रवीश कुमार
औरंगज़ेब और आरक्षण। इससे ज़्यादा लिखने की कोई ज़रूरत नहीं है। इन दो शब्दों को देखते ही पढ़ने वाले के दिमाग़ में जो भ्रांतियां मौजूद हैं वो बाहर आने लगती हैं। लोगों के मन में भ्रांतियों के अलावा कई जानकारियां भी सही हैं मगर उसके अलावा कुछ नया जानने की ज़रूर महसूस नहीं करते हैं। ऐसे लोगों का दिमाग़ औरंगज़ेब लिखा देखते ही अपने भीतर मौजूद छवियों को ज़हन के जहान में संदेश प्रसारित करने लगता है। जो अलग-अलग माध्यमों से गढ़ी जा रही छवियों के आधार पर उनके भीतर बनता चला आ रहा है। मसलन आप को लाल रंग के चाहे जितने रुप दिखाए जाएं,आप उनकी पहचान या तो ग़ुलाब से करेंगे या कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे से या फिर ख़ून से। हम सबका दिमाग़ लाल को किसी और रूप पहचानने का प्रयास ही नहीं करता है।
ऐसे लोगों के लिए Audrey Thruschke ने Aurangzeb,The Man and They Myth किताब लिख कर जो कोशिश की है, वह कितनी सफ़ल होगी, कहना मुश्किल है। पेंग्विन प्रकाशन से छपी 399 रुपये की यह किताब उन लोगों के लिए भी जो यह समझते हैं कि औरंगज़ेब के बारे में सब जानते हैं और उनके लिए भी है जो नहीं जानते हुए भी इस भ्रम में रहते हैं कि सब जानते हैं। ख़ैर, मैंने पढ़ी है तो इस किताब के हवाले से जो जानकारी मिली है उसका बेहद संक्षिप्त रूप यहां पेश कर रहा हूं। आगे अगर आप अपनी छवि से अलग और ज़्यादा जानना चाहते हैं तो फिर इसी किताब को नहीं बल्कि कई और किताबों को पढ़ना पड़ेगा। Audrey Truschke, न्यूयार्क स्थित Rutgers University में इतिहास की सहायक प्रोफेसर हैं।
49 साल तक औरंगज़ेब ने हुकूमत की है। 88 साल तक ज़िंदा रहा। 1707 में जब मरा तब मुग़ल सल्तनत भौगोलिक और आर्थिक आधार पर दुनिया की सबसे बड़ी राज्य व्यवस्था बन चुकी थी। दिल्ली के मौजूदा शालीमार गार्डन में औरंगज़ेब की पहली ताजपोशी हुई थी और उसने आलमग़ीर का ख़िताब हासिल किया था। औरंगज़ेब की दो बार ताज़पोशी हुई। मरने से पहले आख़िरी ख़त में औरंगज़ेब ने कहा था कि मैं अजनबी की तरह आया और अजनबी की तरह जा रहा हूं।
ऑद्रे की यह किताब बहुत जल्दी में औरंगज़ेब से जुड़े मिथकों के संसार में हस्तक्षेप करते हुए उस दौर की ठीक-ठाक जानकारी दे जाती है। अगर आप इसे आधार बनाकर बाकी किताबों को पढ़ेंगे तो पता रहेगा कि चीज़ें कहां से आ रही हैं और किस दिशा में जा रही हैं। पेशेवर इतिहासकार अपनी हर बात के प्रमाण में सोर्स बताता है न कि धारणाओं के दम पर या भीड़ के डर से अपनी बात रखता है। ऑद्रे ने अपनी किताब में सारे सोर्स बताए हैं और उनका मकसद है कि औरंगज़ेब को समग्र नज़रिए से देखा जाए। हम सब की निगाहों में औरंगज़ेब एक बदनाम, क्रूर, धर्मांध, धर्मांतरण कराने वाला ऐसा बादशाह था जिसका ज़िक्र करना भी गुनाह है।
मीडिया और राजनीति ने इस गुनाह के बोध को और गहरा किया है। मगर इसके पार औरंगज़ेब की हुकूमत के और भी कई रूप और रंग हैं जिनकी झलक इस किताब में मिलेगी। अकबर पर फ़िल्में बनती हैं, शाहजहां पर किताबें लिखी जाती हैं मगर औरंगज़ेब का नाम लेकर लोग जल्दी से आगे बढ़ जाते हैं। भारत में ही नहीं पाकिस्तान में औरंगज़ेब को इसी तरह से देखा गया है। इतिहासकार ऑद्रे आपको रोक कर औरंगज़ेब के बारे में बहुत सी बातें बताना चाहती हैं।
