जाहिद ख़ान
सारे देश में ’पंजाब केसरी’ के नाम से मशहूर लाला लाजपत राय की पहचान, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल के अहम नेता के तौर पर है। लाला लाजपत राय की यह सोच थी कि यदि देश को आज़ाद कराना है, तो ब्रिटिश शासन के जुल्म—ओ—सितम को दुनिया के सामने रखना होगा। ताकि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अन्य देशों का भी सहयोग, समर्थन मिल सके। इस सिलसिले में वे साल 1914 में ब्रिटेन गए और फिर उसके बाद साल 1917 में अमेरिका। साल 1917 से लेकर साल 1920 तक लाला लाजपत राय अमेरिका में ही रहे। अपने चार साल के प्रवास काल में उन्होंने ’इंडियन इन्फ़ॉर्मेशन’ और ’इंडियन होमरूल लीग’ नाम की दो संस्थाएं सक्रियता से चलाईं। साल 1920 में जब वे अमेरिका से वापिस लौटे, तो उन्हें कलकत्ता में कांग्रेस के ख़ास सत्र की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया। स्वदेश वापिसी के बाद लाला लाजपत राय एक बार फिर उसी तरह से स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गए। इसी बीच अंग्रेज हुकूमत ने देश में काला कानून ‘रॉलेट एक्ट’ लागू कर दिया। जिसका पूरे देश में व्यापक विरोध हुआ। महात्मा गांधी ने इस कानून के विरोध में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ असहयोग आंदोलन छेड़ दिया। पंजाब भी इससे अछूता नहीं रहा। जलियांवाला बाग हत्याकांड के घाव अभी भी हरे थे, तिस पर ‘रॉलेट एक्ट’ कानून ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ राज्य में लोगों का गुस्सा बढ़ा दिया। पंजाब में आंदोलन का नेतृत्व लाला लाजपत राय ने किया। साल 1921 में आंदोलन की वजह से उन्हें ज़ेल भी हुई।
महात्मा गांधी ने ‘चौरी चौरा’ घटना के बाद जब असहयोग आंदोलन को वापस लेने का फ़ैसला किया, तो लाला लाजपत राय ने इस फ़ैसले का विरोध किया। देश को आज़ाद कराने के लिए वे हमेशा क्रांतिकारी रास्ता अपनाने के हिमायती थे। कांग्रेस के नरमपंथी नेताओं और नीतियों से उनके गहरे मतभेद थे। बाल गंगाधर तिलक के सामान वे भी उग्र विचारधारा के हामी थे। गरम दल से जुड़े हुए स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पाश्चात्य बुद्धिवाद और उदारवाद की बजाय भारतीय अध्यात्म और दर्शन से प्रेरित थे। कांग्रेस के उग्रपंथी नेताओं बिपिन चंद्र पाल, अरबिंदो घोष और बाल गंगाधर तिलक के साथ लाला लाजपत राय का भी मानना था कि कांग्रेस की नरम और ढुलमुल नीतियों का राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। अगर भारत को स्वतंत्रता चाहिए, तो भिक्षावृत्ति का मार्ग त्यागकर, अपने पैरों पर खड़ा होना होगा। बालगंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल के साथ मिलकर, आगे उन्होंने कांग्रेस के अंदर पूर्ण स्वराज की वकालत की। लाला लाजपत राय का मानना था,‘‘दास जाति की कोई आत्मा नहीं होती। इसलिए देश के लिए स्वराज परम आवश्यक है और सुधार अथवा उत्तम राज्य इसके विकल्प नहीं हो सकते।’’
स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी के साथ-साथ देशवासियों पर जब भी कोई मुसीबत आती, लाला लालपत राय उनकी सेवा के लिए जी जान से जुट जाते। साल 1897 और 1899 में देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा, तो लाला लालपत राय से किसानों का दुःख देखा नहीं गया और वे उनके लिए राहत कार्यों में लग गए। लाला लाजपत राय ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अनेक स्थानों पर शिविर लगाकर, लोगों की सेवा की। साल 1901-1908 की अवधि में वे एक बार फिर भूकम्प एवं अकाल पीड़ितों की मदद के लिए सामने आए। साल 1905 में जब अंग्रेज हुकूमत ने बंगाल का विभाजन किया, तो इस फैसले का विरोध करने वालों में भी लाला लाजपत राय सबसे आगे थे। किसानों को उनके वाजिब अधिकार मिले, इस बात की उन्होंने हमेशा हिमायत की। पंजाब में सरदार अजीतसिंह के साथ मिलकर, उन्होंने किसानों के लिए एक आंदोलन चलाया। अंग्रेज हुकूमत को यह बात मालूम चली, तो इन दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निर्वासित कर पड़ोसी देश बर्मा के मांडले नगर में नज़रबंद कर दिया गया। लेकिन अंग्रेज़ हुकूमत इसमें कामयाब नहीं हो सकी। देशवासियों के विरोध-प्रदर्शन के बाद उसे अपना यह दमनपूर्ण आदेश वापस लेना पड़ा। लाला लाजपत राय दोबारा स्वदेश लौट आये। अब उन्होंने देश भर में स्वदेशी वस्तुएं अपनाने के लिए अभियान चलाया। लाला लाजपत राय एक साथ कई मोर्चों पर काम करते थे। किसानों के साथ उन्होंने मज़दूरों और कामगारों की एकता पर भी बल दिया। लाला लाजपत राय और मजदूर लीडर एनएम जोशी की कोशिशों से साल 1920 में ’अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ की स्थापना हुई। बाद में ’अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ से टूटकर ’एटक’ बनी, तो इसका प्रथम अध्यक्ष लाला लाजपत राय ही को बनाया गया। लाला हरदयाल के साथ मिलकर उन्होंने क्रांतिकारी आन्दोलनों में भी भाग लिया।
