वीर विनोद छाबड़ा
बलराज साहनी फ़िल्मी दुनिया के लिए रहस्यमयी इंसान रहे. सेट पर उन्हें चुपचाप एक कोने में बैठे किसी नॉवेल में डूबे देखा गया. फ़िल्मी पार्टियों से नदारद रहे. हलकी बात कभी नहीं की, इसलिए गॉसिप पत्रिकाओं से गायब रहे. आकाश (1953) में उनकी नायिका नादिरा के उनके बारे विचार थे – “बलराज बहुत सुसंकृत्य और बहुत पढ़े-लिखे इंसान थे, अपने रोल में पूरी तरह इंवाल्वड, लेकिन अपने में खोये हुए, तनहा तन्हा. मुझे लगता था वो अंदर से गल रहे हैं. इसलिए जब उनकी मृत्यु हुई तो मुझे तकलीफ तो हुई, लेकिन शॉक नहीं लगा, ऐसा तो होना ही था.”
बलराज के बारे में कहा जाता है कि वो किरदार की खाल में घुस जाते थे, शूटिंग ख़त्म होने के बाद भी बहुत देर तक उसी में खोये रहते थे. यही कारण है कि बंगाल दुर्भिक्ष पर बनी ‘धरती के लाल'(1946) की शूटिंग ख़त्म होने के बाद भी वो कई दिन तक दुर्भिक्ष पीड़ितों के बारे में सोचते रहे. मोतीलाल के बाद वो ही पहले एक्टर थे जिन्हे ‘नेचुरल आर्टिस्ट’ की श्रेणी में रखा गया. हर बार एफर्टलेस परफॉरमेंस. उन्हें किरदार के बारे में सिर्फ बताया जाता था, बाकी काम वो खुद संभाल लेते, कैसे उठना-बैठना है, एक्सप्रेशन देने हैं, डायलॉग बोलने हैं. सिर्फ यही उनकी ख़ासियत नहीं रही, दर्शक भी अपनी रूह में बलराज को खोजते फिरते रहे.
बलराज बोर्न एक्टर नहीं थे. जो ज़िंदगी में देखा उसे आत्मसात किया. शायद पिछले जन्म में देखा और झेला भी उन्हें याद रहा. उनके अंदर एक संवेदनशील और सकारात्मक क्रिएटिव लेखक भी था. लंदन में रॉयल अकेडमी ऑफ़ ड्रामेटिक्स आर्ट्स के प्रवेश द्वार पर लिखे को उन्होंने अपने चरित्र में उतार लिया, “अच्छा एक्टर ही अच्छा आदमी होता है.” वो बताते थे – “एक्टर दो तरह का होता है. एक, वो जो जिसको अपनी इमेज की फ़िक्र होती है और दूसरा, जिसे कोई फ़िक्र नहीं होती, वो कैमरे के सामने बहुत सहज होता है.” बलराज दूसरी किस्म के एक्टर थे.
बलराज ने रावलपिंडी में 1 मई 1913 को एक कपड़ा व्यापारी के घर में जन्म लिया. तब वो युधिष्ठिर थे. लेकिन स्कूल में उन्होंने अपना नाम बदल लिया, बलराज. हिंदी में बीए और फिर अंग्रेज़ी में एमए. उस दौर के लिहाज़ से वो ओवर एडजूकेटेड ‘लायक’ कहलाये. 1936 में उनकी उन्हीं के विचारों वाली दमयंती से उनकी शादी होती है. बलराज उनको लेकर रविंद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन चले जाते हैं, हिंदी और इंग्लिश पढ़ाने और दमयंती ग्रेजुएशन करने. वहां वो महात्मा गाँधी के संपर्क में आते हैं. लम्बे समय तक वो उनके साथ रहे. फिर वो बीबीसी लंदन चले गए, रेडियो एनाउंसर बन कर. वहां उन्हें मैरी सेटन मिलती है जो उन्हें यूरोपियन और सोवियत सिनेमा से परिचित कराती है. वो सिनेमा और उसके कंटेंट्स की सार्थकता को समझते हैं और इसी प्रयास में मार्क्स और एंजिल्स के दर्शन के करीब चले जाते हैं.
