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जन्मदिन विशेष: अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ा देने वाले टीपू सुल्तान, जिन्होंने आख़िरी सांस तक हथियार नहीं डाले…

रेहान फज़ल

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मैसूर के शेर नाम से मशहूर टीपू सुल्तान 20 नवंबर 1750 को कर्नाटक के देवनहल्ली में पैदा हुए थे। मशहूर इतिहासकार कर्नल मार्क विल्क्स लिखते हैं कि ‘टीपू सुल्तान अपने पिता हैदर अली से क़द में छोटे थे। उनकी त्वचा का रंग काला था। उनकी आँखें बड़ी बड़ी थीं। वो साधारण और बिना वज़न की पोशाक पहनते थे और अपने हाली- मवालियों से भी ऐसा करने की उम्मीद रखते थे। उनको अक्सर घोड़े पर सवार देखा जाता था। वो घुड़सवारी को एक बहुत बड़ी कला मानते थे और उसमें उन्हें महारत भी हासिल थी। उन्हें पालकी पर चलना सख़्त नापसंद था।’

टीपू सुल्तान की शख़्सियत की एक झलक ब्रिटिश लाइब्रेरी में रखी एक किताब ‘एन अकाउंट ऑफ़ टीपू सुल्तान्स कोर्ट’ में भी मिलती है जिसे उनके मुँशी मोहम्मद क़ासिम ने उनकी मौत के बाद एक अंग्रेज़ इतिहासकार को दिया था, ‘टीपू मझोले क़द के थे। उनका माथा चौड़ा था। वो सिलेटी आँखों। ऊँची नाक और पतली कमर के मालिक थे। उनकी मूछें छोटी थीं और दाढ़ी पूरी तरह से कटी हुई थी।’ विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूज़ियम लंदन में उनका एक चित्र रखा हुआ है जिसमें वो हरी पगड़ी पहने हुए हैं जिसमें एक रूबी और मोतियों का सरपेंच लगा हुआ है। उन्होंने हरे रंग का जामा पहन रखा है जिसमें शेर की धारियाँ दिखाता कमरबंद लगा हुआ है। उनकी बाँह में एक बेल्ट है जिसमें लाल म्यान के अंदर एक तलवार लटक रही है।

सेरिंगापटम पर 45000 अंग्रेज़ सैनिकों का हमला

14 फ़रवरी 1799 को जनरल जॉर्ज हैरिस के नेतृत्व में 21000 सैनिकों ने वैल्लोर से मैसूर की तरफ़ कूच किया। 20 मार्च को अंबर के पास कर्नल वेलेज़्ली के नेतृत्व में 16000 सैनिकों का दल इस सेना में आ मिला था। इसमें कन्नौर के पास जनरले स्टुअर्ट की कमान में 6420 सैनिकों का जत्था भी शामिल हो गया था। इन सबने मिलकर टीपू सुल्तान के सेरिंगापटम पर चढ़ाई कर दी थी।

मशहूर इतिहासकार जेम्स मिल अपनी किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया में’ लिखते हैं, ‘ये वही टीपू सुल्तान थे जिनके आधे साम्राज्य पर छह साल पहले अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था। उनके पास जो ज़मीन बची थी उससे उन्हें सालाना एक करोड़ रुपए से थोड़ा अधिक राजस्व मिलता था जबकि उस समय भारत में अंग्रेज़ों का कुल राजस्व 90 लाख पाउंड स्टर्लिंग यानि नौ करोड़ रुपए था। धीरे धीरे उन्होंने सेरिंगापटम के किले पर घेरा डाला और 3 मई 1799 को तोपों से गोलाबारी कर उसकी प्राचीर में एक छेद कर दिया।’

टीपू के सैनिकों ने उनके साथ छल किया

एक और इतिहासकार एस आर लशिंग्टन अपनी किताब ‘लाइफ़ ऑफ़ हैरिस’ में लिखते हैं, ‘हाँलाकि छेद इतना बड़ा नहीं था लेकिन तब भी जॉर्ज हैरिस ने उसके अंदर अपने सैनिक भेजने का फ़ैसला किया। उसल में उनके पास कोई विकल्प नहीं था। उनकी रसद ख़त्म हो चुकी थी और उनकी सेना करीब करीब भुखमरी के कगार पर थी। बाद में हैरिस ने कैप्टेन माल्कम से खुद स्वीकार किया कि मेरे तंबू पर तैनात अंग्रेज़ संतरी खाने की कमी और थकान से इतना कमज़ोर हो चुका था कि अगर आप उसे ज़रा से धक्का दें तो वो नीचे गिर जाए।’

