इरफान इंजीनियर का लेख: महात्मा गांधी ने एक बार कहा था, “सत्य ही ईश्वर है”।

सत्य शब्द का प्रयोग कई अर्थों में किया जाता है। एक अर्थ में वह एक दार्शनिक कथन या सिद्धांत हो सकता है, जो ज्ञान की हमारी खोज की उपज हो। हमें ज्ञान कैसे मिलता है? हमें ज्ञान हमारे जीवन के अनुभवों और घटनाओं से मिल सकता है, किसी परिघटना के अध्ययन से मिल सकता है, ध्यान अथवा शोध से मिल सकता है या कई मामलों में ज्ञान ईश्वर द्वारा उद्घाटित हो सकता है।

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जब गांधीजी ने कहा था कि सत्य ही ईश्वर है तब वे दार्शनिक संदर्भ में बात कर रहे थे। ईश्वर को जानने, उसकी झलक पाने के लिए हमें ज्ञान की खोज करनी होती है। ज्ञान की खोज से आशय है नए क्षेत्रों की पड़ताल करना, प्रकृति के नियमों को समझना, सार्वभौमिक सिद्धांतों की तलाश करना और विद्यमान विचारों पर प्रश्न उठाना। ज्ञान की खोज, विद्यमान विचारों और उन्हें लागू करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं को स्वीकार करने और उनके आगे नतमस्तक होने के ठीक उलट है। ईश्वर को सत्य के रूप में स्वीकार करने में शामिल हैं ज्ञान के महत्व और विद्यमान विचारों और संस्थाओं के खिलाफ विद्रोह की स्वीकृति और नए सत्यों और उच्चतर सत्यों की तलाश।

अनेक दार्शनिक और धार्मिक धाराएं सत्य को इसी रूप में देखती हैं। उदाहरण के लिए हम इस वैदिक सिद्धांत को ले सकते हैं कि ‘एकम सत विप्रा बहुधा वदन्ति’ अर्थात सत्य एक है, जिसे बुद्धिमान विभिन्न नामों से बुलाते हैं। इस अर्थ में सत्य, झूठ का विरूद्धार्थी नहीं है बल्कि वह असत्य, अज्ञानता, पूर्वाग्रहों और ऐसे निष्कर्षों का विरूद्धार्थी है जिनपर हम बिना पर्याप्त अनुसंधान या सोचविचार के पहुंच गए हों। दूसरे शब्दों में सत्य, मिथ्या ज्ञान का विरूद्धार्थी है।

सत्य का एक और अर्थ होता है तथ्यात्मक या सही, अर्थात वह जो झूठ न हो। इस अर्थ में सत्य, झूठ का विरूद्धार्थी होता है। हम झूठ कब बोल रहे होते हैं? हम झूठ तब बोल रहे होते हैं जब हम जानबूझकर कोई असत्य या झूठा कथन या दावा करते हैं जिसके पीछे हमारा लक्ष्य किसी को गलत सूचना देना या किसी ऐसी वस्तु को पाना हो सकता है जिसके हम पात्र नहीं हैं या जिसे प्राप्त कर हम किसी दूसरे के साथ अन्याय करेंगे। कभी-कभी हम किसी असुविधाजनक स्थिति से बचने के लिए भी झूठ बोलते हैं।

परंतु इसके साथ ही कई ऐसे झूठ भी होते हैं जिन्हें हम अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं बल्कि किसी उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बोलते हैं और उससे किसी का कोई नुकसान नहीं होता। इस तरह के झूठ का एक उदाहरण है मृत्युशैया पर पड़े किसी मरीज को यह (झूठी) आशा दिलवाना की वह ठीक हो जाएगा। कब जब हम किसी का जीवन बचाने के लिए ऐसा झूठ बोलते हैं जिससे किसी की हानि नहीं होती। जैसे, दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल आईसीयू में भर्ती किसी व्यक्ति से यह बोलना कि उसके साथ उसी वाहन में बैठा उसका कोई रिश्तेदार या प्रिय व्यक्ति जीवित है भले ही उसकी मृत्यु हो चुकी हो। इस तरह के झूठ का एक अन्य उदाहरण हो सकता है स्वाधीनता संग्राम के दौरान पुलिस को किसी क्रांतिकारी के किसी स्थान पर होने या न होने के बारे में झूठ बोलना।

