न्याय विरोधी मीडिया न्याय की आवाज़ का कितना बड़ा विरोधी है, जेल में बंद ये चेहरे उसका उदाहरण हैं

विक्रम सिंह चौहान

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इन चुनावों में मुसलमान कहाँ हैं? इन चुनावों में मुसलमानों के मुद्दे क्या हैं? इन चुनावों में मुसलमानों की आवाज़ कौनसी पार्टी उठा रही है? इन चुनावों से मुसलमानों को क्या मिलेगा? जवाब है शून्य, जीरो,सिफर! हाल ही में सीएए विरोधी आंदोलन का चेहरा रहे शरजील इमाम पर अदालत ने राजद्रोह के आरोप तय कर दिए  हैं। जेएनयू के छात्र शरजील इमाम को जेल गए 28 जनवरी को पूरे दो साल हो जाएंगे। कैसे मीडिया और तंत्र मिलकर एक मुस्लिम युवा को आतंकी बनाती है, शरजील इसका बड़ा उदहारण है। शरजील पर कथित आरोप है कि उन्होंने उत्तर पूर्व के लोगों के साथ न्याय के लिए उसे भारत से अलग रास्ता देखने की बात कही थी। यह बात उन्होंने एनआरसी और सीएए के लिए दबाव बनाने के संदर्भ में कही थी। लेकिन मीडिया ने और सरकारी तंत्र ने इस पर इतना मिर्च मसाला लगाया कि आईआईटी पोवई से कम्प्यूटर साइंस इंजीनियरिंग और अब जेएनयू से पीएचडी कर रहा युवक एक दिन में देशद्रोही बन गया।

शरजील इमाम पर आपराधिक साजिश, राष्ट्रद्रोह और धर्म के आधार पर समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के आरोप लगाए गए हैं। मीडिया को तो जैसे खजाना मिल गया। एक तो मुसलमान, जेएनयू से शिक्षित, दाढ़ी और चश्मा भी। बिल्कुल मीडिया के अपने बनाये आधुनिक आतंकवादी की प्रतीकात्मक छवि। मीडिया और इस सरकार ने एक युवक के अरमानों ,उनके परिवार की प्रतिष्ठा खून कर दिया। देश ने भी मान ही लिया मीडिया कह रही है तो सही ही कह रही होगी। पर क्या किसी ने भी शरजील को समझने की कोशिश की?  शरजील इमाम के बारे में उनके पड़ोस के लोग कहते हैं, “हम लोगों के लिए यह शॉक की बात है कि शरजील जैसे लड़के पर देशद्रोह का आरोप लगा है। आप काको के एक-एक आदमी से पूछ लीजिए। सब उसके बारे में पॉजिटिव ही बोलेंगे चाहे वह हिंदू हों या मुसलमान। पूरे प्रखंड में आईआईटी का इंजीनियर बनने वाला पहला लड़का था वो। ऑल इंडिया कंपटीशन में 208 रैंक मिला था। तो क्या ऐसा लड़का देशद्रोही हो सकता है? लेकिन लेकिन मीडिया ने उसे देशद्रोही ही नहीं कुख्यात आतंकवादी बना दिया।

अख़बारों ने लिखा ”दिल्ली पुलिस, अलीगढ़ पुलिस और बिहार पुलिस के ज्वाइंट ऑपरेशन में पकड़ा गया आतंकी” फलां फलां। 6 राज्यों की पुलिस शरजील के पीछे पड़ी थी।  बिहार, असम, उत्तर प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, दिल्ली और मणिपुर में उन पर मुकदमे दर्ज किए गए। उनकी कई गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। वे 28 जनवरी, 2020 से अलग-अलग जेलों में रह चुके हैं। शरजील के भाषणों को लेकर पुलिस की चार्जशीट काफी कमजोर है ,लेकिन जिस धर्म से वे आते हैं वह दलील अदालतों को उनकी रिहाई न करने के लिए काफी मजबूत है। आये दिन किसी न किसी हिन्दू नाम वाले का पाकिस्तान के आईएसआई से लिंक मिल जाता है ,लेकिन वह मीडिया और सरकार के लिए आतंकवादी नहीं होता। क्योंकि धर्म काफी मायने रखता है। हाल ही में प्रज्ञा ठाकुर का एक बयान आया है जो सड़क पर मज़ार को लेकर है,वह नफरती महिला कह रही हैं फुटपाथ पर हरा पोतकर चादर चढ़ा दिया तो मजार हो गया। कलक्टर द्वारा यह कहने पर कि मजार पहले से हैं फुटपाथ बाद में बनी है वह अपनी बात पर कायम रहती है। यह बयान बताता है कि धर्म विशेष को लेकर नफ़रत कितने अंदर तक है,लोगों के नहीं शासन करने वालों के दिल दिमाग में। अब शरजील सालों तक जेल में सड़ेगा और प्रज्ञा जैसे लोग नफ़रत फैलाते रहेंगे।