तीन मई की रात करीब 5000 सैनिक जिसमें करीब 3000 अंग्रेज़ थे खाइयों में छिप गए ताकि टीपू के सैनिकों को उनकी गतिविधि के बारे में पता न चल सके। जैसे ही हमले का समय करीब आया टीपू सुल्तान से दग़ा करने वाले मीर सादिक ने टीपू के सैनिकों को तनख़्वाह देने के बहाने पीछे बुला लिया। एक और इतिहासकार मीर हुसैन अली ख़ाँ किरमानी अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ टीपू सुल्तान’ में कर्नल मार्क विल्क्स के हवाले से लिखते हैं, ‘टीपू के एक कमांडर नदीम ने वेतन का मुद्दा उठा दिया था, इसलिए प्राचीर के छेद के पास तैनात टीपू के सैनिक उस समय पीछे चले गए थे जब अंग्रेज़ों ने हमला बोला था।

सात मिनट में यूनियन जैक फहराया

इस बीच टीपू के एक बहुत वफ़ादार कमाँडर सईद ग़फ़्फ़ार अंग्रेंज़ों की तोप के गोले से मार दिए गए। किरमानी लिखते हैं टजैसे ही ग़फ़्फ़ार की मौत हुई किले से ग़द्दार सैनिकों ने अंग्रेज़ों की तरफ़ सफ़ेद रुमाल हिलाने शुरू कर दिए। ये पहले से तय था कि जब ऐसा किया जाएगा तो अंग्रेज़ सैनिक किले पर हमला बोल देंगे। जैसे ही ये सिग्नल मिला अंग्रेज़ सैनिकों ने नदी के किनारे की तरफ़ बढ़ना शुरू कर दिया जो वहाँ से सिर्फ़ 100 गज़ दूर था।

नदी भी करीब 280 गज़ चौड़ी थी जिसमें कहीं टख़ने तक पानी था तो कहीं कमर तक। मेजर एलेक्ज़ांडर एलन अपनी किताब ‘एन अकाउंट ऑफ़ द कैमपेन इन मैसूर’ में लिखते हैं, ‘हाँलाकि किले से अंग्रेज़ों के बढ़ते हुए सैनिकों को आसानी से तोपों का निशाना बनाया जा सकता था, लेकिन तब भी खाइयों से निकल कर कुछ सैनिकों ने मात्र सात मिनटों के अंदर किले की प्राचीर के तोप से हुए छेद पर ब्रिटिश झंडा फैरा दिया।

टीपू सुल्तान ख़ुद लड़ाई में कूदे

छेद पर कब्ज़ा करने के बाद ब्रिटिश सैनिक दो हिस्सों में बँट गए। बाईं तरफ़ बढ़ने वाले कॉलम को टीपू के सैनिकों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। टीपू के सैनिकों के साथ आमने सामने की लड़ाई में कॉलम के लीडर कर्नल डनलप की कलाई पर तलवार के वार से बड़ा घाव हो गया। इसके बाद टीपू के सैनिकों ने कॉलम के सैनिकों का आगे बढ़ना रोक दिया। ऐसा इस वजह से हुआ क्योंकि टीपू सुल्तान अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए खुद लड़ाई में कूद पड़े।

डनलप की जगह लेफ़्टिनेंट फ़रक्यूहार ने ली लेकिन वो भी तुंरत मार दिए गए। 4 मई की सुबह टीपू ने अपने घोड़े पर सवार हो कर किले की प्राचीर में हुए छेद का निरीक्षण किया और उसकी मरम्मत के निर्देश दिए। इसके बाद वो राजमहल में स्नान करने चले गए। किरमानी लिखते हैं कि ‘सुबह ही उनके ज्योतषियों ने उन्हें आगाह कर दिया था कि वो दिन उनके लिए शुभ नहीं है, इसलिए उन्हें शाम तक अपने सैनिकों के पास ही रहना चाहिए।

स्नान के बाद टीपू ने अपने महल के बाहर इकट्ठा हो गए ग़रीबों को कुछ पैसे बाँटे। चेनापट्ना के मुख्य पुजारी को उन्होंने एक हाथी, तिल का एक बोरा और 200 रुपए दान दिए। दूसरे ब्राह्मणों को टीपू ने एक काला बैल, एक काली बकरी, काले कपड़ो से बनी एक पोशाक, 90 रुपए और तेल से भरा लोहे का एक बर्तन दान में दिया। इससे पहले उन्होंने लोहे के बर्तन में रखे तेल में अपनी परछाई देखी। उनके ज्योतषियों ने उन्हें बताया था कि ऐसा करने से उन पर आने वाली विपत्ति जाती रहेगी।’