हम सभी साधारण मनुष्य कभी न कभी अपने लाभ के लिए झूठ बोलते हैं। ऐसे झूठ से किसी अन्य व्यक्ति का कोई नुकसान नहीं होता। जैसे, किसी बच्चे का यह झूठ बोलना कि उसने मिठाई या चाकलेट नहीं चुराई है। बड़े होने पर मिठाई और चाकलेट का स्थान सिगरेट और शराब ले लेते हैं। बच्चे के माता-पिता या बड़ों के प्रियजन उन्हें क्रमशः ज्यादा मिठाई न खाने या ज्यादा शराब न पीने के लिए क्यों मना करते हैं? क्योंकि वे चाहते हैं कि संबंधित बच्चे या वयस्क का स्वास्थ्य ठीक रहे। यह स्पष्ट है कि मिठाई या शराब के बारे में झूठ बोलने से किसी अन्य व्यक्ति का कोई नुकसान नहीं होता। परंतु कई झूठ ऐसे भी होते हैं जो स्वयं (या अपने परिवार, समूह या समुदाय) को लाभ पहुंचाने के लिए बोले जाते हैं और इससे अन्य व्यक्तियों (या अन्य परिवारों, समूहों या समुदायों) को हानि होती है। इस तरह के झूठ से पात्र व्यक्तियों को वह संपत्ति, उत्तराधिकार, आर्थिक संसाधन, रोजगार, नौकरी, कल्याण योजनाओं के लाभ, राजनैतिक या अन्य पदों पर प्रतिनिधित्व या देश के संसाधनों में उचित हिस्सा, जो उनका हक है, नहीं मिल पाते। इस तरह के झूठ अवांछनीय होते हैं और उन्हें बोलना एक तरह की हिंसा है, यद्यपि उससे किसी को शारीरिक हानि नहीं होती। उदाहरण के लिए कमजोर वर्गों जैसे दलितों, महिलाओं, आदिवासियों व नस्लीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के बारे में झूठी बातें फैलाना। जब कोई व्यक्ति यह कहता है कि महिलाएं शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कमजोर होती हैं या उन्हें ईश्वर ने बच्चे पैदा करने, अपना परिवार संभालने और खाना पकाने के लिए बनाया है तो वह झूठ बोल रहा होता है। इस झूठ से महिलाएं घर में कैद हो जाती हैं और शिक्षा और रोजगार पाने व खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के अपने अधिकार से वंचित हो जाती हैं। इसी तरह यह झूठ कि दलित मेधावी नहीं होते और उन्हें शारीरिक श्रम वाले काम ही करने चाहिए, दलितों को शिक्षा और सम्मानजनक वैतनिक नौकरियों से वंचित करता है। आदिवासियों और धार्मिक, भाषायी और नस्लीय अल्पसंख्यकों के बारे में भी इसी तरह के झूठ दक्षिणपंथियों की छोटी परंतु अत्यंत संगठित व साधनसंपन्न मंडलियों द्वारा लगातार प्रसारित किए जाते हैं। इस तरह के झूठ फैलाने वालों की भी दो श्रेणियां हैं। एक श्रेणी में वे लोग हैं जो सचमुच मानते हैं कि महिलाएं, दलित, आदिवासी या अल्पसंख्यक वैसे ही हैं जैसा उन्हें बताया जाता है। दूसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो इस तरह की बातें यह जानते हुए फैलाते हैं कि वे झूठ हैं।

कुछ लोग ऐसी राजनैतिक विचारधाराओं में यकीन रखते हैं जो आबादी के किसी तबके को जाति, नस्ल, भाषा या राष्ट्र के आधार पर अन्यों से श्रेष्ठ या ऊँचा मानती हैं। इस श्रेष्ठता को समाज पर लादने के लिए वे हर तरह के झूठ का सहारा लेती हैं। हिटलर का प्रचार मंत्री गोएबेल्स यह मानता था कि अगर किसी झूठ को बार-बार दुहराया जाए और सत्ता पर नियंत्रण रखने वाले उसे फैलाएं तो वह लोगों को सच लगने लगता है। जैसे जर्मनी में यहूदियों का दानवीकरण किया गया और वहां जो कुछ भी गलत या बुरा था उसके लिए यहूदियों को दोषी ठहराया जाने लगा। नाजियों ने यह प्रचार शुरू कर दिया कि यहूदी, जर्मनी के खिलाफ युद्ध कर रहे हैं और देश को तबाह कर देना चाहते हैं। यह तब जबकि 1933 में यहूदी, जर्मनी की कुल आबादी का 1 प्रतिशत से भी कम थे। प्रचार की एक तकनीक होती है जिसे ‘बिग लाई’ (बड़ा झूठ) कहा जाता है। इसके अंतर्गत बिना किसी हिचकिचाहट के तथ्यों को इतने बड़े पैमाने पर तोड़ा-मरोड़ा जाता है कि कोई यह विश्वास ही नहीं कर पाता कि इतना बड़ा झूठ बोला जा सकता है। अर्थात, बिना डरे इतना बड़ा झूठ बोल दिया जाए कि लोगों को वह इसलिए सच लगे क्योंकि इतना बड़ा झूठ कोई बोल ही नहीं सकता। हिटलर के एक ‘बिग लाई’ का उदाहरण यह था कि प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार नहीं हुई थी बल्कि उसके साथ एक आंतरिक समूह (यहूदियों) ने विश्वासघात किया था और इसलिए जर्मनी को आत्मरक्षा के लिए यहूदियों का अस्तित्व मिटा देने का अधिकार है। यह झूठ इतना बड़ा था कि किसी ने उसका कोई प्रमाण ही नहीं मांगा।

