जन्मदिन विशेषः ख़ान अब्दुल गफ़्फार ख़ान मानवता के लिये वह समर्पित सरहदी गांधी जिन्होंने 35 साल जेल में बिताए

फैज़ुल हसन

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एक अज़ीम सियासतदां जिन्होंने भारत की आज़ादी में हिस्सा लिया और अपने कामों के ज़रिए उन्हें “सरहदी गांधी” (सीमान्त गांधी), “बच्चा खाँ” तथा “बादशाह खान” के नाम से पुकारे जाने लगे। उन्हें अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ अदम-तशद्दुद के तजुर्बे के लिए जाने जाते थे। एक वक़्त उनका हदफ़ मुश्तरक़ा, आज़ाद, और ग़ैर-मज़हबी भारत था। इसके लिये उन्होने 1930 में ख़ुदाई-ख़िदमतगार नाम की तंज़ीम को अमल में लाये। यह तंज़ीम “सुर्ख़ पोश”(या लाल कुर्ती दल) के नाम से भी जानी जाती थी।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से अपनी पढ़ाई करने वाले अब्‍दुल गफ्फार खान बाग़ी नज़रिए के इंसान थे इसीलिए वह पढ़ाई के दौरान से इन्क़लाबी सरगर्मियों में शामिल हो गए। मिशनरी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वो अलीगढ़ आये पर वहाँ रहने की परेशानी की वजहों से गाँव में ही रहना पसंद किया। गर्मी की छुट्टियों में खाली रहने पर समाजी ख़िदमत का काम करना उनका अहम काम था। पढ़ाई पूरी होने के बाद वह मुल्क़ की ख़िदमत में लग गए।

मुल्क़ के तक़सीम होने पर उनका रिश्ता भारत से टूट सा गया लेकिन वे मुल्क़ के तक़सीम से किसी भी तरह से मुत्तफ़िक़ न हो सके। इसलिए पाकिस्तान से उनकी नज़रियाती ख़्याल अलग थी। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ उन्होने आज़ाद पख्तूनिस्तान तहरीक़ पूरी ज़िंदगी क़ायम रखी।

सन 1988 में पाक़िस्तानी हुक़ूमत ने उन्हें पेशावर में उनके घर में नज़रबंद कर दिया और फ़िर 20 जनवरी 1988 को उनका इन्तेक़ाल हो गया और उनकी आख़री ख़्वाहिश की बदौलत उन्हें जलालाबाद अफ़ग़ानिस्तान में दफ़नाया गया। वह अपनी 98 साला ज़िंदगी में पूरे 35 साल जेल में रहे जो कि अबतक का सबसे ज़्यादा दिन जेल में रहने वाले लोगों में (मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला से भी ज़्यादा) शुमार किया जाता है।

ईमानदारी की मिसाल ये थी कि महात्मा गांधी ने ट्रेन से स्टेशन पर जिसे लाने भेजा था, वह कहीं नहीं दिखे, उनका भेजा आदमी हर डिब्बे में जा जाकर देखने लगा। एक खाली डिब्बे में एक शरीफ़ इंसान बैठे-बैठे सो रहे थे, खान अब्दुल गफ्फार खान को पहचानकर उस आदमी ने उठाया,  खां साहब ने उस शख़्स से माफी मांगते हुए कहा कि लंबा सफर हुआ तो आंख लग गई, उस आदमी ने कहा कि आप लेट क्यों नहीं गए, गाड़ी तो खाली ही थी, खां साहब ने जवाब दिया, “वो मैं कैसे करता, मेरा टिकट स्लीपर का नहीं था ना?”

खान अब्दुल गफ्फार खान हमेशा अपने साथ एक कपड़े की गठरी (थैला) रखते थे जिसे वह किसी को नही सौंपते थे जिसको लेकर गांधी जी अक्सर उनसे मज़ाक़ किया करते थे कि बादशाह थैले मे ऐसा क्या है जो किसी को हाथ भी नही लगाने देता? एक बार कस्तूरबा गाँधी ने कह दिया आप बादशाह को थैले के बारे में मज़ाक़ न किया करें, उनके थैले में एक पठानी सूट व ज़रूरत के कुछ सामान के अलावा कुछ भी नहीं है, तो बापू हंसकर बोले मुझे क्या पता नहीं है की उस के पास पहनने को दो ही कपड़े हैं तभी तो मैं थेला देखने की बात करता हूं ऐसा हंसी मज़ाक़ मैं सिर्फ बादशाह के साथ ही कर सकता हूं और किसी के साथ करते मुझे किसी ने देखा है क्या? क्यों कि बादशाह को मैं बिलकुल अपने जैसा पाता हूं।

जब 1969 मे गांधी पैदाइश की सदी पर इंदिरा जी के खुसूसी दरख़्वास्त पर इलाज के लिए भारत आये तो हवाई अड्डे पर उन्हें लेने इंदिरा जी और जे॰पी॰ नारायण जी खुद आए। बादशाह खान जब हवाई जहाज़ से बाहर आये तो उनके हाथ में वही पोटली थी जिसके बारे में गांधी जी मज़ाक़ करते थे। मिलते ही इंदिरा गांधी ने पोटली की तरफ हाथ बढ़ाया – इसे हमें दे दीजिये, हम ले चलते हैं, बादशाह खान ठहरे संजीदा इंसान, बड़े ठंढे मन से बोले – यही तो बचा है, इसे भी ले लोगी? बटवारे का पूरा दर्द खान साहब की इस बात से बाहर आ गया। जे॰पी॰ नारायण और इंदिरा जी दोनों ने अपने सर को झुका लिया। जे॰पी अपने आप को संभाल न पाये, उनकी आँख से आंसू गिर रहे थे।

1985 मे कांग्रेस यौमे-तासीस के मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हे ख़ुसूसी मेहमान के तौर पर दोबारा मदउ किया और इसके लिए उस वक़्त के पाकिस्तान के वज़ीरे आज़म ज़िया-उल-हक़ को उन्हें भारत आने की इजाज़त देने के लिए कहा। जब बादशाह खान भारत आए तब भी उनके हाथों मे वही पोटली थी जो पिछली बार 1969 मे इंदिरा गांधी के दावत पर वो साथ लाये थे, राजीव गांधी इस पोटली के बारे जानते थे, इसलिए उन्होने बादशाह खान से कहा आपने कभी महात्मा गांधी और इंदिरा जी को ये पोटली को हाथ भी नही लगाने दिया लेकिन अगर आप चाहे तो क्या मै इस पोटली को खोल कर देख सकता हूँ? बादशाह खान ने हँस कर अपने पठानी अंदाज़ मे कहा “ तु तो हमारा बच्चा है… देख ले … नही तो सभी सोचते होंगे पता नही बादशाह इस पोटली मे क्या छुपाए फिरता है “ जब राजीव गांधी ने पोटली खोल कर देखा तो उसमे सिर्फ दो जोड़ी लाल कुर्ता-पाजामा थे” और 1987 मे वज़ीरे आज़म राजीव गांधी हुक़ूमत ने उन्हे भारत-रत्न से नवाज़ा!!

(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष हैं)