ख़ालिद सैफी का मामला

यूनाइटेड अगेंस्ट हेट संगठन चलाने वाले और सीएए का विरोध करने वाले खालिद सैफी को भी जेल में दो साल होने जा रहे हैं। उनके तार दिल्ली दंगे से जोड़ते हुए उमर खालिद के साथ उन्हें गिरफ्तार किया गया। खालिद को एक मामले में 2020 में ही जमानत मिल गई लेकिन यूएपीए में उन्हें जमानत नहीं मिली है। जिस दिन खालिद के जमानत पर सुनवाई होती है उस दिन जज साहब के पेट के मरोड़ हो जाती है,फिर एक महीने बाद की डेट मिलती है,उस दिन फिर जज साहब को दस्त हो जाता है,फिर अगली सुनवाई की डेट मिलती है उस दिन जज साहब बीमार हो जाते हैं,फिर अगली डेट मिलती है इस दिन जज साहब तो रहते हैं पर स्पेशल सेल के ऑफिसर को कोविड हो जाता है।ऐसा करते-करते एक साल में एक सुनवाई नहीं हो पाती है।

आपको लगता होगा यह सामान्य है,पर यह खेल है जो सिर्फ मुस्लिम धर्म के बेगुनाह आरोपियों पर खेला जा रहा है।जो जज ईमानदार लगता है उनको तुरंत सुनवाई से अलग कर ट्रांसफर कर दिया जाता है। सिर्फ शरजील और खालिद सैफी के साथ नहीं यह खेल मीरान हैदर,अतहर खान,उमर खालिद,शिफा उर रहमान,पत्रकार सिद्दीकी कप्पन,संजीव भट्ट,प्रोफेसर जीएन सांईबाबा, गौहर गिलानी, अब्दुल बारी नाइक, वरवरा राव, सुधीर धावले, रोना विल्सन, सुरेंद्र गडलिंग, शोभा सेन,महेश राउत,अरुण परेरा,वर्नोन गोंसाल्वेज,हनी बाबू,गौतम नवलखा,आनंद तेलतुंबड़े सभी के साथ खेला जा रहा है। बावजूद इसके इन चुनावों में बेगुनाह मुस्लिमों का और मोदी विरोधियों का जेल में सड़ना और यूएपीए कानून मुद्दा नहीं है।

राहुल गांधी ट्वीट करते हैं, त्रिपुरा मामले में आक्रमक रहें, पर जानते हैं उनकी अपनी पार्टी में मुस्लिम विरोधी संघियों की भरमार है। प्रियंका ने सीएए आंदोलन के चेहरों को टिकट दिया है पर उनकी पार्टी चार साल पीछे चल रही है। अखिलेश आज़म खान के साथ आखिरी में न्याय करते दिखें पर खुलकर मुस्लिमों के पक्ष में बोलने से ठिठकते रहे हैं। मुस्लिमों के नए रहनुमा बने ओवैसी यूएपीए या जेल में बंद इन लोगों पर एक शब्द ख़र्च नहीं करते। मुस्लिम- मुस्लिम जोर से चीखने से उनकी मदद नहीं हो जाती। इन मुस्लिमों के लिए कोई लड़ रहा है तो वह सोशल एक्टिविस्ट नदीम ख़ान, तमन्ना पंकज जैसी अधिवक्ता जो चुपचाप इनकी रिहाई के लिए हर दिन कोशिश करते हैं। या परिवार के वे गिनती के लोग या दोस्त जो पेशी के दिन कंधे पर हाथ रखकर खड़े होते हैं।

मुझे यह भी पता है शंभूलाल रैगर ने गरीब अफराज़ूल को जलाकर मारा तो वे गिनती के लोग कौन थे जिसने बंगाल में उस गरीब परिवार का मदद किया। इसलिए मेरी बात मान लो मुस्लिम अगर किसी हिन्दू प्रत्याशी को एक लाख वोटों से जिताकर भी भेजेगा तब भी वह बहुसंख्यक समुदाय के दबाव में आकर मुस्लिमों की हक़ की जायज़ बात भी नहीं करेगा।आप उनके लिए वोट बैंक थे,हैं और रहेंगे। चुनावी जनमत चमत्कार नहीं करता, चमत्कार करता है सड़क पर विरोध। इसलिए जो राह शरजील और खालिद जैसे योद्धाओं ने चुना है यह एक दिन बदलाव जरूर लाएगा। यूएपीए से लोहा ले रहें सभी योद्धाओं को सलाम।

(लेखक सोशल एक्टिविस्ट एंव टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)