तरक़्क़ी-पसंद तहरीक की रौशन मीनारों से त’आरुफ़ कराती एक किताब

आतिफ़ रब्बानी

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(प्रगतिशील आंदोलन ने उर्दू-हिन्दी के रचनाकारों की एक ऐसी कहकशां को जन्म दिया जिन्होंने साहित्य को ज़िंदगी की हक़ीक़तें बयान करने का ज़रिया बनाया। ज़ाहिद ख़ान की किताब ‘तरक़्क़ी-पसंद तहरीक की रहगुज़र’ इस कहकशां के रौशन सितारों के बारे में तफ़्सील से बताती है।)

तरक़्क़ी-पसंद तहरीक उर्दू-हिन्दी अदब की एक अहम तहरीक थी। कोई भी तहरीक या आंदोलन आसमान से नहीं टपकता, बल्कि इसके बरपा होने में उस समय के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हालात का दख़ल होता है। तरक़्क़ी-पसंद तहरीक एक आलमी सतह की तहरीक थी। यह वह ज़माना था जब हिंदुस्तानी आवाम गु़लामी का जुआ उतार फेंकने पर आमादा थी। महान रूसी क्रांति ने दुनिया-भर के निचले तबक़े की आँखें खोल दी थीं और समाजी इन्साफ़ और बराबरी का ख़्वाब हक़ीक़त में बदल रहा था। हिंदुस्तान में इस तहरीक यानी प्रगतिशील आंदोलन की बक़ायदा शुरुआत से बहुत पहले इसकी कुलबुलाहट शुरू हो गई थी। सज्जाद ज़हीर, डॉ. रशीद जहां, राज़िया सज्जाद ज़हीर, अहमद अली और महमूदुज़्ज़फ़र की कहानियों और एकांकी नाटकों पर आधारित पुस्तिका ‘अंगारे’ साल 1932 में प्रकाशित हो, धूम मचा चुकी थी। इसमें अंधविश्वासों, ढकोसलों, धर्म के नाम पर सम्मानित जीवन जीने वालों की वास्तविकताओं और औरतों की सामाजिक दुर्दशा के ज़िम्मेदारों, सामंती मूल्यों और साम्राज्यवादी अंग्रेज़ी हुकूमत पर कुठाराघात किया गया था। 1935 में लंदन में वहां के विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे छात्रों की मंडली—जिसमें सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनंद, ज्योति घोष, दीन मुहम्मद तासीर और प्रमोद सेन गुप्ता आदि प्रमुख थे, ने इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की दाग़बेल डाली थी। जिसकी परिणीति साल 1936 में लखनऊ के रिफ़ा-ए-आम क्लब में तरक़्क़ी-पसंद तहरीक की तंज़ीम ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ बनाकर हुई। लखनऊ की इस कांफ्रेंस की अध्यक्षता मुंशी प्रेमचंद ने की। उनके अध्यक्षीय भाषण की यह लाइन “हमें हुस्न का मेयार बदलना होगा” प्रगतिशील आंदोलन का शक्तिशाली स्लोगन बन गया। कांफ्रेंस में पारित घोषणापत्र में स्पष्ट किया गया कि प्रगतिशील आंदोलन साहित्य के ज़रिए सामाजिक बदलाव किस दिशा में और किस तरह चाहता है। आंदोलन का उद्देश्य वैज्ञानिक चेतना, सामाजिक और धार्मिक सहिष्णुता एवं समानता की हिमायत करना; तथा रूढ़िवाद, संकीर्णता, साम्प्रदायिकता, धर्म और रंग-भेद, शोषण की समर्थक साहित्य की मुख़ालिफ़त करना था। ऐलान किया गया कि “तरक़्क़ी-पसंद तहरीक का मक़सद अदब को आवाम के क़रीब लाना है। अदब को ज़िंदगी की अक्कासी और मुस्तकबिल की तामीर का मुअस्सर ज़रिया बनाना है।” और फिर तहरीक का यह कारवां बढ़ता ही गया। मजरूह सुल्तानपुरी के शब्दों में – “मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर/ लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।”

