पलश सुरजान का लेख: इतने बरसों में सनातन धर्म पर कोई ख़तरा नहीं आया, लेकिन भाजपा की सत्ता आते ही!

भारत में अगले आम चुनाव 2024 में होने हैं, और उसके पहले हिंदुत्ववादी ताकतें शायद अपना वज़न परख रही हैं कि चुनाव आते-आते वोटों के ध्रुवीकरण के लिए उन्हें कितना ज़ोर दिखाना है या कितना शांत रहना है। यह महज संयोग नहीं हो सकता कि उत्तरप्रदेश चुनाव जीतते ही एकदम से ज्ञानवापी का मसला सुर्खियों में आया और देखते-देखते बड़े विवाद का कारण बन गया। मस्जिद के भीतर शिवलिंग और फव्वारे पर देशव्यापी बहस छिड़ गई। यूक्रेन युद्ध पर टीवी चैनलों की बहसों और शीर्षकों से मीडिया की समझ और गुणवत्ता पर सवाल उठने लगे थे, तो सरकार ने विवादित शीर्षकों से बचने की नसीहत चैनलों को दी थी। लेकिन यह नसीहत शायद हिंदू-मुस्लिम विवाद खड़े करने वाले विषयों पर लागू नहीं होती। लिहाजा टीवी चैनलों में धड़ल्ले से सांप्रदायिक नफरत से भरी बहसें और चर्चाएं प्रसारित होती रहीं।

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ऐसी ही एक चर्चा में भाजपा की प्रवक्ता रहीं नुपूर शर्मा ने एक ऐसी बात कह दी, जिसने देश को वाकई नफरत की आग में झोंक दिया। या यूं भी कह सकते हैं कि जो शोले पिछले आठ सालों से धीमे-धीमे भड़काए जा रहे थे और जरूरत के मुताबिक उनकी आंच तेज या धीमी की जाती रही, उसे नुपूर शर्मा ने एक बार में तेजी से भड़का दिया। अगर यह वक्त चुनावों का होता तो शायद भाजपा को इस आग में राजनीतिक रोटी सेंकने मिल जाती। मगर अब इस आग की तपिश भाजपा को ही झुलसा रही है। देश के साथ-साथ विदेशों में भी भारत की हिंदुत्ववादी शक्तियों के खिलाफ नाराज़गी जताई जा रही है, जो अब विदेशों में रह रहे भारतीयों, उनकी रोजी-रोटी और भारत के आर्थिक हितों तक पहुंच गई है।

भारत से नाराज़गी जताने वाले देश दुनिया की महाशक्तियां नहीं हैं, उनमें से बहुतों को धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जैसे मूल्यों पर आस्था भी नहीं है, जबकि भारत में पिछले 70 सालों तक इन मूल्यों को सरकारों ने बढ़ाने और बचाने का काम किया गया। सरकार चाहे कांग्रेसी रही हो या गैरकांग्रेसी, संविधान में दर्ज मूल्यों को मिटाने की कोशिश नहीं हुई और इसी खासियत की वजह से तेल और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न ये देश भारत का एहतराम करते रहे। मगर अब ये बात भी मुमकिन हो गई है कि इन देशों ने भारत की आलोचना की, जिसका जवाब देने के लिए भारत के पास कोई सही तर्क नहीं है। मज़हबी नफ़रत या सांप्रदायिक विवाद खड़े करने की कुचेष्टाओं को आखिर किस तरह तर्कसंगत ठहराया जा सकता है।

भाजपा के प्रवक्ता और उसके समर्थक अक्सर धर्मनिरपेक्षता की बात करने वालों को चीख-चिल्ला कर चुप कराने की कोशिशें करते हैं, सनातन धर्म को बचाने की दुहाइयां देते हैं। इतने बरसों में सनातन धर्म पर कोई ख़तरा नहीं आया, लेकिन भाजपा की सत्ता का सवाल उठा तो धर्म पर ख़तरा नजर आने लगा। सत्ता हाथ में आ गई, तब भी धर्म पर ख़तरे का डर दिखाया जाता रहा। हिंदुत्व पर छाए इस आभासी डर को गोदी मीडिया के मार्फ़त खूब चमकाया गया। कुछ चैनल बिल्कुल समर्पित भाव से हिंदुत्व की रक्षा के लिए विधर्मियों पर प्रहार करते रहे, कुछ ने उदारता का मुखौटा ओढ़कर इन विवादित मुद्दों पर चर्चा कराई, कई चैनल प्रकारांतर से सरकार की ऐसी छवि बनाने में लगे रहे कि ये जब तक हैं, तभी तक हिंदुस्तान का भला है, उसके बाद तो देश का मिटना तय है। जैसे पिंजरे में बंद तोते को बार-बार बोलकर बातें रटाई जाती हैं, वैसा ही हाल धर्मभीरू भारतीय जनता का कर दिया गया। जो कसर बाकी रह गई होगी, उसे टीवी धारावाहिकों और फिल्मों ने पूरा कर दिया।

