नितिन ठाकुर
वो जिससे इश्क करता था उसके घरवालों के लिए पैसा और रुतबा ज़्यादा अहम था। उसके खुद के पास था ही क्या.. चंद गज़ल, शेर, मुहब्बत, फक्कड़पन और भिड़ जानेवाला मिज़ाज। प्रेमिका के पिता ने बेचारे को कॉलेज से भी निकलवा दिया। असफल प्रेम और बेरोज़गारी की भारी-भरकम गठरी लिए वो दर-दर भटकने लगा। छोटी-मोटी नौकरी उसकी तकदीर बनने लगी। खुद का तो जैसे उसे कोई होश ही नहीं था। आगे चलकर उसे दूसरे प्रेम में भी नाकामयाबी ही हाथ लगी। किस्मत से जैसे उसकी ज़िंदगी भर ठनी रही। जब कहने को ज़्यादा हो तो इंसान लिखने लगता है। लिख वो पहले भी रहा था मगर अब डूब कर लिखने लगा। समाज पर, धर्म पर, मुहब्बत पर सब पर बेफिक्र वो लिखता ही गया। लिखने में बेफिक्री ऐसी कि पाकिस्तान में रहकर सरकार को दुश्मन बना लिया। गिरफ्तारी का वारंट भी जारी हो गया। आखिर वो हिंदुस्तान चले आए। पहले सियासी राजधानी और फिर फिल्मों की राजधानी को उन्होंने बसेरा बनाया। मुंबई में बैठ उन्होंने दुनिया के दिल जीते। पहले ही कई पत्रिकाओं का संपादन कर चुके थे सो नाम खूब था। अब बारी गाने लिखने की थी। उन्होंने दिल में उबल रहे जज़्बात कागज़ पर ऐसे उतारे कि लोगों के ज़हन पर निशान पड़ गए।
तल्खी में उन्होंने लिखा- तुम मेरे लिए अब कोई इल्ज़ाम ना ढूंढ़ो.. चाहा था तुम्हें एक यही इल्ज़ाम बहुत है.. ‘आज़ादी की राह पर’ उनकी पहली फिल्म थी। इसके बाद तो उन्होंने नौजवान,बाज़ी,मिलाप, मरीन ड्राइव, लाइट हाउस, धूल का फूल में गज़ब कर डाला। उनका रचा हुआ एक-एक शब्द आज भी अपने पूरे जादू के साथ हमारे बीच है। यूं उन्होंने ही लिखा -दुनिया के तजुरबातो-हवादिस की शक्ल में..जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं।
वो लौटा रहे थे, दुनिया बटोर रही थी। लोकप्रियता का आलम ये था कि उनके ही कहने पर ऑल इंडिया रेडियो ने गाने के साथ होनेवाली घोषणाओं में गीतकार का नाम बोलना भी शुरू किया।वो पहले थे जिन्हें अपने लिखे गानों के लिए रॉयल्टी मिलती थी। पुरस्कार उन्हें पद्मश्री भी मिला मगर दिल की कसक शायद कभी कम ना हुई। महज़ 59 साल की उम्र में वो तन्हाई में घुलते हुए दुनिया छोड़ गए। उन्होंने पहले ही कहा था – ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है।
दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन तो हुआ लेकिन किसी से नहीं छिपा था कि वो बर्बाद क्यों हुए। उनका ही एक मशहूर शेर है- वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है.. इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा… इन साहब का असल नाम अब्दुल हयी साहिर था मगर लोग उन्हें साहिर लुधियानवी के नाम से पहचानते हैं। साल 1921 में आज ही के दिन वो लुधियाना में जन्मे थे।
(लेखक युवा पत्रकार हैं)