प्रसिद्ध युवा पत्रकार और लेखक ज़ाहिद ख़ान की किताब ‘तरक़्क़ी-पसंद तहरीक की रहगुज़र’ इसी कारवां के साथियों और सफ़ीरों के बारे में मुफ़स्सिल गुफ़्तगू करती है। पिछले तीन-चार दशकों में प्रगतिशील आंदोलन को लेकर उर्दू और हिंदी में लातादाद किताबें लिखी गई हैं। जिसमें साहित्यक सिद्धांत से लेकर इतिहास पर काफी कुछ लिखा गया है। लेकिन कोई ऐसी किताब जिसमें प्रगतिशील आंदोलन के लगभग सभी रौशन सितारों का ज़िक्र हो–अब तक अनुपलब्ध थी। लेखक ने इस कमी को पूरा करने का सफल प्रयास किया है। इस किताब में प्रगतिशील आंदोलन की 29 प्रमुख हस्तियों का वर्णन बहुत ही रोचक तरीके से किया गया है। लेखकों के बारे लिखे गए छोटे-छोटे आलेख किताब की पठनीयता बढ़ा देते हैं। गंभीर साहित्यानुरागी इस पुस्तक को तो सराहेंगे ही ‘रैंडम रीडर्स’ भी इसको काफी पसंद करेंगे। पहला अध्याय मौलाना हसरत मोहानी पर है। इस अध्याय का शीर्षक ही ‘वह शायर जिसने दिया ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा और मांगी मुकम्मल आज़ादी’ मौलाना के व्यक्तित्व और कृतित्व को बयान कर देता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि मौलाना ने 1921 की अहमदाबाद की ऐतिहासिक कांग्रेस में ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया और ‘कामिल आज़ादी’ (पूर्ण स्वराज्य) का प्रस्ताव रखा। पूर्ण स्वराज्य का उनका यह प्रस्ताव उस अधिवेशन में पास ना हो सका। लेकिन कांग्रेस के भीतर वे इस मुद्दे पर लगातार पेशबंदी करते और सहमति बनाते रहे और आख़िरकार 1929 में कांग्रेस को यह प्रस्ताव पारित करना पड़ा। (पृ. 19)

उर्दू अदब के तरक़्क़ी-पसंद साहित्यकारों में ऐसे बहुत से साहित्यकार हैं, जो अपने आप में बेजोड़ हैं। मसलन ग़ुलाम रब्बानी ‘ताबाँ’, अहमद नसीम क़ासमी और मुज्तबा हुसैन इत्यादि। लेकिन इनके बारे में देवनागरी में बहुत ज़्यादा सामग्री मौजूद नहीं है। लेखक, ताबाँ की शायरी के बारे में हिंदी भाषी लोगों को रूशनास कराते हुए कहते हैं,उनकी शायरी ख़ालिस वैचारिक शायरी है। जिसमें उनके सियासी, समाजी और इंक़लाबी सरोकार साफ़ दिखाई देते हैं। (पृ. 100) उनकी शायरी में सादा बयानी तो है ही, एक अना भी है जो एक ख़ुददार शायर की निशानदेहीहै। (पृ. 101) ताबाँ अव्वल दर्जें के मुतर्जिम यानी अनुवादक थे। उन्होंने अच्छे अनुवाद की तीन शर्तें बताई हैं। लेखक ने इनका ज़िक्र यूं किया है—पहला, जिस ज़बान का तर्जुमा कर रहे हैं उसकी पूरी नॉलेज होनी चाहिए। दूसरी बात, जिसमें तर्जुमा कर रहे हैं, उसमें और भी ज़्यादा कुदरत हासिल हो। तीसरी बात, किताब जिस विषय की है, उस विषय की पूरी वाक़फ़ियत होनी चाहिए। इन चीज़ों में एक चीज़ भी कम हो तो वह कामयाब तर्जुमा न होगा। (पृ. 102) ताबाँ का यह अनुवाद-सिद्धांत लगभग वही है, जिसका ज़िक्र सुविख्यात अनुवाद सिद्धांतकार यूजीन नीडा (1964) ने अपनी पुस्तक ‘टुवर्ड्स ए साइंस ऑफ़ ट्रांसलेटिंग’ में स्वभाविक समतुल्यता सिद्धांत के रूप में किया है।

