जन्मदिन विशेष: उर्दू अदब में तरक़्क़ीपसंद तहरीक की हामी क़ुर्रतुल ऐन हैदर, जिन्हें माना गया फ़िक्शन का सबसे अहम सुतून

जाहिद ख़ान

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क़ुर्रतुल ऐन हैदर आज़ादी के बाद भारतीय फ़िक्शन का सबसे अहम सुतून मानी जाती हैं। जिनकी तख़्लीकात ने उर्दू अदब को एक नई राह दिखलाई। उसे ऊंचाईयों पर पहुंचाया। अदब को और जदीद बनाया। उर्दू अदब में मंटो, चंदर, बेदी, इस्मत के बाद जो लेखन सामने आया, उसमें क़ुर्रतुल ऐन हैदर का नाम अव्वल नंबर पर है। या यूं कहें, उनके बाद का दौर क़ुर्रतुल ऐन हैदर का ज़माना है। उन्होंने एक के बाद एक वो नायाब किताबें अपने चाहने वालों को दी, जो आज भी पसंद की जाती हैं। उनका कोई जवाब नहीं। उर्दू के आला नक़्क़ाद कमर रईस के अल्फ़ाजों में ‘‘क़ुर्रतुल ऐन हैदर का कद बिला शक अपने समकालीनों में सबसे बुलंद है। तहज़ीब, सियासत, फ़र्द और मुआशरा, इंसान की सदा की तन्हाई, बेबसी और ऐसे ही अनगिनत सवालों पर उन्होंने अपने तौर पर सोच-विचार किया है।’’ क़ुर्रतुल ऐन हैदर की शुरुआती किताबों में रूमानियत और एक ख़ास किस्म की जज़्बातियत नज़र आती है, लेकिन बाद की किताबों में बंटवारे और अपने देश से निर्वासन का दर्द दिखाई देता है। इन सब मरहलों से वे गुज़री थीं, लिहाजा उनकी तमाम तख़्लीकात में एक प्रमाणिकता है।

20 जनवरी, 1927 को अलीगढ़ में पैदा हुईं क़ुर्रतुल ऐन हैदर यानी ऐनी आपा का पूरा नाम मुसन्निफ़ा क़ुर्रतुल ऐन हैदर था। उनके वालिद सज्जाद हैदर यलदरम, तो उर्दू के नामवर मुसन्निफ़ थे ही, अम्मी ‘नजर’ बिन्ते-बाकिर भी उर्दू की बड़ी अदीब थीं। उनकी अम्मी का लेखन में यह रुतबा था कि उन्हें उर्दू की ‘जेन ऑस्टिन’ कहा जाता था। ज़ाहिर है कि ऐसे अदबी माहौल में कुर्रतुल ऐन हैदर का झुकाव लेखन की ओर होना ही था। उनका बचपन अहमदाबाद, अलीगढ़, लखनऊ और बिजनौर में गुज़रा। कुर्रतुल ऐन हैदर ने एमए तक की पढ़ाई लखनऊ में, फिर आगे की एक बड़ी डिग्री लन्दन के हीदरलेस आर्ट्स स्कूल से ली। वालिद के इंतकाल और मुल्क के बंटवारे के बाद, वह पाकिस्तान चली गयीं। लेकिन वहां उनका क़याम मुख़्तसर ही रहा। थोड़ा सा अरसा गुज़रा होगा कि वह लंदन चली गयीं। बीबीसी लंदन के लिए उन्होंने फ्रीलांस राइटिंग, जर्नलिज्म की। लंदन में वह तक़रीबन एक दशक तक रहीं। साल 1950 से 1960 के दरमियान में वह यहीं रहीं। पाकिस्तान और लंदन में रहकर भी कुर्रतुल ऐन हैदर अपने मुल्क को नहीं भुला पाईं। न तो पाकिस्तान का और न ही लंदन का माहौल उन्हें रास आया। आखि़रकार वापिस भारत लौट आईं। लौटने के बाद वह अंग्रेजी सहाफ़त के मैदान में ही रहीं। ‘द टेलीग्राफ’ में रिपोर्टिंग की। उन्होंने बम्बई में ‘इम्प्रिंट’ के मैनेजिंग एडिटर का ओहदा संभाला। उसके बाद तक़रीबन सात साल तक उनका ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया’ के एडिटिंग महकमे से वास्ता रहा।

