकाग्रता खत्म हो जाने का बयान है। जब बैट उठाना उसके लिए भारी हो जाता है। वह शाट मारता कहीं है, जाता कहीं है।

पहले मायवती ने अपनी इस शर्मनाक हार का ठीकरा मुसलमानों के सिर फोड़ने की कोशिश की थी। कहा था कि मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया। हालांकि वे एक कारण भी नहीं बता सकीं कि मुसलमानों को उन्हें वोट क्यों देना चाहिए। और अब वे कह रही हैं कि दलितों ने उन्हें वोट नहीं दिया। दलित संघ परिवार के बहकावे में आ गए। इसका सीधा मतलब उनका दलितों पर प्रभाव खत्म हो जाने की स्वीकारोक्ति है। भाजपा, संघ और दूसरी पार्टियों ने तो दलितों को प्रभावित करने की हमेशा कोशिश की। मगर पिछले तीन चार दशक से वे कभी कामयाब नहीं हो पाए। 1984 में बसपा के बनने के कुछ ही सालों बाद दलितों पर उसका ऐसा कब्जा हुआ कि इस 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले तक यह माना जाता था कि दलित मायावती को छोड़कर कहीं नहीं जा सकते। यह भी कहा जाता था कि इस चुनाव में भी अगर दलित भाजपा की तरफ जा रहा है तो वह मायावती की मर्जी से। मगर खुद मायावती ने ही अपनी यह छवि तोड़ दी। उनका यह कहना, उनके खुद पर से विश्वास खत्म होने की कहानी है कि संघ के बहकाने से दलित भाजपा की तरफ गए। मतलब उनका असर नहीं बचा। गए भाजपा की तरफ ही मगर उनके कहने से नहीं गए।


यह मायावती का सेल्फ डिक्लेयरेशन है। अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति के खत्म होने का। लेकिन यह सिर्फ मायावती के खत्म होने की स्वघोषणा नहीं है। उनके द्वारा एक पूरे दलित आंदोलन की, दलित राजनीतिक शक्ति के एक दौर की खत्म होने की घोषणा है। ऐसा नहीं है कि अब दलित आंदोलन, उनकी आशाएं, आकांक्षाएं खत्म हो जाएंगी मगर फिलहाल उसकी गति जरूर कम हो जाएगी।

यह शब्द थोड़ा सख्त है। मगर सच यही है कि मायावती ने खुद को बचाने, सुरक्षित जीवन की चाह में आजादी के बाद के सबसे बड़े दलित आंदोलन को बेच दिया। सोल्ड आउट। कांशीराम जी ने जिस विश्वास के साथ मायावती को बसपा की बागडोर सौंपी वह विश्वास तोड़ दिया। वे लड़ते लड़ते हारतीं, मिट जातीं तो दलित आंदोलन जीत जाता। दलितों में निराशा नहीं फैलती। मगर आज जिस तरह मायवती बसपा पर बैठकर उसको रोज कमजोर कर रही हैं वह ऐसा लगता है कि जैसे कोई दलित विरोधी व्यक्ति बैठकर पार्टी को खत्म कर रहा है। और केवल खत्म नहीं कर रहा उसकी शक्ति को कहीं और ट्रांसफर भी कर रहा है।

कहा जाता है कि यह काम मायावती के खासमखास सतीश चन्द्र मिश्रा कर रहे हैं। मगर बिना मायावती की मर्जी के यह संभव नहीं है। मायावती खुद ही इस बड़ी जिम्मेदारी के योग्य नहीं निकलीं। उन्होंने जिस तरह भाजपा के सामने समर्पण किया उसमें फिर उनके खड़े होने का कोई चांस नहीं बचा। दरअसल उंगली पकड़कर चलाए जाने वालों का यह हाल होता है। कांशीराम जी ने उन्हें स्थापित किया। पहली बार 1995 में मुख्यमंत्री बनाया। उसके बाद जब तक स्थितियां अनुकूल रहीं मायावती की राजनीति चमकती रही। मगर जैसे ही केन्द्र में भाजपा की सरकार आने के बाद उनकी नकेल कसी गई वे हिम्मत हार गईं।

कहा जाता है कि आय से अधिक संपत्ति के मामलों में वे बुरी तरह घिरी हुई हैं। उनके उपर कई जांचें लंबित हैं। इसलिए वे हिम्मत हार गईं। लेकिन जिस दलित समाज का वे नेतृत्व करती थीं उस पर तो सदियों से जाने कितनी झूठी, काल्पनिक जांच पड़ताल, दमन, घेरे डले रहे, मगर उसने हिम्मत नहीं हारी। जब मायावती राजनीति में आईं तो उसने अपने भय से बाहर निकलकर उनका खुल कर साथ दिया। दलित इससे पहले कांग्रेस के साथ हुआ करता था, मगर ऐसा मुखर समर्थक नहीं था। चुपचाप समर्थन करता था। वोट देता था। मगर जलसे, जुलूसों में इस तरह संगठित होकर नहीं आता था। लेकिन मायावती के लिए तो उसने हर चुनौती, खतरे का सामना किया। कई बार उसके अकेले पड़ जाने का भी खतरा हुआ। जब कहा जाता था कि दलित के पास वोट मांगने जाने से कोई फायदा नहीं वह तो मायावती को ही जाएगा। सभी गैर बसपा दल उससे दूर हो गए थे। मगर उसने किसी की परवाह नहीं की। नहीं डरा। विचलित नहीं हुआ। और मायावती का इकतरफा समर्थन करता रहा। उसी अपने सबसे अभिन्न सहयोगी के साथ मायावती ने विश्वासघात कर दिया। उन्हें उनके हाल पर छोड़कर वे सिर्फ सुरक्षित जीवन के लिए भाजपा के साथ चली गईं। और यही नहीं साथ में उनपर आरोप भी लगा दिया कि वे भटक गए। बहला लिए गए।

मायावती दलित राजनीति का एक काला अध्याय साबित हो रही हैं। वापस पुराने गौरवशाली दिनों की तरफ जाने की उनमें न अब कोई इच्छाशक्ति बची है और न ही कोई कोशिश दिखती है। राष्ट्रपति नहीं बनूंगी कहकर भी उन्होंने यही बताया है कि ऐसा कोई प्रस्ताव भी उनके पास नहीं आया है। एक दलित राष्ट्रपति कोविद के बाद दूसरा दलित राष्ट्रपति दोहराना संभव भी नहीं है। और 2024 के लोकसभा चुनाव देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ऐसा कोई रिस्क लेंगे भी नहीं। मायावती की कोई विश्वसनीयता नहीं है। आज भाजपा के साथ हैं। मगर जब वे अपने सबसे बड़े समर्थक वर्ग दलितों का साथ छोड़ सकती हैं तो फिर किसी का भी।

मायावती अब इतिहास बन गई हैं। एक ऐसा इतिहास जिसमें लिखा जाएगा कि कभी वे भारत की सबसे दबंग महिला नेताओं में उभरीं, देश के पहले दलित प्रधानमंत्री के रूप उनका नाम चर्चाओं में रहा, मगर अंत में वे एक डरी हुई, अपने समर्थकों के साथ विश्वासघात करने वाली पलायनवादी नेता साबित हुईं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)