दूसरी तरफ भारतीय संस्कृति, मूल्य, परंपराओं और विचारों का नए सिरे से इतिहास लेखन शुरु हो गया। पाठ्यक्रम में भी उसी हिसाब से बदलाव हुए कि बच्चे कहीं तर्क करना न सीख जाएं। क्योंकि तर्क करेंगे तो फिर सच की पड़ताल करना चाहेंगे और अभी तो ऐसे भारत का निर्माण करने की कोशिश हो रही है, जिसमें सच की तलाश न हो, बस सिर झुकाकर जो कहा जाए, उसे मान लिया जाए। नुपूर शर्मा जैसे लोग तर्कों के नाम पर जिन कुतर्कों को बुलंद आवाज़ में दोहराते रहे, उसे न्यूज़ चैनलों ने पूरे देश में फैलाने काम किया। अब इसका असर नजर आने लगा है। पूरे देश में विभाजन की लकीर महसूस की जा सकती है और इस लकीर को मिटाने में कितना वक़्त लगेगा, कोई नहीं जानता। क्योंकि अभी यही नहीं पता कि देश में कितने लोग ऐसे हैं जो विभाजन की लकीर को मिटाना चाहते हैं। जो समाज को बांटने में यकीन रखते हैं उनमें से कई लोग अब खुलकर अपनी मंशा जाहिर करने लगे हैं, उन्हें अब किसी पर्दादारी की जरूरत नहीं, क्योंकि उन्हें समर्थन और संरक्षण सीधे सत्ता से मिलता है। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो बंटवारे की अपनी ख़्वाहिश को खुलकर नहीं प्रकट कर रहे, लेकिन अपने पेशे और समाज में अपने प्रभाव के जरिए इस चाहत को पूरा करने में लगे हैं।

आठ साल पहले के भारत में पत्रकारिता, मनोरंजन, खेल, कला, उद्योग-व्यापार, प्रशासन, शिक्षण ऐसे विभिन्न पेशों में विभाजन की लकीर इतनी गहरी और स्पष्ट नहीं थी, जितनी अब है। इस लकीर के कारण नफ़रत फैलाने वालों को अपना काम करने में आसानी हो रही है। लेकिन यही आसानी देश के लिए मुश्किल बन चुकी है। विदेशों में भारत की थू-थू हुई तो भाजपा ने अपने प्रवक्ताओं पर कार्रवाई की। दिल्ली पुलिस ने भी अब दो एफ़आईआर दर्ज की हैं। इनमें विवादित टिप्पणी करने वाली नूपुर शर्मा, नवीन कुमार जिंदल, हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी, पत्रकार सबा नक़वी और कुछ सोशल मीडिया यूजर्स का नाम शामिल किया गया है। पुलिस का कहना है कि इनके द्वारा की गई सोशल मीडिया पोस्ट के कारण दो समुदायों के बीच मतभेद बढ़ सकते हैं और धार्मिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। इधर एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने भी बुधवार को कुछ न्यूज़ चैनलों के गैरजिम्मेदार बर्ताव की कड़ी आलोचना की। जिन्होंने जानबूझकर ऐसे हालात पैदा किए, जिनकी वजह से अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाया गया।

कार्रवाई और निंदा के ये कदम आठ सालों में बार-बार उठाए जाते रहते तो शायद किसी को कुछ सबक भी मिलता। लेकिन अभी तो ऐसा लग रहा है कि आग लगाने के बाद कुआं खोदने का दिखावा हो रहा है। अल्पसंख्यक पहली बार निशाने पर नहीं आए हैं, या सोशल मीडिया का गलत इस्तेमाल पहली बार नहीं हुआ है। लेकिन पहले इस ओर चुप्पी और अनदेखी की गई और अब असहमति जतलाई जा रही है। लेकिन इस बार शायद देर से आना दुरुस्त आना न हो।

(लेखक देशबन्धु अख़बार के संपादक हैं)