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बीबी अम्तुस सलाम: मानवता को समर्पित उस ज़माने की आयरन लेडी

पुष्य मित्र

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बीबी अम्तुस सलाम एक तसवीर में गांधी जी के हाथ से संतरे का जूस पी रही हैं। यह वाकया नोआखली के शिरंडी गांव का है। जनवरी, 1947 का। 21 दिन के उपवास के बाद अम्तुस सलाम अपना व्रत तोड़ रही हैं। वैसे तो अम्तुस सलाम ने यह उपवास गांव के दुर्गा मंदिर के उन तीन खड्गों के लिए किया था, दंगे के दौरान जिन खडकों को स्थानीय मुसलमानों ने चुरा लिया था और बाद में उसी खडग से जब-तब हिंदुओं का गला रेतने की धमकी देते थे। मगर जब अम्तुस ने उपवास तोड़ा तो उन्हें उन खड्गों से काफी अधिक हासिल हो गया।

आसपास के चार गांवों के ग्यारह प्रमुख मुसलमानों ने लिख कर दिया “खुदा को साक्षी रखकर हम सौगंध खाते हैं और यह घोषणा करते हैं कि हम हिंदुओं या दूसरे किसी कौम के लोगों के प्रति कोई वैर भाव नहीं रखते। हर आदमी को चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो, अपना धर्म उतना ही प्यारा है, जितना हमें इस्लाम प्यारा है। इसलिए दूसरे के धर्म-पालन में किसी तरह की दखलंदाजी का कोई सवाल नहीं उठता। हमें मालूम हुआ है कि बीबी अम्तुस सलाम का मकसद हिंदू-मुस्लिम एकता कायम करना है। यह मकसद इस प्रतिज्ञा पर दस्तख्त कर देने से पूरा हो जाता है। इसलिए हम चाहते हैं कि वे अपना उपवास छोड़ दें। हम समझते हैं कि इस मामले में हमने मन में चोरी रखकर अमल किया तो हमें गांधी जी के उपवास का सामना करना पड़ेगा। बाकी के तीसरे खड़ग का पता लगाने की हमारी कोशिश जारी रहेगी।”

नोआखली के भीषण दंगे के बाद जब गांधी जी और उनकी पूरी टीम वहां गयी थी तो पीस मिशन के तहत गांधी जी ने अपने सभी कार्यकर्ताओं को एक-एक गांव में रहकर वहां अमन बहाली का काम करने का निर्देश दिया था। गांधी जी की प्रिय कार्यकर्ता अम्तुस सलाम इसी शिरंडी गांव में रहकर काम कर रही था। जब उन्हें पता चला कि गांव के दबंग मुसलमानों ने दुर्गा मंदिर से खड्ग चुरा लिया है और हिंदुओं को धमका रहे हैं, तो उन्होंने खड्ग की वापसी के प्रयास शुरू कर दिये। जब खड्ग वापसी नहीं हुई औऱ दबंग मुसलमान उन्हें धमकाने लगे तो उन्होंने उपवास शुरू कर दिया। फिर दो खड्ग उन्हें लौटा दिये गये, तीसरा नहीं मिल रहा था और अम्तुस सलाम उपवास तोड़ने के लिए राजी नहीं थीं। तब गांधी जी को आकर हस्तक्षेप करना पड़ा और यह बड़ा समझौता हुआ। गांधी जी ने सख्त वकील की तरह इस समझौते को आकार दिया।

आज बीबी अम्तुस सलाम के बारे में लोग बहुत कम जानते हैं। मैं भी गांधी जी के नोआखली प्रसंग को पढ़ने से पहले उन्हें नहीं जानता था। वे बंगाल की नहीं, पंजाब के पटियाला की थीं। बचपन से ही गांधी जी से प्रभावित थीं। दमा की मरीज होने पर भी उन्होंने गांधी जी के साबरमती आश्रम में रहने की जिद ठानी और वह अधिकार हासिल किया। फिर जब गांधी पीस मिशन के लिए नोआखली गये तो वे भी साथ गयीं। गांधी के नोआखली से लौटने के बाद भी लगभग पूरे 1947 के दौरान वे वहीं रहीं और शांति बहाली का काम करती रहीं।

भारत विभाजन के बाद उनके रिश्तेदार और अपने भाई भी पाकिस्तान चले गये, मगर वे नहीं गयीं। मगर उन्होंने विभाजन के दौरान हिंदुस्तान और पाकिस्तान में फंसी अलग अलग धर्म की महिलाओं की सुरक्षा और अपहृत महिलाओं को छुडाने के लिए बड़ा अभियान चलाया। उन्होंने पटियाला के पास राजपुरा में कस्तूरबा सेवा मंदिर की स्थापना की और वहां से लोगों की मदद करती रहीं। 1980 में उन्हें अखिल भारतीय जेल सुधार समिति का स्थायी सदस्य बनाया गया। 1985 में उनका इंतकाल हो गया।