फिर उन्होंने राजमहल लौट कर रात का खाना खाया उन्होंने अपना खाना शुरू ही किया था कि उन्हें अपने करीबी कमाँडर सईद ग़फ़्फ़ार की मौत की ख़बर मिली। ग़फ़्फ़ार किले के पश्चिमी छोर की सुरक्षा देख रहे थे। लेफ़्टिनेट कर्नल एलेक्ज़ेडर बीटसन अपनी किताब ‘अ वियु ऑफ़ द ओरिजिन एंड कंडक्ट ऑफ़ द वार विद टीपू सुल्तान’ मे लिखते हैं, ‘टीपू ये समाचार सुनते ही भोजन के बीच से ही उठ गए। उन्होंने हाथ धोए और घोड़े पर सवार होकर उस जगह चल पड़े जहाँ किले की प्राचीर पर छेद हुआ था। लेकिन उनके पहुंचने से पहले ही अंग्रेज़ों ने वहाँ अपना झंडा फहरा दिया था और अब वो किले के दूसरे के इलाकों में बढ़ रहे थे।

टीपू को गोली लगी और घोड़ा भी मारा गया

बीटसन आगे लिखते हैं, ‘इस लड़ाई में टीपू ने अधिक्तर लड़ाई समान्य सैनिक की तरह पैदल ही लड़ी। लेकिन जब उनके सैनिकों का मनोबल गिर गया तब वो घोड़े पर सवार हो कर उनकी हिम्मत बढ़ाने की कोशिश करने लगे।; मार्क विल्क्स लिखते हैं अगर टीपू चाहते तो वो लड़ाई के मैदान से भाग सकते थे। उस समय किले के कमाँडर मीर नदीम किले के गेट की छत पर खड़े हुए थे लेकिन उन्होंने अपने सुल्तान की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया।’

टीपू तब तक घायल हो चुके थे। जब टीपू किले के अंदरूनी गेट की तरफ़ बढ़े तो उनके बाँए सीने से एक गोली निकल गई। उनका घोड़ा भी मारा गया। उनके साथियों ने उनको पालकी पर बैठा कर युद्ध क्षेत्र से बाहर ले जाने की कोशिश की लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि तब तक वहाँ कई लाशें बिछ चुकी थीं। मेजर एलेक्ज़ाँडर ऐलन लिखते हैं कि ‘उस समय उनके बॉडीगार्ड राजा खाँ ने उन्हें सलाह दी कि वो अंग्रेज़ों को अपना परिचय दे दें। लेकिन टीपू ने ये सलाह नामंज़ूर कर दी। उन्होंने अंग्रेज़ों के हाथों बंदी बनने के बताए मौत का रास्ता चुना।’

टीपू सुल्तान के अंतिम समय का वर्णन करते हुए बीटसन लिखते हैं, तभी कुछ अंग्रेज़ सैनिक किले के अंदरूनी गेट में घुसे। उनमें से एक ने टीपू की तलवार की बेल्ट छीनने की कोशिश की। तब तक टीपू का काफ़ी ख़ून बह जाने की वजह से करीब करीब बेहोश हो गए थे। तब भी उन्होंने अपनी तलवार से उस सैनिक पर वार किया। फिर उन्होंने उसी तलवार से दूसरे अंग्रेज़ के सिर पर वार किया। वो वहीँ धराशाई हो गया। लेकिन तभी एक अज्ञात अंग्रेज़ सैनिक ने टीपू पर वार किया। उसका उद्देश्य था टीपू की रत्नजड़ित तलवार को छीनना। उस समय उसको पता नहीं था कि उसने किस पर तलवार चलाई है।’

मरने के बाज भी शरीर की गर्माहट थी बरकरार

अंग्रेज़ो को पता नहीं था कि टीपू सुल्तान की मौत हो गई है, वो उनको ढ़ूढने उनके राजमहल गए। वहाँ उन्हें पता चला कि वो वहाँ नहीं हैं। टीपू का एक सिपहसालार उन्हें उस जगह ले गया जहाँ टीपू गिरे थे। वहाँ हर तरफ लाशें और घायल पड़े हुए थे। मशाल की रोशनी में टीपू सुल्तान की पाल्की दिखाई दी। उसके नीचे टीपू के बॉडीगार्ड राजा ख़ाँ घायल पड़े थे। उन्होंने उस तरफ़ इशारा किया जहाँ टीपू गिरे थे।

