नुसरत फतेह अली ख़ान: वह इंसान कम आवाज ज्यादा था, बाज लम्हों में वह फकत एक आवाज रह जाता था

अशोक पांडे

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बुझ जाने के तुरंत बाद काली पड़ गयी मोमबत्ती की नोंक से निकलते धुएं की बारीक सफ़ेद-सलेटी लकीरों का मुलायम ढीला धागा हौले-हौले कुछ तलाश करता हुआ सा खिड़की के बाहर जाकर हवा में घुल कर किसी विराट का हिस्सा बन जाता है. नुसरत की आवाज में शहद के नफीस रेशों से बटे महीन धुएं के जादुई धागे थे.

इन धागों के पीछे जाने पर तय था कि पीढ़ियों पुराने अपने किसी बेशकीमती पुरखे से आपकी मुलाक़ात हो जानी थी, सृष्टि की शुरुआत में रचे गए पहले गीतों के बोल आपको रट जाने थे, कुदरत ने अपना लिबास उतार कर अपना सबसे आदिम रक़्स आपके वास्ते करना था.

एक तेज़ रफ़्तार सुनहरी हिरन ने आपको हकबकाते हुए बगल से गुजर कर एक नीले-फीरोजी झुरमुटे में गुम जाना था. एक शगुफ़्ता, सफ़ेद तितली ने आपके कंधे पर बैठे-बैठे अपनी सारी उम्र बिता देनी थी. इतनी ज्यादा नफासत थी उन रेशों में. इतनी ज्यादा रूह! वह आवाज खुद को तलाशती फकत एक बेचैन तलाश थी – उतनी पायेदार, मजबूत और मुलायम रूह फिर किसी आवाज को नहीं मिली. न वैसी बेचैनी.

वह आवाज बताती थी कि फकत महसूस हो सकने वाले अथाह संसार को खोजने, स्पर्श करने और उसकी गति को थाम सकने के हौसले भर पर जिन्दगी निसार कर देने वाले पुर्तगाली जहाजियों और अरबी घुड़सवारों के सारे किस्से सच्चे थे.

नुसरत फ़तेह अली ने आवाज के उन मुलायम झीने रेशों को सारी उमर बटा और इतनी मोटी-मोटी रस्सियाँ बनाईं कि उन पर सवार होकर सात के सात आसमानों की पार जाया जा सकता था.

जिंदा होते तो आज अपनी बहत्तरवीं सालगिरह मना रहे होते उस्ताद.