जन्मदिन विशेषः ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार को क्यों कहा जाता है आफताब-ए-अदाकारी!

कनक तिवारी

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दिलीप कुमार धर्म, जाति, संस्कार, भूगोल या मौसम के तकाज़ों का फकत उत्पाद नहीं हैं। यही आदमी है जिसके पास निजी पुस्तकालय के अतिरिक्त किताबों का गोदाम घर भी है। अचानक फरमाइश कर वह किसी भी किताब को मंगवा लेता है। अपनी आराम कुर्सी में अधलेटा टेबिल लैम्प की रोशनी में इसे किताबें पढ़ते देखना अमूमन इसकी पत्नी सायरा बानो को ही ज्यादा नसीब है। फिल्मकथा में मौत से आंखमिचौनी करते उसे अपनी श्रेष्ठता का अहसास करा देना त्रासद चरित्रों के निरूपण का परिपाक होता है। दिलीप कुमार इस प्रयोजनीयता में भी निष्णात होते गए हैं।

नेहरू युग से प्रेरित फिल्मों में दिलीप कुमार केवल रोमांटिक नायक नहीं रहे। उन्होंने पिता, शिक्षक और प्रेरक भूमिकाओं को भी स्वीकार किया। वक्त आया जब राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और सलमान खान वगैरह ने भी राष्ट्रीय दमक की फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाओं का निर्वाह किया ।अमिताभ बच्चन, सुनील दत्त और राजेश खन्ना वगैरह ने कांग्रेस उम्मीदवारों के रूप में लोकसभा के चुनाव भी लड़े। दिलीप कुमार बहुत बाद में राज्यसभा में मनोनीत किए गए।

नेहरू के कार्यकाल में वे अकेले प्रमुख अभिनेता थे जो नेता के आह्वान के कारण कांग्रेस समर्थन की सड़क की राजनीति में कूदे। 1964 में बनी फिल्म ‘लीडर‘ की कहानी खुद दिलीप कुमार ने लिखी थी। उसमें नेहरू के समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष आदर्शों की साफ साफ अनुगूंज सुनाई पड़ती है। दिलीप कुमार की एक भूमिका फिल्म कलाकार के अतिरिक्त एक प्रबुद्ध मुसलमान नागरिक की भी रही है। जाहिरा तौर पर दिलीप कुमार मोहम्मद अली ज़िन्ना की दो राष्ट्र की थ्योरी से सहमत भी नहीं थे। उनके परिवार ने इसीलिए विभाजन के बाद भारत के साथ रहना चुना। नेहरू युग में मुसलमान भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में रहे। उनके साथ पाकिस्तान निर्माण की दुर्घटना के बावजूद तथाकथित सौतेला व्यवहार नहीं हुआ था।

मशहूर शायर अहमद फराज़ के साथ दिलीप कुमार

‘गंगा जमुना‘ फिल्म को तब के सूचना प्रसारण मंत्री बी.वी. केसकर के आदेश पर प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी गई। कथित तौर पर उसमें कुछ आपत्तिजनक दृष्य थे। सेंसर बोर्ड की समझ के अनुसार उससे डकैती को भी प्रोत्साहन मिलता। दिलीप कुमार ने पूरी तैयारी के साथ इन्दिरा गांधी की मदद से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से वक्त मांगा। पंद्रह मिनटों का दिया गया वक्त डेढ़ घंटे तक फैल गया। दिलीप कुमार ने अपने व्यवस्थित नोट तथा अस्तव्यस्त होने का भ्रम देती बेहद तार्किक विचारशीलता के जरिए नेहरू को आश्वस्त किया। ‘गंगा जमुना‘ जैसी की तैसी रिलीज़ हुई। कई अन्य फिल्मों को भी सेंसर बोर्ड के जेलखाने से छूट का फरमान मिला। दिलीप कुमार इन फिल्मों के जमानतदार नहीं अधिवक्ता बनकर गए थे। पता नहीं क्यों बाद में केसकर मंत्रालय से हटा दिए गए।

निभाए हिंदू किरदार

यह दिलचस्प विरोधाभास है कि मुस्लिम हितों के समय समय पर अवनत होने की स्थिति में दिलीप कुमार ने उनका भी प्रतिनिधित्व करने में गुरेज़ नहीं किया। साथ साथ यह देखना दिलचस्प है कि अपनी 57 फिल्मों में ‘मुगले आज़म‘ को छोड़कर दिलीप कुमार ने लगातार और सघन रूप से हिन्दू चरित्रों का ही अभिनय किया। यह भी जनता के बहुमत में उनकी स्वीकार्यता का एक बड़ा कारण बनता है। हिमान्शु राॅय द्वारा स्थापित बाम्बे टाॅकीज़ से दिलीप कुमार लगातार संबद्ध रहे। उस संस्था ने अपनी स्थापना से ही धर्मनिरपेक्ष और समाजोन्मुख मूल्यों और अवधारणाओं का रचनात्मक समर्थन किया।