पांच साल बाद 1943 में बलराज भारत लौटते हैं तो पक्के कम्युनिस्ट बन चुके होते हैं, कार्ड होल्डर. वो ‘इप्टा’ ज्वाइन करते हैं, जहाँ उनकी ख़्वाजा अहमद अब्बास, तृप्ति मित्रा, सलील चौधरी, बादल सरकार आदि अनेक प्रगतिशील मनीषियों से भेंट होती है. मज़दूर, शोषण, बेकारी जैसे संवेदनशील और समकालीन विषयों को नाटकों के माध्यम से उठाते हैं. एक फिल्म ‘जस्टिस’ में भी काम किया. फिर आयी बंगाल दुर्भिक्ष पर लैंडमार्क फिल्म ‘धरती के लाल’ जिसे के.ए. अब्बास ने डायरेक्ट किया, असमानता, भूख, बेकारी और शोषण के विरुद्ध सशक्त आवाज़, अंग्रेज़ी शासक भड़क उठे. इस फिल्म में एक बहुत मार्के का डायलॉग था, “इंसान को बंदर से इंसान बनते तो देखा है, लेकिन आज इंसान से कुत्ता बनते पहली बार देख रहा हूँ.”
बलराज ने महसूस किया कि जिस लक्ष्य की उन्हें तलाश है वो थिएटर के सीमित ऑडिएंस में नहीं मिल सकती. सिनेमा का क्षितिज विशाल है. उन्होंने सिनेमा का रुख किया. उसी दौर में उनकी गुणी पत्नी दमयंती का निधन हो जाता है. बलराज टूट गए. बच्चों को संभालना और अकेलेपन से निजात पाने के लिए उन्होंने अपनी कज़िन संतोष चंडोक से दूसरी शादी की. ज़िंदगी में कुछ स्थायित्व आया. गुरूदत्त की ‘बाज़ी’ (1951) का लेखन मिला. इसी दौरान उन्होंने एक बस कंडक्टर जॉनी वॉकर का गुरू से परिचय करवाया. बाकी तो इतिहास की बात है कि जानी वॉकर ने आकाशीय बुलंदियों को छूआ. उन्हीं दिनों उन्हें के.आसिफ की दिलीप कुमार-नरगिस वाली ‘हलचल’ में जेलर का रोल मिला. मगर दुर्भाग्य से उन्हें सरकार विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के इलज़ाम में गिरफ्तार कर लिया गया. उस दौर में मज़दूर के हक़ और शोषण के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने वाले को कम्युनिस्ट समझ कर सलाखों के पीछे पहुंचा दिया जाता था. यानी कुछ कुछ इंदिरा की इमरजेंसी और आज जैसा हाल था. बलराज के घर में खाने के लाले पड़े थे. के.आसिफ ने हुकुमरानों से बात करके विशेष अनुमति ली, शूटिंग के लिए बलराज को रोज़ाना कुछ घंटों के लिए जेल से रिहा किया जाने लगा. कैदी बलराज शूटिंग के दौरान जेलर की वर्दी में दिखते थे. कई लोग उनका मज़ाक भी उड़ाते, एक्टिंग आपके बस की नहीं. दरअसल जेल में कुपोषण के कारण बलराज की काया बहुत क्षीण हो गयी थी, इसका असर उनकी परफॉरमेंस पर भी पड़ा. अच्छा हुआ कि जल्दी ही सरकार की गलतफहमी दूर हुई, बलराज को जेल से स्थायी रिहाई मिल गयी. दिन फिर अच्छे होने लगे.