लाला लाजपत राय उच्च कोटि के राजनीतिक नेता ही नहीं थे, बल्कि ओजस्वी लेखक और प्रभावशाली वक्ता भी थे। उन्होंने अशोक, शिवाजी, स्वामी दयानंद सरस्वती, मेत्सिनी और गैरीबाल्डी की संक्षिप्त जीवनियाँ लिखीं। ’पंजाबी’, ’वंदे मातरम्’ (उर्दू) और ’द पीपुल’ समाचार पत्रों की स्थापना की और इन अखबारों के माध्यम से देशवासियों के बीच क्रांतिकारी विचार पहुंचाए। इसके अलावा ’यंग इंण्डिया’ नाम से एक मासिक पत्र भी निकाला। कई किताबें लिखीं। ’भारत का इंग्लैंड पर ऋण’, ’भारत के लिए आत्मनिर्णय’ और ’तरुण भारत’ यानी ‘यंग इंडिया’ उनकी प्रमुख किताबें हैं। ये सारी किताबें देश प्रेम और नव जागृति के विचारों से भरी हुई हैं। ‘यंग इंडिया’ में तो उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन को लेकर इस तरह से तर्कपूर्ण गंभीर आरोप लगाये कि ब्रिटिश हुकूमत तिलमिला उठी और उसने इस किताब को प्रकाशित होने से पहले ही ब्रिटेन एवं भारत में प्रतिबंधित कर दिया। लाला लाजपत राय की भाषा और लेखन को कोई जवाब नहीं था। उनका आक्रामक लेखन और काव्यात्मक भाषा पाठकों पर गहरा असर छोड़ती थी। मिसाल के तौर पर उर्दू दैनिक ’वंदे मातरम्’ में लिखी उनकी इन चंद लाइनों पर नज़र दौड़ाएं,‘‘मेरा मज़हब हक़परस्ती है, मेरी मिल्लत क़ौमपरस्ती है, मेरी इबादत खलकपरस्ती है, मेरी अदालत मेरा ज़मीर है, मेरी जायदाद मेरी क़लम है, मेरा मंदिर मेरा दिल है और मेरी उमंगें सदा जवान हैं।’’
लाला लाजपत राय अपने विचारों से लगातार देशवासियों को जागृत करते रहते थे।देशवासियों से उनका कहना था कि ’‘सब एक हो जाओ, अपना कर्तव्य जानो, अपने धर्म को पहचानो, तुम्हारा सबसे बड़ा धर्म तुम्हारा राष्ट्र है। राष्ट्र की मुक्ति के लिए, देश के उत्थान के लिए कमर कस लो, इसी में तुम्हारी भलाई और इसी से समाज का उपकार हो सकता है।’’ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के इन क्रांतिकारी विचारों का देशवासियों के दिल पर गहरा असर होता था और वह देश पर मर मिटने के लिए तैयार हो जाते थे। साल 1928 में संवैधानिक सुधारों पर चर्चा के लिए साइमन कमीशन भारत आया। कमीशन में कोई भारतीय प्रतिनिधि नहीं होने की वजह से देशवासियों का गुस्सा भड़क गया। देश भर में विरोध-प्रदर्शन होने लगे। लाला लाजपत राय ने एक बार फिर इन विरोध प्रदर्शनों की अगुआई की। 30 अक्टूबर 1928 का दिन है, लाला लाजपत राय लाहौर में ऐसे ही एक शांतिपूर्ण जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जेम्स ए. स्कॉट ने इस जुलूस को रोकने के लिए प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज का आदेश दे दिया। लाठी चार्ज में पुलिस ने ख़ास तौर पर लाजपत राय को अपना निशाना बनाया। इस हमले से लाला लाजपत राय बुरी तरह से जख़्मी हो गए। वे लाठियां खाते रहे, मगर हिम्मत नहीं हारी। घायल अवस्था में भी वे अंग्रेज़ों को यह कहकर ललकारते रहे,‘‘मेरे शरीर पर पड़ा आज एक-एक प्रहार, ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत पर आख़िरी कील साबित होगा।’’ इस घटना के सतरह दिन बाद यानी 17 नवम्बर, 1928 को लाला लाजपत राय ने आख़िरी सांस ली और सदा के लिए चिर निद्रा में लीन हो गये। लाला लाजपत राय की शहादत से पूरा देश शोक में डूब गया। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गाँधी ने कहा,‘‘भारत के आकाश पर जब तक सूर्य का प्रकाश रहेगा, लालाजी जैसे व्यक्तियों की मृत्यु नहीं होगी। वे अमर रहेंगे।’’
लाला लाजपत राय ज़िंदगी भर ब्रिटिश हुकूमत से देश को आज़ाद कराने की लड़ाई में जी-जान से जुटे रहे। उनकी शहादत ने स्वतंत्रता आंदोलन को और भी ज़्यादा मजबूत कर दिया। सारा देश आंदोलित हो उठा। चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की शहादत का बदला लेने का फ़ैसला किया। इन जांबाज देशभक्तों ने लाला लाजपत राय की बलिदान के ठीक एक महीने बाद, अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और 17 दिसंबर, 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर जॉन सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई। लाला लाजपत राय, चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे तमाम देशभक्तों की शहादत रंग लाई। क्रांति की ज्वाला देखते-देखते पूरे देश में फैल गई और आख़िरकार वह दिन भी आया, जब देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का जब भी ज़िक्र छिड़ेगा, लाला लाजपत राय की अव्वल दर्जे की वतनपरस्ती और बहादुरी भरे कामों की ज़रूर चर्चा होगी।