इस किताब में एक और महान लेखक व मार्क्सवादी आलोचक ज़ोय अंसारी का भी ज़िक्र है। वे भी बेजोड़ अनुवादक थे। उन्होंने मास्को में रहकर कई रूसी पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद किया। उन्होंने उर्दू-रूसी और रूसी-उर्दू डिक्शनरी तैयार करने का मुश्किल काम किया। उन्होंने पुश्किन, चेखोव, तुर्गनेव, दोस्तोवस्की, मायाकोविस्की, मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन आदि नामवर तख़्लीककारों, दानीश्वरों और ढेर सारी रूसी किताबों के तर्जुमे किए। इन किताबों को पढ़कर लगता है, जैसे वे उर्दू में ही लिखी गई हों। (पृ. 97) बंगाल का 1943 का दुर्भिक्ष एक ऐसी त्रासदी थी, जिसमें लाखों लोग असमय काल का ग्रास बन गए। बहुत लोग महज इसलिए मौत का लुकमा बन गए, क्योंकि उनके पास क्रय शक्ति नहीं थी। जबकि, भंडारों में अन्न अटा पड़ा था। अमर्त्य सेन (1981)ने अपनी पुस्तक ‘पावर्टी एंड फ़ैमीन’ में लिखा है कि ग़लत सरकारी नीतियों और एक्सचेंज एनटाइटलमेंट्स यानी वितरण के कुप्रबंधन की वजह से बंगाल में भुखमरी हुई। इस मानवजनित सानेहा पर तरक़्क़ी-पसंदों ने खूब क़लम चलाई। वामिक़ जौनपुरी की नज़्म ‘भूका है बंगाल रे साथी’ बहुत मक़बूल हुई। इप्टा के बंगाल स्क्वायड और आगरा स्क्वायड ने इस नज़्म को गा-गा कर समाज में चेतना फैलाने और लामबंदी करने का सफल प्रयास किया। रांगेय राघव ने भी बंगाल के अकाल पर बहुत ही मार्के का रिपोर्ताज़ और गीत लिखे। किताब में वामिक़ जौनपुरी और रांगेय राघव पर भी एक-एक अध्याय है। इप्टा यानी भारतीय जन नाट्य संघ तरक़्क़ी-पसंद तहरीक का हमपल्ला रही है। इसके रूहे रवां रहे राजेंद्र रघुवंशी, बलराज साहनी, शौकत कैफ़ी, अण्णा भाऊ साठे समेत अमर शेख़ भी किताब में शामिल हैं।

रसूल हमजादोव ने कहा है कि “पुस्तक के बिना कोई समाज उस व्यक्ति के समान है जिसके पास दर्पण नहीं है, जिसके कारण वह अपना चेहरा नहीं देख सकता।” तरक़्क़ी-पसंद तहरीक ने समाज को आईना ही नहीं दिखाया बल्कि ‘राजनीति के आगे चलने वाली मशाल’ का काम भी किया है। ज़ाहिद ख़ान की यह किताब प्रगतिशील आंदोलन के दरख़्शाँ माज़ी और उसके रौशन मीनारों से हमारा त’आरुफ़ कराती है। किताब में प्रूफ़ की दो-चार त्रुटियां हैं। कहीं-कहीं नुक़्ते की स्वाभाविक ग़लतियां हैं। अगर उद्धृत वाक्यों के हवाले भी दिए जाते, तो यह किताब शोधछात्रों के लिए और भी अधिक कारगर हो जाती। कुल मिलाकर, किताब बहुत ही उपयोगी और संग्रहणीय है।

आतिफ़ रब्बानी
असिस्टेंट प्रोफेसर (अर्थशास्त्र)
भीमराव आंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर,
पिन–842001
मोब: 9470425851
ई-मेल: csrdian@gmail.com

पुस्तक: तरक़्क़ी-पसंद तहरीक की रहगुज़र, लेखक: ज़ाहिद ख़ान, संस्करण: 2021
प्रकाशक: लोकमित्र प्रकाशन शाहदरा दिल्ली, पृष्ठ: 224 (पेपरबैक),क़ीमत: ₹ 250