बिमल रॉय को ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) के किसान और फिर रिक्शा चालक शंभू महतो के किरदार के लिए एक्टर चाहिए था. मगर सामने अंग्रेज़ माफिक गोरे-चिट्टे फर फर अंग्रेज़ी बोल रहे बलराज को पाकर वो बहुत निराश हुए. बलराज ने इसे चैलेंज स्वरूप लिया. एक हफ्ते तक लगातार कलकत्ता की सड़कों पर ‘हाथे ठेले रिक्शा’ चला कर पसीना बहाया, एक्सीडेंट से ज़ख़्मी हुए. कुछ यात्रियों ने उन्हें असल रिक्शावाला समझा तो बलराज ने उन्हें ढोया भी. और जब बिमल दा के सामने खड़े हुए तो वो हैरान रह गए – “येस, यही है मेरा शंभू महतो”. बलराज को बहुत संतुष्टि मिली, जिस लक्ष्य की तलाश थी, वो प्राप्त होता दिखा. इस फिल्म को कई नेशनल और इंटरनेशनल अवार्ड मिले जिसमें कांन्स और कार्लोवरी भी शामिल हैं. बलराज की भी जम कर तारीफ़ हुई, वस्तुतः फिल्म की जान ही वही थे. लेकिन अफ़सोस उन्हें कोई अवार्ड नहीं मिला. मगर बलराज तनिक भी दुखी नहीं हुए. उनके लिए ‘संतुष्टि’ ही सबसे बड़ा अवार्ड था.
इसके बाद बलराज को पीछे मुड़ कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी. फ़िल्में स्वतः ही आती गयीं. उनकी प्रतिभा निखरती ही चली गयी. ऐसी भी फ़िल्में आयीं जो स्त्री केंद्रित थीं. मगर बलराज की पावरफुल उपस्थिति ने फिल्म की वैल्यू ही बढ़ा दी. जैसे सीमा, कठपुतली, भाभी, लाजवंती, अनुराधा, अनपढ़, आसरा, छोटी बहन आदि. बलराज ने कृष्ण चोपड़ा के साथ एक फिल्म भी डायरेक्ट की थी, लाल बत्ती (1957) जिसमें आज़ादी के दिन एक ट्रेन एक वीरान स्टेशन पर इसलिए खड़ी हो जाती है कि स्टेशन मास्टर का मर्डर हो गया. ‘काबुलीवाला’ (1961) बलराज की ज़िंदगी की नहीं भारतीय सिनेमा के इतिहास में भी मील का पत्थर बनी. अब्दुल रहमत खान नाम का अफ़ग़ान कलकत्ता आता है व्यापार करने. एक छोटी सी गुड़िया से उसे स्नेह हो जाता है. लेकिन तभी रहमान के हाथों एक हत्या होती है और बदले में मिलती है चौदह साल की क़ैद. रहमान जेल से बाहर आता है और उस गुड़िया के घर जाता है. मगर गुड़िया अब गुड़िया नहीं है, वो बड़ी हो चुकी है. रहमान को अपनी बेटी याद आती है, अरे अब तो वो भी बड़ी हो चुकी होगी…ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े वतन…मेरे विचार से सिनेमा और बलराज को समझने वालों को ये फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए. ‘वक़्त’ (1965) कई कारणों से याद की जाती है उनमें एक लाला केदार नाथ भी थे जिन्हें अपनी मेहनत, बाज़ूओं और तीन बेटों पर बहुत गरूर था, भाग्य को नहीं मानते थे. मगर वक़्त के मिजाज़ ने उनके मुंह पर ऐसा तमाचा मारा कि सब कुछ तबाह हो गया…आदमी को चाहिए वक़्त से डर के रहे…फिल्म इसी किरदार के आस-पास ही घूमती रही. ‘ओ मेरी ज़ोहरा ज़बीं तुझे मालूम नहीं तू अभी तक है हसीं…’ में वो इतनी तबियत से झूमे कि समूचा राष्ट्र झूम उठा. ये गाना पत्नी के प्रति प्रेम का परमानेंट प्रतीक बन गया. आज भी लोग इसे बलराज के अंदाज़ में ही झूमते-गुनगुनाते हैं. आज भी हर घर से डोली उठती है तो नील कमल (1968) का ये विदाई गीत ज़रूर बजता है…बाबुल की दुआएं लेती जा….