अल्पसंख्यकों पर बढते हमले और ओआईसी में भारत की आलोचना के मायने!

पलाश सुरजन

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हाल ही में पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में मुस्लिम देशों के संगठन ओआईसी के विदेश मंत्रियों की बैठक हुई, जिसके प्रस्ताव में कश्मीर, भारतीय स्कूलों में हिजाब पर प्रतिबंध और पाकिस्तान पर गलती से मिसाइल दागने की घटना को लेकर भारत की आलोचना की गई। इस बैठक में भारत के संबंध में जिस तरह की बातें हुईं, वह भारत के लिए चिंताजनक हैं ही, शर्मिंदगी का भी विषय हैं, क्योंकि एक अंतरराष्ट्रीय मंच से भारत की आलोचना की गई है। इस संगठन से या इस मंच से कही गई बातों से भारत भले इत्तेफाक न रखे और अपने ऊपर उठी उंगलियों को गलत बताए, लेकिन फिर भी वैश्विक स्तर पर इससे देश की छवि को धक्का ही लगा है।

गौरतलब है कि 1969 में येरुशलम की अल अक्सा मस्जिद में आग लगने के बाद दुनिया के मुस्लिम देशों के प्रमुखों का एक सम्मेलन बुलाया गया और एक संगठन बनाने का विचार वहां से उठा। 25 सितंबर 1969 को 24 मुस्लिम बहुल देशों के प्रतिनिधि मोरक्को के राबाट में एक इस्लामिक सम्मेलन में मिले थे। इस सम्मेलन में पारित प्रस्ताव में कहा गया था कि मुस्लिम देश आर्थिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्र में एक दूसरे को सहयोग करेंगे। मुस्लिम दुनिया के देशों की संयुक्त आवाज माने जाने वाले ओआईसी का मकसद अंतरराष्ट्रीय शांति और सद्भाव को कायम रखते हुए मुस्लिम दुनिया के हितों की रक्षा करना है। भारत में मुसलमानों की जनसंख्या दुनिया की एक तिहाई है, फिर भी देश मुस्लिम बहुल नहीं है, इस वजह से ओआईसी का सदस्य नहीं है। जबकि पाकिस्तान ओआईसी का सदस्य है और इस बार तो बैठक की मेजबानी भी पाक ने ही की है।

धर्म के आधार पर बने पाकिस्तान में हुकूमतों के संकीर्ण नजरिए की कई बार आलोचना तो हुई है, लेकिन इस पर आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि पाकिस्तान की नींव विराट, व्यापक और उदार सोच के साथ नहीं डाली गई थी। इसके बरक्स भारत ने आजादी के बाद से समानता और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को महत्व दिया। हरेक धर्म के अधिकार देश में सुरक्षित रहें, इसका जिम्मा शासन के तीनों अंगों ने उठाया। इसलिए दुनिया में भारत की खास छवि अंकित हुई। लेकिन पिछले कुछ बरसों में धार्मिक सद्भाव को ढोंग बना कर रख दिया गया है और धर्मनिरपेक्षता का विचार संदेहास्पद बना दिया गया है।

इस पृष्ठभूमि में ओआईसी के मंच से भारत के आंतरिक मसलों पर दिए गए प्रस्ताव की व्याख्या करना चाहिए। वैसे आश्चर्य की बात ये है कि चीन पर भी उईगर मुसलमानों के क्रूर दमन का आरोप लगता रहा है, लेकिन ओआईसी की बैठक में उस पर कुछ कहा गया हो, ये जानकारी नहीं आई। अलबत्ता चीन ने कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान का साथ दिया। जिस पर भारत ने सख्त आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा है कि जम्मू और कश्मीर पूरी तरह भारत का आंतरिक मामला है और चीन सहित अन्य देशों को इस पर प्रतिक्रिया देने का कोई हक नहीं है।