बाद में मेजर एलेक्ज़ाँडर एलन ने लिखा, ‘जब टीपू के मृत शरीर को हमारे सामने लाया गया, उनकी आँखें खुली हुई थीं। उनका शरीर इतना गर्म था कि एक क्षण के लिए मुझे और कर्नल वेलेज़ली को लगा कि कहीँ वो ज़िदा तो नहीं हैं। लेकिन जब हमने उनकी नाड़ी और दिल को छुआ तो हमारी सभी आशंकाएं दूर हो गईं। उनके शरीर पर चार घाव थे, तीन शरीर पर और एक माथे पर। एक गोली उनके दाहिने कान में घुस कर उनके बाँए गाल में धँस गई थी। उन्होंने बेहतरीन सफ़ेद लिनेन का जामा पहन रखा था, जिसकी कमर के आसपास सिल्क के कपड़े से सिलाई की गई थीं। उनके सिर पर साफ़ा नहीं था और लगता था कि लड़ाई की आपाधापी में वो नीचे गिर गया था। उनके जिस्म पर कोई आभूषण नहीं था सिवाए एक बाज़ूबंद के। ये बाज़ूबंद वास्तव में एक चाँदी की तावीज़ थी जिसके अंदर अरबी और फ़ारसी भाषा में कुछ लिखा हुआ था। जनरल बेयर्ड ने टीपू के पार्थिव शरीर को उन्हीं की पालकी में रखने का आदेश दिया और दरबार को सूचना भिजवाई गई की टीपू सुल्तान अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनका पार्थिव शरीर पूरी रात उनके दरबार में रखा गया।

पार्थिव शरीर को हैदर अली की क़ब्र की बग़ल में दफ़नाया गया

अगले दिन शाम को राजमहल से टीपू सुल्तान की शव यात्रा शुरू हुई। उनके जनाज़े को उनके निजी सहायकों ने उठा रखा था। उसके साथ अंग्रेज़ों की चार कंपनियाँ चल रही थीं। ‘नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ स्कॉटलैंड’ में रखे दस्तावेज़ ‘जर्नल ऑफ़ द वार विद टीपू’ में लिखा है, ‘उनके जनाज़े के ठीक पीछे शहज़ादा अब्दुल ख़लीक चल रहे थे। उसके बाद थे दरबार के मुख्य अधिकारी। जिन सड़कों से जनाज़ा गुज़रा उसके दोनों तरफ़ लोग खड़े हुए थे। वो लोग ज़मीन पर लेट कर जनाज़े के लिए अपना सम्मान प्रकट कर रहे थे और ज़ोर ज़ोर से रो रहे थे। उनके पार्थिव शरीर को लाल बाग़ में हैदर अली की क़ब्र के बगल में दफ़नाया गया। उसके बाद उन लोगों में 5000 रुपए बाँटे गए जो टीपू सुल्तान के जनाज़े में शामिल हुए थे। बीटसन ने भी लिखा कि ‘रात होते होते माहौल और ग़मज़दा हो गया जब बादलों की गड़गड़ाहट के साथ ज़बरदस्त आँधी चली। उस आँधी में दो अंग्रेज़ अफ़सर मारे गए और कई सैनिक घायल हो गए।’

टीपू की तलवार मिली वेलेज़्ली को

टीपू के मरने के बाद अंग्रेज़ सैनिकों ने सेरंगपटम में ज़बरदस्त लूट मचाई। लेकिन फिर भी टीपू का सिंहासन, हाथी पर बैठने का चाँदी का हौदा, सोने और चाँदी से बनी प्लेटों, जवाहरातों से जड़े ताले और तलवारें, मँहगी कालीने, सिल्क के बेहतरीन कपड़े और रत्नों से भरे करीब 20 बक्से आम सैनिकों के हाथ नहीं लगे। टीपू की बेहतरीन लाइब्रेरी को भी कोई नुक्सान नहीं पहुंचा जिसमें इतिहास, विज्ञान और हदीस से संबंधित अरबी, फ़ारसी, उर्दू और हिंदी भाषाओं में 2000 से अधिक किताबें थीं।

अंग्रेज़ सेना की तरफ़ से एक हीरे का स्टार और टीपू की एक तलवार वेलेज़ली को भेंट की गई। मेजर एलेक्ज़ाडर एलन ने अपनी किताब ‘एन अकाउंट ऑफ़ द केमपेन इन मैसूर’ में लिखा ‘हैरिस ने टीपू की एक और तलवार बेयर्ड को भेंट में दी और सुल्तान के सिंहासन में जड़े बाघ के सिर को विंडसर कासिल के ख़ज़ाने में भेज दिया गया। टीपू सुल्तान और मोरारी राव की एक एक तलवारें लार्ड कार्नवालिस के पास यादगार के तौर पर भेजी गईं।’ तब तक अंग्रेज़ों के सामने टीपू से बड़ा प्रतिद्वंदी सामने नहीं आया था। उनके बाद अंग्रेज़ों के युद्ध कौशल को चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा। एक अंग्रेज़ पत्रकार पीटर ऑबेर ने अपनी किताब ‘राइज़ एंड प्रोग्रेस ऑफ़ ब्रिटिश पावर इन इंडिया’ में लिखा, ‘टीपू की हार के बाद पूर्व का पूरा साम्राज्य हमारे पैरों पर आ गिरा।’

सभार बीबीसी हिंदी