ऐसे ग़मगीन माहौल में नम आंखों से बेटी को विदा करते बलराज ज़रूर याद आते हैं. और ‘एक फूल दो माली’ (1969) की बलराज पर फिल्माई ये लोरी आज भी गुनगुनाई जाती है…तुझे सूरज कहूं या चंदा तुझे दीप कहूं या तारा…
हक़ीक़त, आये दिन बहार के, नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे, हमराज़, अमन, इज़्ज़त, दो रास्ते, तलाश, पवित्र पापी, घर घर की कहानी, पराया धन, हिंदुस्तान की क़सम, हंसते ज़ख़्म और संघर्ष भी बलराज की यादगार फ़िल्में हैं. ‘गर्महवा’ (1974) जैसी क्लासिक के सलीम मिर्ज़ा को तो भुलाना असंभव ही है. पार्टीशन का दौर है. हर तरफ मारकाट, अफरा-तफ़री और अविश्वास का माहौल. सलीम मिर्ज़ा का व्यापार चौपट हो जाता है. सारे नाते-रिश्तेदार और दोस्त पाकिस्तान जाने का फ़ैसला करते हैं. लेकिन मिर्ज़ा जमे रहते हैं. लेकिन हालात इतने खराब होते हैं कि अवसाद में डूबी बेटी अमीना खुदकशी कर लेती है तो मिर्ज़ा भी भारी दिल से घर पर ताला लगा पाकिस्तान जाने का फैसला करते हैं. मगर रास्ते में उनका बेटा सिकंदर रोज़ी-रोटी के हक़ के लिए निकल रहे एक जुलूस में शामिल हो जाता है. मिर्ज़ा भी जुलूस के पीछे चलते हुए मुख्यधारा में शामिल हो जाते हैं, जब सरहद पार भी लड़ना है तो यहीं क्यों नहीं? इसे उनके कैरीयर की सबसे बेहतरीन फिल्म माना जाता है. इस किरदार को बलराज ने जिस शिद्दत से जीया, उसे शायद कोई और अदाकार नहीं जी सकता था. दुर्भाग्य से बलराज की ये आख़िरी फिल्म भी रही. इस फिल्म की रिलीज़ के कुछ दिन पहले 13 अप्रेल 1973 को उन्हें ज़बरदस्त हार्ट अटैक आया और उन्होंने दुनिया छोड़ दी, महज़ 59 साल की कम उम्र में. उनकी आखिरी ख्वाईश के अनुसार उनके शव के पास कार्ल मार्क्स की ‘दास कैपिटल’ की प्रति रखी गयी. बताया जाता है उनकी बेवक़्त मौत की बड़ी वज़ह कुछ दिन पहले बेटी शबनम के अचानक गुज़र जाने से लगा सदमा था.
वक़्त से हमेशा शिक़ायत रहेगी कि बलराज को जीने का ज़्यादा वक़्त नहीं दिया. अन्यथा अदाकारी की और भी अनेक मीनारें देखने को मिलतीं. बलराज को भारत सरकार ने 1969 में पदमश्री से विभूषित किया. मेरे विचार से उनके ऊँचे मयार को देखते हुए ये बहुत छोटा अवार्ड था. अफ़सोस ये भी रहेगा कि फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें कोई बड़ा सम्मान नहीं दिया, शायद इसलिए कि उनका कोई प्रोमोटर नहीं था और खुद को उन्होंने कभी प्रोमोट नहीं किया.