आवाज़ का अर्थ केवल कंठ से निकलती हुई कुदरती ध्वनि नहीं है। मौसिकी में कुंदनलाल सहगल की आवाज़ में अद्भुत खनखनाहट सुनाई पड़ती है। वह बेजोड़ है। कई खलनायकों की आवाज़ में मर्दाना दम है। मसलन प्राण, अमरीश पुरी और रज़ा मुराद वगैरह को आवाज़ का कुदरती तोहफा मिला है। दिलीप कुमार ने लेकिन आवाज़ को अपने हुक्मनामे के ज़रिए सर्कस का रिंगमास्टर बनकर वर्जिश कराई है। दर्शक हतप्रभ हो जाने के लिए उनकी फिल्में देखने जाते रहते। आंखें सबसे अधिक तेज़ अंग हैं। वे प्रकाश की गति से देख सकती हैं। चेहरे के बदलते भावों के लिए बाकी अंग निर्भर होकर आंखों के हुक्मनामे की तामील करते हैं। कई समर्थ कलाकार बाद में बाॅलीवुड में अवतार बनकर छाए। उन्होंने भी त्रासदी नायकों के रूप में कथा के करुणा विमर्ष को खुर्दबीन से देखकर अपने अभिनय से विस्तारित किया। उसमें पीड़ा में टीसती सिम्फनी बहती है। सर्वख्यात हो चुके वे चरित्र त्रिआयामी होकर समाज में लेकिन दिलीप कुमार को आज भी ढूंढ़ते रहतें हैं। वे हर त्रासद फिल्म के निभाये किरदार को उत्तरोत्तर चरित्रों के मुकाबिल बहुत महीन अंतर के ज़रिए समझ जाते हैं। इन चरित्रों की तरल संवेदनाएं वैसे तो एक ही त्रासद कोख से उपजी हैं। इसलिए सहोदर हैं। लेकिन वे किसी एक का ही प्रतिरूप नहीं हैं।

संभावनाओं का नया आकाश

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जैसे महान लेखक ने अपने त्रासद नायक देवदास में कई गुणों, अवगुणों को तराशा था। उनसे भी ज़्यादा कुछ और संकेत उन्हें जमींदारसुत देवदास की अभिनय बानगी के कारण ज़रूर दिलीप कुमार और बिमल राय के कारण मिल गए होते। यह फंतासी भले हो, लेकिन कला का वह कितना सार्थक क्षण होता! वैसे भी ‘देवदास‘ उपन्यास की मूल कथा इतनी विस्तृत नहीं है कि केवल उस पर निर्भर रहकर ही नाट्य रूपांतरण हो सके। चमत्कार यही हुआ कि जितनी संभावनाओं का नया आकाश फिल्म में बुन दिया गया, उसमें कहीं भी रचनात्मकता के लिहाज़ से प्रदूषण या अतिरेक नहीं था। ओहदे, परिस्थिति और ज़रूरत के मुताबिक पहने कपड़ों तक को अभिनय कराने के लिए इस कलाकार द्वारा प्रवृत्त किया जाता रहा।

पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ दिलीप कुमार

वर्षों की मेहनत और लगन के कारण शाहरुख को बादशाह खान होने का लोकप्रिय मर्तबा मिला। अभिनय  शिखर पर पहुंचे अमिताभ बच्चन को शहंशाह  का विषेषण मिला।यदि कला की सीढ़ियां चढ़ना हो, तो वहां एक जहांपनाह रहता है। उसका नाम है दिलीप कुमार।

युसुफ खान मनुष्य का नाम है। यूसुफ खान का दिलीप कुमार होना मनुष्य की देह में आत्मा का छिप जाना है। वह हर उस मनुष्य की देह में पैठ जाने को तत्पर है जो जीवन को निजी जागीर नहीं समझते। मेरा यह तर्कमहल रेत की बुनियाद पर नहीं है। ‘अभिनेता होना दिलीप कुमार होना नहीं है लेकिन दिलीप कुमार होना अभिनेता होना है। किसी को मालूम था क्या कि बॉलीवुड में कभी कोई दिलीप कुमार अभिनय का बहुब्रीहि समास बनकर आएगा?

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)