भारत ने अपना सख़्त रवैया दिखलाकर ठीक ही किया, क्योंकि कोई राष्ट्र छोटा या बड़ा, कमज़ोर या ताकतवर जैसा भी हो, उसकी संप्रभुता का सम्मान होना ही चाहिए। लेकिन दुनिया की बड़ी ताकतें खुद को इस अंतरराष्ट्रीय शिष्टाचार से ऊपर समझती हैं। भारत ने चीन समेत ओआईसी देशों को तो दो टूक सुना दी, लेकिन आइंदा ऐसा न हो, इसका भी कोई प्रबंध भारत सरकार को करना होगा। मौजूदा हाल तो ये है कि देश में जगह-जगह से अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न, दलितों के शोषण की खबरें आ रही हैं और सरकार अल्पसंख्यकों में फैल रहे डर को दूर करने के लिए कोई कदम ही नहीं उठा रही। उल्टा ऐसे फैसले लिए जा रहे हैं, जिससे अल्पसंख्यकों में दोयम दर्जे के नागरिक होने का भाव पैदा हो। जैसे केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने बेगूसराय में होली की रात दो गुटों के बीच की लड़ाई को हिंदू-मुस्लिम रूप दे दिया और कहा कि मुस्लिमों की बढ़ती आबादी से डर नहीं लगता है, कट्टरवादी सोच से डर लगता है। अगर बेगूसराय में ही हिंदू सुरक्षित नहीं रहेगा तो वह कहां जाएगा।

दूसरी ख़बर कर्नाटक से आई है, जहां उडुपी जिले में स्थित होसा मारगुडी मंदिर के प्रबंधन ने फैसला लिया है कि अन्य धर्मों के लोगों को वह अपनी जमीन पर मंदिर के वार्षिकोत्सव के दौरान व्यवसाय नहीं करने देंगे। उडुपी की रेहड़ी-पटरी एसोसिएशन के महासचिव मोहम्मद आरिफ का कहना है कि वे लोग इस मामले में मंदिर कमेटी के लोगों से मिले। लेकिन कमेटी के लोगों ने कहा है कि वह सिर्फ हिंदुओं को ही यहां पर जगह देंगे, कुछ दिन पहले गुजरात में भी एक क्रिकेट टूर्नामेंट में सिर्फ हिंदू खिलाड़ियों को ही खिलाए जाने की शर्त रखी गई थी।

तीसरी ख़बर मध्यप्रदेश से है, जहां द कश्मीर फाइल्स पर ट्वीट करना एक 2015 बैच के प्रमोटी आईएएस अफ़सर नियाज़ अहमद ख़ान की मुश्किलें बढ़ा गया। राज्य सरकार ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर ट्वीट को लक्ष्मण रेखा लांघना करार देते हुए अफ़सर को कारण बताओ नोटिस थमाने का ऐलान किया है। साथ ही प्रदेश के गृहमंत्री और राज्य सरकार के प्रवक्ता नरोत्तम मिश्रा ने कहा, ‘नियाज़ खान शायद भूल गये हैं कि वे प्रशासन का अंग हैं। जब फ़िल्म का प्रमोशन करते हुए नरेन्द्र मोदी भूल गए कि वे देश के प्रधानमंत्री हैं, तो फिर फिल्म की निंदा करते वक्त नियाज़ अहमद ख़ान से किस याददाश्त की उम्मीद भाजपा सरकार कर रही थी। इस फिल्म को किसी धार्मिक ग्रंथ के जैसे आदर-सत्कार दिया जा रहा है, मानो इससे पहले कभी किसी त्रासद घटना पर कोई फिल्म बनी ही नहीं।

राजस्थान में राजेश कुमार मेघवाल नाम के दलित युवक ने इस फिल्म पर फेसबुक पर लिखा कि मैंने फिल्म का ट्रेलर देखा। इस फिल्म में कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार को दिखाया गया है और इसे टैक्स फ्री किया गया है। यह ठीक है लेकिन दलितों और दूसरे समुदायों के खिलाफ भी अत्याचार होते हैं तो ऐसे में जय भीम जैसी फ़िल्मों को टैक्स फ़्री क्यों नहीं किया जाता। राजेश का दावा है कि उनकी यह टिप्पणी कुछ लोगों को इतनी चुभी कि उनसे जबरन मंदिर के फर्श पर नाक रगड़वाई।

इन घटनाओं से समझ आता है कि पिछले कुछ सालों में हम किस तरह का समाज बन चुके हैं। यहां केवल अमीरों के हित और अधिकार सुरक्षित दिखाई देते हैं, जबकि गरीबों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और दलितों के लिए इंसाफ के रास्ते तंग होते जा रहे हैं। इन हालात के कारण दुनिया में भारत के नाम को धक्का पहुंच रहा है और जिस तरह की बातें ओआईसी के मंच से भारत के लिए हुईं, वो फैलती जा रही हैं। इसे रोकना है तो सरकार को पहले अपना रवैया और नज़रिया दोनों बदलना होगा।

(लेखक देशबन्धु अख़बार के संपादक हैं)