क़ुर्रतुल ऐन हैदर जब महज़ छह साल की थीं, जब उन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी, नाम था-‘बी चुहिया’। शुरुआत में बच्चों के लिए कुछ कहानियाँ लिखीं। सतरह-अठारह साल की उम्र तक आते-आते साल 1945 में उनके अफ़सानों का पहला मज़मुआ ‘शीशे का घर’ शाया हो गया था। उसके एक साल बाद ही क़ुर्रतुल ऐन हैदर ने उर्दू अदब की दुनिया में एक उपन्यासकार के तौर पर अपनी आमद दर्ज़ कराई। ‘मेरे भी सनम-ख़ाने’ उनका पहला उपन्यास था। फ़िर तो यह सिलसिला चल निकला। साल 1947 में प्रकाशित उनके कहानी-संग्रह ‘सितारों से आगे’ का उर्दू में एक अलग ही मुक़ाम है। नक़्कादों का यह मानना है कि इस मज़मुए में शामिल कहानियां ने उर्दू अदब को नये तेवर दिये। गोया कि इस संग्रह से उर्दू में नई कहानी का आग़ाज़ होता है। क़ुर्रतुल ऐन हैदर के अफ़सानों में औरत की आजादी और उसका पूरा वजूद नुमायां तौर पर नज़र आता है। शिल्प और भाषा के लिहाज से ‘मलफूज़ाते हाजी गुलबाबा बेकताशी’, ‘कारमन’, ‘कलंदर’, जिलाबान’, ‘हाउसिंग सोसायटी’, ‘हसब-नसब’ वगैरह उनके अहमतरीन अफ़साने हैं। उन्होंने अपने अफ़सानों में शिल्प और भाषा के स्तर पर कई नये प्रयोग किये। वे किसी ख़ास शैली में नहीं बंधी।

तक़्सीमे वतन और जलावतनी ये वो हादसे हैं, जिनका असर कु़र्रतुल ऐन हैदर की तहरीरों में हमेशा रहा। उनके कई अफ़सानों में इन हादसात का असर दिखाई देता है। उपन्यास ‘गर्दिशे-रंगे-चमन’, में उनके नॉवेल के अहम किरदार ने इस एहसास से पूरी जिं़दगी गुज़ार दी कि बंटवारे में उसका सभी कुछ सरहद के उस पार चला गया और वह हिंदुस्तान में तन्हा रह गया। इस अकेलेपन के एहसास को कुर्रतुल ऐन हैदर ने इस ख़ू़बसूरती से बयां किया है कि 1947 के बंटवारे का पूरा मंज़र पाठकों की आंखों के सामने आ जाता है। अपने उपन्यास ‘आखि़रे-शब के हमसफ़र’, में वे आज़ादी की जंग में अपना योगदान देने वाले बौद्धिक इंकलाबियों की दास्तान को बुनती हैं। वहीं ‘चांदनी बेगम’ में वे औरतों की आज़ादी, अपने हक़ के लिए जद्दोजहद करने वाली महिला किरदारों की अक्कासी करती हैं। ‘चाय के बाग’ और ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ में उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान में सत्ता के शोषणकारी निज़ाम के खि़लाफ़ आवाज़ बुलंद की है।

कु़र्रतुल ऐन हैदर की तमामतर अफ़सानों और नॉवेलों में समूचे भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास और संस्कृति दिखाई देती है। देश की समन्वयवादी संस्कृति, साम्प्रदायिक सौहार्द, एकता, सद्भावना और भाईचारे को उन्होंने हमेशा अपनी रचनाओं में रेखांकित किया। इनमें भी ‘आग का दरिया’ उनका सबसे मक़बूल नॉवेल है। साल 1959 में प्रकाशित ‘आग का दरिया’ को जो शोहरत मिली, वह किसी दूसरे उर्दू उपन्यास को नसीब नहीं हुई। यहां तक कि इसे आज़ादी के बाद लिखा जाने वाला सबसे बड़ा उपन्यास माना गया। ज़ाहिर है कि किसी भी अदीब के लिए इससे बड़ा और मर्तबा क्या हो सकता है ? कमोबेश सभी बड़े नक़्क़ादों ने इस उपन्यास की तारीफ़ की। मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली ने इस उपन्यास की अज़्मत को बयां करते हुए कहा, ‘‘मोहम्मद अली जिन्ना ने हिन्दुस्तान के साढ़े चार हज़ार सालों की तारीख़ (इतिहास) में से मुसलमानों के 1200 सालों की तारीख़ को अलग करके पाकिस्तान बनाया था। क़ुर्रतुल ऐन हैदर ने नॉवल ‘आग़ का दरिया’ लिख कर, उन अलग किए गए 1200 सालों को हिन्दुस्तान में जोड़कर हिन्दुस्तान को फिर से एक कर दिया।’’ उपन्यास के लिए इससे बड़ी तारीफ़ और तमगा क्या हो सकता है। उपन्यास में कुर्रतुल ऐन हैदर ने ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से लेकर 1947 तक के भारतीय समाज की सांस्कृतिक और दार्शनिक बुनियादों को समकालीन परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित किया है। बौद्धकाल से लेकर मुल्क की आज़ादी के बाद तक की समन्वयवादी विचारधारा इस उपन्यास में बखू़बी आई है। ‘आग का दरिया’ की मकबूलियत का ही सबब है कि इस उपन्यास का दुनिया की कई ज़बानों में तर्जुमा हुआ। और हर जगह इसका खुले दिल से खै़र-मक़दम किया गया।

क़ुर्रतुल ऐन हैदर की दूसरी किताबों में ‘सफ़ीन-ए-ग़मे दिल’, ‘आखि़रे-शब के हमसफ़र’, ‘कारे जहाँ दराज़ है’, ‘तीन उपन्यास’, ‘चाय का बाग’, ‘सीताहरन’ और ‘चांदनी बेगम’ जैसे उपन्यास शामिल हैं, तो ‘सितारों से आगे’, ‘शीशे के घर’, ‘पतझड़ की आवाज’, ‘रौशनी की रफ़्तार’ और ‘यह दाग-दाग उजाला’ उनके अफ़सानवी मजमूए हैं। क़ुर्रतुल ऐन हैदर ने कई मुल्कों की यात्राएं की और इन यात्राओं के संस्मरण अपने रिपोर्ताज में दर्ज किए। ईरान यात्रा पर ‘कोहे-दमावंद’, सोवियत संघ-‘गुलगश्ते जहां’, जापान और दक्षिण-पूर्व एशिया-‘सितम्बर का चांद’, अमरीका-‘जहान-ए-दीगर’ उनके अहम रिपोर्ताज हैं।

क़ुर्रतुल ऐन हैदर की किताबों में ‘कारे जहाँ दराज़ है’ एक ख़ास तरह की किताब है। संस्मरणात्मक और आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया, यह उपन्यास फ़ैक्ट और फ़िक्शन का शानदार मेल है। ऐसी दूसरी किताब उर्दू में नहीं लिखी गयी। इस उपन्यास में वे जहां अपने ख़ानदान और पुरखों का क़िस्सा बयां करती हैं, वहीं उस किस्से के साथ वह दौर भी बड़ी प्रमाणिकता के साथ आया है। यह वाक़ई एक दिलचस्प नॉवेल है। कुर्रतुल ऐन हैदर बहुत अच्छी तर्जुमा निगार भी थीं। उन्होंने हेनरी जेम्स के उपन्यास ‘पोर्ट्रेट ऑफ़ ए लेडी’ का तर्जुमा ‘हमीं चराग़, हमी परवाने’ और ‘मर्डर इन द कैथेड्रल’ का अनुवाद ‘कलीसा में क़त्ल’ के नाम से किया। ‘आदमी का मुक़द्दर’, ‘आल्पस के गीत’, ‘तलाश’ उनकी दूसरी अनूदित कृतियां हैं। कथा लेखन के अलावा उनकी ललित कलाओं, ख़ासकर म्यूजिक और मुसव्विरी में भी गहरी दिलचस्पी थी। उपन्यास ‘गर्दिशे रंगे चमन’ में उनके रेखांकन प्रकाशित हुए हैं।

क़ुर्रतुल ऐन हैदर, तरक़्क़ीपसंद तहरीक से हालांकि उस तरह से बावस्ता नहीं रहीं, जिस तरह से इस्मत चुगताई और रज़िया सज्जाद ज़हीर जुड़ी थीं। लेकिन अपने इंटरव्यू और तहरीरों में उन्होंने कई बार यह बात कुबूली है कि वे तरक़्क़ीपसंद तहरीक और तरक़्क़ीपसंद अफ़साना निगार कृश्न चंदर से काफ़ी मुतास्सिर हुई हैं। अलग-अलग जगह उन्होंने कहा या लिखा है, ‘‘मैं उर्दू अदब में तरक़्क़ीपसंद तहरीक की हामी हूं, ज़िंदगी एक नये मोड़ पर आ चुकी है, इंसानियत एक आलमगीर इंक़लाब से हमकनार हो रही है। दुनिया एक नये पैग़ाम से मुंतज़िर है और इस संक्रांति काल और तजरबाती दौर में वही अदब हमारे लिये सेहतमंद तामीरी और पॉजिटिव साबित हो सकता है, जो जिंदगी की सही तनकीद हो। एक नई और बेहतर दुनिया का पैग़ाम तरक़्क़ीपसंद अदब का पैग़ाम है।’’ यही नहीं एक जगह उन्होंने कहा है, ‘‘मेरे नज़दीक अदब बराय जिंदगी का नज़रिया बेहतर है, लेकिन इस हद तक नहीं कि अदब महज़ प्रोपेगंडा बन जाये। ज़िंदगी कितनी ही बीमार और हक़ीक़तें कितनी ही ग़लीज और तल्ख़काम सही लेकिन तस्वीर के रौशन और खु़शगवार रुख़ को नज़रअंदाज़ करके सेहतमंद अदब किसी तरह पैदा नहीं किया जा सकता।’’ इन बातों से यह साबित होता है कि वह मिजाज़ से तरक़्क़ीपसंद थीं और तरक़्क़ीपसंद ख़यालात की हमनवां, हमसफ़र थीं। कृश्न चंदर उनके पसंदीदा अफ़साना निगार थे। वह उनकी शैली से काफ़ी प्रभावित थीं।

कुर्रतुल ऐन हैदर साहित्य अकादमी में उर्दू सलाहकार बोर्ड की दो बार मेम्बर रहीं। विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर वह जामिया इस्लामिया यूनीवर्सिटी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से जुड़ीं। कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी में अतिथि प्रोफेसर भी रहीं। हिंदुस्तानी अदब में उनके बड़े योगदान और उर्दू अदब की बेमिसाल खि़दमत के लिए कुर्रतुल ऐन हैदर कई पुरस्कारों और सम्मान से नवाजी गईं। कहानी संग्रह ‘पतझड़ की आवाज़’ पर उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया। ‘पद्मश्री’, ‘गालिब मोदी अवार्ड’, ‘इकबाल सम्मान’, ‘कुल हिन्द बहादुर शाह जफ़र अवार्ड, ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ वगैरह दीगर सम्मान हैं जिनसे वो नवाजी गईं। यही नहीं अनुवाद के लिए उन्हें प्रतिष्ठित ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ मिला, तो देश के बड़े नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्मभूषण’ से भी वह सम्मानित की गईं। सच बात तो यह है कि कुर्रतुल ऐन हैदर का जिस तरह का लेखन है, उनके लिए कोई भी सम्मान छोटा ही है। उनके नाम के साथ जुड़कर, इन सम्मानों का मर्तबा बढ़ा। कुर्रतुल ऐन हैदर ने अपनी ज़िंदगी के आखि़र तक लिखा। उनकी कलम कभी ख़ामोश नहीं हुई। 21 अगस्त, 2007 वह तारीख़ थी, जब उन्होंने इस फ़ानी दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। उनके जाने से उर्दू अदब का एक सुनहरा दौर ख़त्म हो गया। कुर्रतुल ऐन हैदर, जैसी शख़्सियत सदियों में एक बार पैदा होती हैं।

(जाहिद ख़ान तरक़्की पसंद तहरीक की रहगुज़र नामी पुस्तक के लेखक एंव स्तंभकार हैं)