औरंगज़ेब ने होली पर रोक लगाई थी, मगर यह बात आ ही नहीं पाती कि उसने ईद और बकरीद पर भी रोक लगाई थी। ऑद्रे बताती हैं कि ऐसा राजकीय कारणों से हुआ। ऐसे त्योहारों के वक्त कानून व्यवस्था नियंत्रण से बाहर हो जाती थी,इसलिए औरंगज़ेब चाहता था कि सादगी से मनाया जाए। फिर उसके ये फ़रमान कभी अमल में नहीं आ सके। औरंगज़ेब के दरबारी और ख़ानदान के लोग भी हर त्योहार में शामिल होते रहे। लोग भी मनाते रहे।
औरंगज़ेब ने ज़रूर अपने भाइयों का क़त्ल किया मगर बाक़ी तीनों भाई भी उसके ख़ून के प्यासे थे। मुग़ल सल्तनत में ऐसा कोई नियम नहीं था कि विरासत बड़े बेटे को ही मिलेगी। बेटों में कोई भी बादशाह हो सकता था। औरंगज़ेब ने गुजरात के व्यापारी शांतिदास का कर्ज़ लौटा दिया जो उसके भाई मुराद ने लिया था। औरंगज़ेब ने ऐसा इसलिए किया ताकि मुराद उसके पाले में आ सके। औरंगज़ेब ने अपनी बेटी की शादी दारा शिकोह के बेटे से की। दारा शिकोह के सैनिकों और दरबारियों को उसने माफ कर दिया और अपने दायरे में ले लिया। कुछ की ही हत्या की या सज़ा दी। सरमद उनमें से एक बेहद महत्वपूर्ण था।
ऑद्रे का मकसद यह बताना है कि एकदम से हिन्दू बनाम मुस्लिम के खांचे में रखकर हम एक बादशाह की ऐतिहासिकता को नहीं समझ सकते थे। औरंगज़ेब मज़हबी था मगर जब भी मौका आया उसने राज्य के पक्ष में व्यावहारिक फ़ैसला लिया। मज़हब का पक्ष जब भी लिया धर्म से ज़्यादा कूटनीति के कारण लिया। उसने उलेमाओं को खुश करने के लिए जज़िया लगाया मगर ब्राह्मण पुरोहितों, राजपूत और मराठा दरबारियों या मनसबदारों को जज़िया से मुक्त कर दिया। उलेमाओ को जज़िया वसूलने का काम दे दिया और उलेमा बड़ी संख्या में चोरी करने लगे।वसूली के इस काम को करने के लिए कई लोगों ने धर्म भी बदला ताकि दरबार में काम मिल जाए। अपने पिता शाहजहां को क़ैद करने का अपराध बोध उसका पीछा करता रहा। इसी उम्मीद में उसने उलेमाओं को जज़िया वसूलने का काम लगाया ताकि उसका विरोध कम हो। उस पर इल्ज़ाम था कि पिता को जेल भेज कर ग़ैर इस्लामिक काम किया है। औरंगज़ेब के समय बड़े स्तर पर धर्मांतरण का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
अमीर का बहुवचन होता है उमरा। इन्हें मनसबदार और जागीरदार भी कहा जाता था। अकबर के समय हिन्दू अमीर-उमरा की संख्या करीब 22.5 प्रतिशत थी। शाहजहां के समय 21.6 प्रतिशत रही मगर औरंगज़ेब के 1679 से 1707 के बीच हिन्दू अमीरों की संख्या 50 फ़ीसदी हो गई। इसमें मराठाओं की संख्या सबसे अधिक थी। अकबर के समय राजपूत होते थे मगर औरंगज़ेब का दौर आते आते मराठा संख्या में अधिक हो गए। यह भी सच है कि छत्रपति शिवाजी अंत अंत तक औरंगज़ेब के लिए चुनौती बने रहे।
राजा रघुनाथ औरंगज़ेब के दीवान यानी वित्त मंत्री थे। अकबर के टोडरमल की तरह राजा रघुनाथ की भी काफी प्रतिष्ठा थी। राजा का ख़िताब औरंगज़ेब ने ही दिया था। पांच साल तक ही ज़िंदा रहे मगर औरंगज़ेब उन्हें अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में भी याद करता रहा। ईश्वदरदास, हिन्दू ज्योतिष के बग़ैर वह कोई भी महत्वपूर्ण काम नहीं करता था! वैसे मुग़ल बादशाह ज्योतिषों पर बहुत निर्भर रहते थे।
संगीत के ख़िलाफ़ हो जाने से पहले वह कश्मीर में गर्मी की छुट्टी बिताता था और संगीत सुनता था। संगीत का बहुत ज्ञानी था। 1679 में दक्कन फतह के लिए दिल्ली छोड़ दिया और 1707 तक मारे जाने से पहले कभी दिल्ली नहीं लौटा। तख़्त पर बैठने से पहले अपनी जवानी के पहले हिस्से में बीस साल वह दिल्ली से बाहर ही रहा और युद्ध लड़ता रहा। औरंगज़ेब के दौर में मुग़ल सल्तन का सबसे अधिक विस्तार हुआ।