हिटलर का मानना था कि लोगों पर (झूठे) प्रचार की अनवरत बौछार की जानी चाहिए। यह सिलसिला एक क्षण के लिए भी रूकना नहीं चाहिए – अपनी गलती या भूल कभी स्वीकार न करो, कभी यह स्वीकार न करो कि आपके शत्रु में कुछ भी अच्छा हो सकता है, कभी कोई विकल्प सामने न रखो, एक समय में एक शत्रु को निशाना बनाओ और जो कुछ भी गलत हुआ है उसका सारा दोष उस पर मढ़ दो, लोग छोटे झूठ की अपेक्षा बड़े झूठ पर आसानी से विश्वास कर लेते हैं, अगर झूठ को बार-बार लगातार दुहराया जाता रहे तो लोग अंततः उसे सच मानने लगते हैं। यहूदियों के बारे में झूठ फैलाने के लिए रेडियो का उपयोग किया गया। गोएबेल्स का यह मानना था कि सत्य झूठ का कट्टर शत्रु है और इसलिए उसे हर कीमत पर दबाया जाना चाहिए। और हर प्रकार की असहमति को पूरी तरह से कुचल दिया जाना चाहिए।

इसी तरह का बिग लाई डोनाल्ड ट्रंप ने हाल में बोला था जब उन्होंने यह दावा किया कि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में वे विजयी हुए हैं। उनके वफादार समर्थकों ने उनके इस झूठ पर विश्वास भी कर लिया और वोटों की गिनती की प्रक्रिया को रोकने लिए केपीटोल हिल पर हमला भी बोल दिया। परंतु वे अमरीका के अधिकांश नागरिकां को यह विश्वास नहीं दिला पाए कि चुनाव में दरअसल वे जीते हैं क्योंकि इस बारे में अंतिम फैसला अदालतों को करना था और अदालतों को सुबूत चाहिए होते हैं। ट्रंप का जुआं यह था कि जीत के उनके दावे के बाद अमरीकी सेना का एक हिस्सा राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों को स्वीकार करने से इंकार कर देगा और वे राष्ट्रपति बने रहेंगे।

कहने की आवश्यकता नहीं कि मिठाई खाने या शराब पीने के बारे में झूठ, इस तरह के झूठों की तुलना में कुछ भी नहीं होते। जो झूठ जितना बड़ा होता है वह लोगों के उतने ही बड़े तबके का उतना ही बड़ा नुकसान करता है। वह आबादी के किसी तबके को बर्बाद कर सकता है और यहां तक कि उसका अस्तित्व भी समाप्त कर सकता है। यदि हमारे पास झूठ के जरिए की गई हिंसा और नुकसान को मापने का कोई तरीका होता तो शायद हमें यह पता चलता कि युद्धों में उतनी हिंसा नहीं हुई है जितनी कि झूठ फैलाकर की गई है। झूठ एक शक्तिशाली हथियार है जिसका प्रयोग समाज के लक्षित तबके के दमन के लिए किया जाता है। लगातार नए-नए झूठ ईजाद किए जाते हैं और उनका धुआंधार प्रचार किया जाता है। यह तब तक चलता रहता है जब तक कि वर्चस्ववादी तबका, लक्षित समूह के खून का प्यासा नहीं हो जाता।

भारत की स्थिति

ऐसा कहा जाता है कि इंटरनेट ने सूचना के क्षेत्र में एक क्रांति ला दी है और अब हर तरह की जानकारियां सर्वसुलभ हैं। इसका अर्थ यह है कि आज के भारत में किसी के लिए झूठ का किला बनाना संभव नहीं है। परंतु क्या सचमुच ऐसा है? क्या हम आज भी झूठ की एक दुनिया में नहीं रह रहे हैं? आज जिस तरह का प्रचार किया जा रहा है यदि हम उसे स्वीकार कर लें तो हम यह मान लेंगे किः हिन्दू अनादि काल से एक राष्ट्र (सभ्यता नहीं) रहे हैं; हिन्दुओं ने आज से 5000 साल पहले हवाई जहाज, प्लास्टिक सर्जरी व परमाणु अस्त्रों सहित वे सभी चीजें खोज और बना लीं थीं जिन्हें आधुनिक विज्ञान ने पिछले दो सौ वर्षों में खोजा या बनाया है; रामायण और महाभारत हमें सही रास्ता दिखाने वाले महाकाव्य नहीं हैं बल्कि वे हमारा इतिहास हैं और उनमें वर्णित घटनाक्रम सचमुच हुआ था। कोई आपको यह नहीं बताएगा कि इतने कि उन्नत व शक्तिशाली हथियार होते हुए भी हमें अंग्रेजों सहित सभी आक्रांताओं की सेनाओं के सामने घुटने क्यों टेकने पड़े?

