पलाश सुरजन
देश के शिक्षण संस्थानों में धर्म का दखल हमेशा ही विवाद का विषय रहा है और कर्नाटक के ताज़ा हिजाब विवाद के बाद तो इस मसले पर बहस और तेज हो गई है। हिंदुत्व के बहुत से पैरोकार अचानक इस बात की वकालत करने लग गए हैं कि स्कूल यूनिफार्म में धार्मिक प्रतीकों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। जिन लोगों को पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं है, जिन्हें समाज में महिलाओं को मिलने वाले दोयम दर्जे पर कोई ऐतराज नहीं है, जिनके लिए स्त्री-पुरुष समानता की बातें कोरी बकवास हैं, उन लोगों को अचानक महिलाओं की पर्दादारी से तक़लीफ़ होने लगी। वो भी केवल हिजाब पहनने वाली महिलाओं से, क्योंकि हिंदू समाज में चली आ रही घूंघट प्रथा पर ऐसा कोई बवाल कभी खड़ा हुआ हो, याद नहीं पड़ता। बहरहाल, स्कूलों को धार्मिक प्रतीकों से मुक्त रहना चाहिए या नहीं, इस बहस के बीच अब भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने एक सवाल पूछा है कि ‘हम पर शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप है, लेकिन भगवा में ग़लत क्या है?’
गौरतलब है कि हरिद्वार के देव संस्कृति विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई शांति एवं सुलह संस्थान का उद्घाटन करने पहुंचे श्री नायडू ने कहा कि भारतीयों को औपनिवेशिक मानसिकता त्याग देनी चाहिए और अपनी भारतीय पहचान पर गर्व करना सीखना चाहिए। उन्होंने कहा कि शिक्षा प्रणाली का भारतीयकरण भारत की नई शिक्षा नीति का केंद्र है, जो मातृ भाषाओं को बढ़ावा देने पर बहुत जोर देती है। शिक्षा की मैकाले व्यवस्था को पूरी तरह से खारिज करने का आह्वान करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमें अपनी विरासत, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों पर गर्व महसूस करना चाहिए। हमें अपने बच्चों को अपनी भारतीय पहचान पर गर्व करना सिखाना चाहिए और अपने शास्त्रों को जानने के लिए संस्कृत सीखनी चाहिए, जो ज्ञान का खजाना है। यहीं उन्होंने पूछा है कि भगवा में ग़लत क्या है।
वेंकैया नायडू की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि बच्चों को शिक्षा मातृभाषा में देनी चाहिए। लेकिन मातृभाषा और विरासत को जिन संकीर्ण संदर्भों में पेश करने की कोशिश की जा रही है, उसके गहन विश्लेषण की आवश्यकता है। बेशक थॉमस बबिंगटन मैकाले ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर अंग्रेज़ी को हावी किया ताकि अंग्रेज शासकों को राज करने में सहायता मिले। आज़ादी के बाद भी कई बार इस मुद्दे पर बहस उठी कि हम गुलामी की याद दिलाने वाली भाषा में शिक्षा क्यों ग्रहण करें। इसके साथ ही मातृभाषा की उन्नति का सवाल भी उठा। जिसके समाधान के लिए त्रिभाषा फार्मूले जैसे विकल्प तलाशे गए। हालांकि 70 सालों में देश से अंग्रेज़ी को हटाया नहीं जा सका, और अब ऐसी कोई गुंजाइश भी नहीं बची है। भारत ही नहीं दुनिया के कई हिस्सों में अंग्रेज़ी को ही शिक्षा, व्यापार और संवाद के लिए इस्तेमाल किया जाता है। वैसे भी कोई भी भाषा बुरी नहीं होती, उस पर होने वाली राजनीति बुरी होती है।
जहां तक सवाल बच्चों को भारतीय पहचान पर गर्व करना और संस्कृत सिखाने का है, तो इसमें भी कुछ गलत नहीं है। मगर संस्कृत को संस्कृति से जोडऩे की राजनीति फिर उन संकीर्णताओं की ओर ले जाती है, जो भारत की पहचान और विरासत कभी नहीं रही है। ज्ञान केवल शास्त्रों में नहीं है, दुनिया भर की कई किताबों में है, जिन्हें प्राप्त करने के लिए दूसरी भाषाओं के साथ-साथ उदार नज़रिया भी चाहिए। संस्कृत के नाम पर अगर शिक्षा व्यवस्था का भगवाकरण किया जाता है, तो यह संविधान की भावना के भी खिलाफ है। क्योंकि संविधान सबके लिए बराबरी का प्रावधान करता है, सबको शिक्षा का हक देता है। जबकि प्राचीन भारत में वेद और अन्य धार्मिक ग्रंथों को पढऩे-सुनने से समाज की स्त्रियों और निम्न माने जाने वाले तबकों को वंचित किया गया था। मैकाले की चलाई व्यवस्था को खारिज करने की बात कहना आसान है, पर उसका कौन सा विकल्प मौजूदा सरकार दे सकती है, जिसमें सबके लिए श्रेष्ठ शिक्षा की व्यवस्था होगी।आज भी भारत के असंख्य बच्चों को उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए जूझना पड़ता है, जबकि सत्ता में बैठे लोगों के बच्चे न केवल महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं, बल्कि उच्च शिक्षा के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों में जाते हैं। क्या उन बच्चों को भी भारत में ही रहकर संस्कृत सीखकर शास्त्रों का ही ज्ञान हासिल नहीं करना चाहिए, ताकि भारत की परंपरा और पहचान पर वे गौरव कर सकें।
कैसी विडंबना है कि एक ओर भारत के उपराष्ट्रपति शिक्षा के भगवाकरण में गलत और सही का सवाल उठा रहे हैं। जबकि भाजपा शासित राज्यों गुजरात और कर्नाटक में अब स्कूल के पाठ्यक्रम में भगवद्गीता को शामिल करने का फैसला लिया गया है। गुजरात में छठीं से बारहवीं तक गीता को पाठ्यक्रम में शामिल करने पर शिक्षा मंत्री जीतू वघानी ने कहा कि भगवद् गीता में मौजूद नैतिक मूल्यों एवं सिद्धांतों को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय केंद्र की नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति की तर्ज पर लिया गया है। इसी तरह का फ़ैसला कर्नाटक में भी लिया गया है। जबकि हिजाब पहनने पर रोक लगाने का फ़ैसला सरकार ने इसलिए लिया था कि इससे स्कूल में धार्मिक पहचान दिखती। गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए भले ही नैतिकता और सिद्धांतों की आड़ ली जाए, इसमें हिंदुत्व का एजेंडा फिर भी छिप नहीं पा रहा है। आदर्शों की बातें सभी धार्मिक ग्रंथों में लिखी हैं और हर धर्म एक इंसान को दूसरे इंसान का सम्मान करना, प्यार करना सिखाता है। किसी भी धर्म में घृणा की शिक्षा नहीं दी गई है। लेकिन धर्म के नाम पर चलाई गई सत्ताओं ने घृणा का प्रसार किया, ताकि शासन पर कोई आंच न आए। इसलिए स्कूलों में न गीता का पाठ अनिवार्य होना चाहिए न किसी अन्य धार्मिक ग्रंथ का। शिक्षा के भगवाकरण के ख़तरनाक विचार को जितने जल्दी ख़त्म किया जाएगा, भारत के लिए उतना अच्छा होगा।
(लेखक देशबन्धु अख़बार के संपादक हैं)