1690 के दशक में चंद्रामन नाम के कवि ने उसे फारसी में रमायण भेंट की। 1705 में अमर सिंह ने फारसी में रामायण पर लिखे अपने गद्य अमर प्रकाश भेंट किया था। अख़बार को लेकर बहुत दिलचस्प जानकारी है। औरंगज़ेब के दरबार में उसके साम्राज्य के हर कोने से ख़बर पढ़ी जाती थी। इन्हीं ख़बरों के आधार पर ऑद्रे ने लिखा है कि इनमें बहुत कम जानकारी है धर्मांतरण के बारे में। एक डच दूत का प्रसंग आया है जिसने कहा है कि अख़बार का ऐसा चस्का लगा था कि शिवाजी भी ख़बरों के दीवाने हो गए थे। 1677 में एक बार वे इतने खो गए कि जाते थे कि मुलाकात के लिए मुश्किल से वक्त निकाल पाए।
मैं किताब को उस रूप में पेश नहीं कर रहा जिस मकसद और संदर्भों के साथ लिखी गई है बल्कि मैं ऐसी जानकारियां आपके सामने पेश कर रहा हूं जिससे आपके उत्सुकता पैदा हो और आप किताब पढ़ें। एक तरह से ये गाइड के रूप में समीक्षा है ताकि आप अपनी धारणाओं से बाहर आकर जानने की कोशिश करें। हम इतना डरते क्यों हैं, इतिहास का सामना करने से।
आप सोच रहे होंगे कि बनारस के विश्वनाथ मंदिर और मथुरा के केशव देवा मंदिर के ध्वंस की बात तो हुई ही नहीं। मैं नहीं कर रहा हूं मगर इस किताब में विस्तार से उसके राजनीतिक कारणों की चर्चा है। ऑद्रे कहती हैं कि औरंगज़ेब की सल्तनत में लाखों मंदिर थे, मगर जिन मंदिरों को ध्वस्त किया उनकी गिनती दर्जन भर भी नहीं थी। हालांकि इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि उस वक्त भी विश्वनाथ मंदिर और केशव देवा मंदिर का महत्व लाखों मंदिरों से ज़्यादा रहा होगा लेकिन क्या धार्मिक वजहों से उन्हें तोड़ा गया, जानने के लिए किताब पढ़िए। तभी पता चलेगा कि उसी बनारस में औरंगज़ेब के यह भी फ़रमान मिलते हैं कि ब्राह्मण पुरोहितों को परेशान न किया जाए। दक्कन को जीतने में उसने सारा जीवन लगा दिया मगर उसने एक भी मंदिर नहीं तोड़ा। आद्रे कहती हैं कि उसके फैसलों को धर्मांधता या हिन्दू धर्म के प्रति नफ़रत से नहीं समझा जा सकता।
औरंगज़ेब और शिवाजी की दुश्मनी और मुलाकात की भी खूब चर्चा है। इसके लिए भी आपको पढ़ना होगा। तभी आप जान जाएंगे कि औरंगज़ेब और शिवाजी के बीच क्यों नहीं संबंध कायम हो सके, कहीं इसकी वजह औरंगज़ेब के दरबार में मौजूद राजपूत और मराठाओं की आपसी प्रतिस्पर्धा तो नहीं थी? इस किताब में छत्रपति शिवाजी के बारे में भी काफी कुछ जानने को है, जिसके आधार पर आप शिवाजी पर लिखे अनगिनत किताबों की यात्रा कर सकते हैं। कम से कम समझ तो आएगा कि क्या पढ़ रहे हैं और क्यों पढ़ रहे हैं।
आज की राजनीति के हिसाब से अगर आप इतिहास को देखेंगे तो आप ख़ुद के साथ इंसाफ़ नहीं कर पाएंगे। आपके ज़हन में औरंगज़ेब को लेकर चाहे जैसी छवि हो, मगर जानकारी की इस सुखद यात्रा से ख़ुद को वंचित मत कीजिए। यह मत समझिएगा कि इस किताब में औरंगज़ेब के ज़ुल्मों सितम के किस्से नहीं हैं, वह भी हैं मगर संदर्भों के साथ। शाहजहां को लिखे औरंगज़ेब के पत्र के एक हिस्से के साथ ख़त्म कर रहा हूं जो इस किताब के पेज नंबर 47 पर है। अंग्रेज़ी में है।
“ I wish you to recollect that the greatest conquerors are not always the greatest kings. The nations of the earth have often been subjugated by mere uncivilised barbarians, and the most extensive conquests have, in few short years, crumbled to pieces. He is the truly great king who makes it the chief business of his life to govern his subjects with enquiry.”
(लेखक जाने माने पत्रकार हैं, उन्होंने यह लेख 2018 में लिखा था)