झूठ का जो जाल बुना गया है उसे यदि हम सत्य मान लें तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं की संस्कृति को समाप्त करने के हर संभव प्रयास किए – उनके मंदिर तोड़े, उनके साहित्य को नष्ट किया और जोरजबरदस्ती से हिन्दुओं को मुसलमान बनाया। बस, आप यह न पूछिएगा कि एक हजार साल के अपने शासनकाल में मुस्लिम शासक देश की आबादी के इतने छोटे से हिस्से को ही मुसलमान क्यों बना पाए? उन्होंने देश के शत-प्रतिशत नहीं तो कम से कम 90- 95 प्रतिशत हिन्दुओं को मुसलमान क्यों नहीं बना लिया? आपको यह भी मानना होगा कि हिन्दुओं की जाति प्रथा के लिए भी मुसलमान ही जिम्मेदार हैं। कहने की जरूरत नहीं कि हर मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर उसके ऊपर बनाई गई है। जहां तक आज के मुसलमानों का सवाल है, वे आतंकवादी और विघटनकारी हैं, गायों को काटते हैं और लव, कोरोना आदि अनेक प्रकार के जिहाद करने में जुटे हुए हैं। कुल मिलाकर भारत की सारी समस्याओं के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं।

सुदर्शन टीवी ने कई एपीसोड वाली एक श्रृंखला तैयार की थी जो ‘यूपीएससी जिहाद’ पर केन्द्रित थी। इसमें यह बताया गया था कि किस प्रकार मुसलमान, अनैतिक तरीकों से यूपीएससी की परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर अखिल भारतीय व केन्द्रीय सेवाओं में नियुक्ति पा रहे हैं। कोरोना जिहाद एक नायाब खोज थी। जो लोग तब तक भी मुस्लिम विरोधी प्रचार से प्रभावित नहीं हुए थे वे भी यह मानने लगे कि देश में मुसलमानों के कारण कोविड-19 फैला। किसी ने यह नहीं पूछा कि भारत सरकार ने 24 मार्च, 2020 तक विदेशियों को बेरोकटोक भारत क्यों आने दिया और अगर आने भी दिया तो उन्हें क्वोरेंटाइन में क्यों नहीं रखा गया। विपक्षी नेताओं की चेतावनी के बावजूद सरकार ने बड़ी सभाओं पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया। दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज में तीन हजार लोगों के इकट्ठा होने को कोरोना के फैलने का कारण बताया गया। परंतु डोनाल्ड ट्रंप के स्वागत के लिए एक लाख से अधिक लोगों के एकत्रित होने की कोई चर्चा नहीं की गई। कोरोना की दूसरी लहर के ठीक पहले प्रधानमंत्री ने यह दावा किया कि भारत ने कोरोना पर विजय प्राप्त कर ली है। इसके बावजूद आक्सीजन और अस्पतालों में बिस्तरों की कमी से जूझते हुए लाखों लोगों ने अपनी जान गंवाई। बिग लाई रणनीति के प्रयोग के इस तरह के अनेक अन्य उदाहरण भी हैं। अब रेडियो की बजाए सोशल मीडिया और नकली वीडियो का इस्तेमाल किया जा रहा है और इसके लिए बकायदा आईटी सेल बने हुए हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि जर्मनी में यहूदियों ने घोर कष्ट झेले। परंतु क्या गैर-यहूदी पूरी तरह से अप्रभावित रहे? आज भारत में बिग लाई के जरिए मुसलमानों और ईसाईयों को निशाना बनाया जा रहा है। परंतु क्या गैर-मुसलमान और गैर-ईसाई इससे पूरी तरह अप्रभावित हैं?

आईए, हम अपने आपको सशक्त करने का प्रयास करें। हमें दी जा रही जानकारियों को जांचें, तौलें और तार्किकता की कसौटी पर कसें। हम अपनी आंखें और कान खुले रखें। हम अपने विवेक का प्रयोग करें और अपने दिमाग की खिड़कियां और दरवाजे बंद न करें। जैसा कि गांधीजी ने कहा था सत्य ही ईश्वर है।

(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनूदित)