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जन्मदिन विशेष: जीते जी वैश्विक धरोहर बन गए थे उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान

बिस्मिल्लाह खान जीवन भर तीन चीज़ों को अपने सीने से चिपटाए रहे – गंगा, बनारस और उनके जनम का स्थान बिहार का डुमरांव क़स्बा. कोई कहता कि खां साब चलिए आपके लिए अमेरिका में म्यूजिक स्कूल खोल देते हैं, कोई कहता दिल्ली-बंबई में चल कर रहा जाय, कुछ माल बनाया जाय. वे बालसुलभ भोलेपन में अगले की आँखों में आँखें डाल कर कहते, “”अमाँ यार! गंगा से अलग रहने को तो न कहो!”

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शहनाई उनके होंठो से लगते ही आसपास की हवा को प्रेम और करुणा से सराबोर कर देती थी. वह उनकी आत्मा की पाक ज़ुबान थी जिसका होना आसपास के कंकड़-पत्थरों तक की स्मृतियों में दर्ज हो जाता होगा. उस दैवीय स्वर को गंगा किनारे की उस मस्जिद के किसी कंगूरे की नन्ही ढलान में अब भी ढूँढा जा सकता है जहाँ वे हर रोज गंगास्नान के बाद नमाज पढ़ते थे. उसकी लरज़ को बालाजी मंदिर के फर्श के उन चकले पत्थरों की खुरदरी छुअन में महसूस जा सकता है जिन पर बैठकर उन्होंने पचास से भी ज्यादा सालों तक रियाज़ किया.

दोनों इस कदर आपस में घुल गए थे कि ठीक-ठीक कह सकना मुश्किल होगा कि शहनाई बिस्मिलाह थी या बिस्मिलाह शहनाई थे.

और राग की तपस्या ऐसी कि जो उस जुगलबंदी की गिरफ्त में आया फिर जीवनभर मुक्त न हो सका. पत्रकार जावेद नकवी के हवाले से एक वाकया पता लगता है. सन 1978 में दिल्ली में एक ओपन एयर थियेटर में प्रोग्राम चल रहा था. अचानक लाइट चली गई. बेखबर खान साहब तन्मय होकर बजाते रहे. आयोजकों में से किसी एक ने कहीं से एक लालटेन लाकर उनके सामने धर दी. अगले एक घंटे तक वे उसी की झपझपाती रोशनी में शहनाई बजाते रहे. ऑडिएंस खामोशी से सुनती रही. बजाना ख़त्म हुआ, उस्ताद ने आखें खोलीं. बोले – “लाइट तो जला लिए होते भाई!”

बिस्मिलाह खान का चेहरा भारतीय क्लासिकल संगीत का सबसे मुलायम, सबसे निश्छल चेहरा था. चौड़ी मोहरी वाला सफ़ेद पाजामा, गोल गले वाला सफ़ेद कुरता जिसकी जगह गर्मियों में जेब वाली बंडी ले लिया करती, सफ़ेद नेहरू टोपी और मुंह में बीड़ी. बनारस की गलियों में रिक्शे पर यूं सफ़र करते थे गोया रोल्स रॉयस में घूम रहे हों. उनकी सादगी और साफगोई के बेशुमार किस्से सुनने-पढ़ने को मिलते हैं.

जीते जी वैश्विक धरोहर बन गए इस उस्ताद संगीतकार की मौत के कुछ साल बाद यूं हुआ कि उन्हें भारत सरकार द्वारा दिए गए पद्मश्री प्रमाणपत्र को दीमक खा गयी. इसके कुछ साल बाद उनके घर में चोरी हुई. एक कमरे की दराज़ से पांच शहनाइयां चोरी हुईं जिनमें से तीन चांदी की थीं. एक साल बाद पुलिस ने चांदी वाली शहनाइयों को बनारस के एक सुनार के पास से गली-अधगली हालत में हासिल किया. उस्ताद के एक पोते नज़रे हसन ने कुल सत्रह हज़ार रुपये में उन्हें बेच डाला था. स्पेशल टास्क फ़ोर्स द्वारा गिरफ्तार किये जाने के बाद अपना जुर्म कबूल करते हुए उसने कहा, “मुझे बाजार में उधार चुकाना था.”

आज उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का जन्मदिन पड़ता है. देश-समाज-परम्परा वगैरह बहुत बड़ी बातें हैं. आदमी बनने का थोड़ा-बहुत शऊर सीखना हो तो यूट्यूब वगैरह पर पांच-सात मिनट उनकी बजाई शहनाई सुन लीजिए.