गुजरात यूनिवर्सिटी का टॉपर था आसिफ शेख, आतंकवाद के झूठे आरोप में फंसाकर गुजरात पुलिस ने बर्बाद

Krishna Kant
कृष्णकांत

आसिफ शेख नाम के युवक ने 2001 में गुजरात यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता में टॉप किया। उनके साथ के लोग बड़े-बड़े पत्रकार बन गए। आसिफ आतंकवाद के झूठे केस में फंसा दिए गए। इस केस ने आसिफ के सपनों पर ऐसा पानी फेरा कि उनकी ज़िंदगी के सारे रास्ते बंद हो गए। 2001 में मुसलमानों की शिक्षा के मसले पर गुजरात के सूरत में एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन की बुकिंग के लिए आरिफ मंसूरी नाम के शख्स के नाम हाल बुक किया गया था। उनके भाई साजिद मंसूरी सिमी नाम के संगठन से जुड़े थे, जिस पर आतंकवाद में लिप्त होने का आरोप था। इस सम्मेलन में शामिल 127 लोगों को गिरफ्तार किया गया। उनपर सिमी से जुड़े होने और आतंकवाद फैलाने का आरोप लगाया गया।

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इन लोगों में दो वाइस चांसलर थे, एक सेवानिवृत्त जज, प्रोफेसर और डॉक्टर थे। सभी को जेल में डाल दिया गया। वे सभी लोग 11 महीने तक जेल में रहे, फिर गुजरात हाईकोर्ट से जमानत मिल गई। लेकिन इनके छूटने तक मीडिया और पुलिस इन सबको आतंकी घोषित कर चुके थे। इनमें से बहुतों की नौकरी चली गई। व्यापार बंद हो गया। उनके सामने रोजी रोटी की मुसीबत खड़ी हो गई। 20 साल के मुकदमे के बाद शनिवार को इन सभी 127 लोगों को सूरत की एक अदालत ने बाइज्जत बरी किया है। अदालत ने कहा कि इनमें से कोई भी सिमी का सदस्य नहीं था। किसी के भी खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला है। इन पर मुकदमा चलाने की जो इजाजत दी गई थी वो भी वैध नहीं थी।

ये रिहाई तब हुई है जब इनमें से कई लोग मर गए जिन्हें कभी न्याय नहीं मिलेगा। क्या जिसे हम बाइज्जत बरी होना कहते हैं, वह सच में बाइज्जत बरी होना है? 20 साल लंबे मुकदमे में इन सभी लोगों को बेशुमार पैसा खर्च करना पड़ा। उनकी जिंदगी बेकार हो गई। इसकी भरपाई कैसे होगी? उत्तर प्रदेश में रिहाई मंच ने पिछले सालों में ऐसे कई दर्जन युवकों को बरी कराया है जो आतंकवाद के झूठे मुकदमों में फंसाये गए थे। इस केस के सरकारी वकील जगपुरुष सिंह राजपूत 2012 में बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़कर विधायक बन गए। 127 लोगों की जिंदगी बर्बाद होने की कीमत पर कई लोगों को राजनीतिक लाभ हुआ। जब कहा जाता है कि आतंकवाद एक ग्लोबल पॉलिटिकल बिजनेस है तो भावुक लोग बुरा मान जाते हैं।

इन्हीं 127 लोगों में टॉपर स्टुडेन्ट आसिफ शेख भी थे। इस केस के कारण आसिफ को कभी मीडिया में नौकरी नहीं मिल सकी। आसिफ ने कभी कॉल सेंटर में काम किया, कभी लाउड स्पीकर बेचा, कभी कपड़े की दुकान खोली। ये सभी काम सफल नहीं हुए। आसिफ अब 13 सालों से मिर्ची बेच रहे हैं। आसिफ कहते हैं कि मेरे ऊपर टैग लग गया था, इसलिए किसी मीडिया हाउस ने मुझे नौकरी दी। मेरे दोस्त आज मशहूर पत्रकार हैं। मैं आज मिर्ची बेच रहा हूं। मेरी शादी भी 38 साल की उम्र में हुई, क्योंकि मुझे कोई अपनी लड़की व्याहने को तैयार नहीं था।

इस केस में आसिफ जैसे कई लोगों की जिंदगी 2001 में ही ठहर गई। ठीक वैसे ही, जैसे यूपी के विष्णु तिवारी को 20 साल झूठे केस में फंसाया गया और उनका पूरा परिवार बर्बाद हो गया। इस सिस्टम में किसी को झूठे केस में फंसाकर उसकी जिंदगी खराब कर देना इतना आसान क्यों है?

(लेखक युवा पत्रकार एंव कथाकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)