एंगला मार्केल: जर्मनी की वह चांसलर जिसकी सादगी, व्यावहारिकता को मनुष्यता याद रखेगी!

विश्वदीपक

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अगर दुआएं कबूल होती हों मेरी दुआ यह होगी कि एंगला मार्केल जैसा नेता भारत को भी मिले. 16 साल तक जर्मनी जैसे संपन्न और ताकतवर देश की सत्ता करने के बाद मार्केल अब रिटायर हो रही हैं. चांसलर भले ही जर्मनी की थीं लेकिन नेतृत्व उन्होंने पूरे यूरोप का किया. चाहे ग्रीस का आर्थिक संकट हो, सीरिया की समस्या हो, माइग्रेंट पॉलिसी हो, ब्रेक्जिट हो – हर मोड़ पर मार्केल ने यूरोप का नेतृत्व किया.

उनका प्रभाव ऐसा था कि अब यूरोप और जर्मनी के इतिहास में यह कालखंड मार्केल युग के नाम से ही जाना जाएगा. दुआओं में मार्केल को अपना नेता मानने की वजह उनका लगातार सत्ता में बने रहना नहीं है बल्कि उनकी सादगी, व्यावहारिकता और बड़े मानवीय मूल्यों के हिसाब से नीति निर्धारण करने की क्षमता है.

एक बार उनसे पूछा गया कि आप अक्सर एक ही कपड़े में क्यों नज़र आती हैं. उनका जवाब था कि मैं सरकारी कर्मचारी हूं, मॉडल नहीं. इसी वजह से उन्हें Outfit Repeater की उपाधि दी गई थी. चांसलर बनने के बाद भी नौकर नहीं. सुपर मार्केट से समान लाना और पति के साथ मिलकर कपड़े धोना, घर का काम निपटाना भी उनकी दिनचर्या में शामिल होता था.

जाहिर है कि दुनिया का नेता बनने के लिए न गुफा में ध्यान लगाना पड़ता, न दाढ़ी बनानी पड़ती और न ही दिन भर में दस बार कपड़े बदलना पड़ता. दस लाख सूट भी किसी को बेहतर नेता नहीं बना सकता अगर उसकी नीति और नीयत ठीक न हो. सवाल तो बनता है. ऐसा क्यों है कि एक संपन्न देश का सबसे ताकतवर नेता अक्सर एक ही कपड़े में नज़र आता है जबकि एक गरीब देश का नेता दिन में दस बार कपड़े बदलते हैं?

समस्या एक पार्टी की नहीं, सभ्यता की है.

जब मुंबई में आतंकी हमला हुआ था तबके गृहमंत्री शिवराज पाटिल कोट बदल रहे थे. आखिरकार कोट उनकी कुर्सी खा गई. सुना था कि लिबरल संघी अरुण जेटली 25 हज़ार की चप्पल पहनते थे. मायावती, जयललिता को स्त्री होने की वजह से छूट देना अलग बात है वर्ना दोनों भारतीय राजनीति की सबसे खराब प्रवृत्तियों को ही पेश करती हैं.

वीएस नॉयपॉल ने भारत को “घायल सभ्यता” कहा था. भारत घायल ही नहीं, बेहद कुंठित सभ्यता भी है. समाजिक स्तर पर भाषा, पहनावे से लेकर चाय के चयन और वाइन, व्हिस्की के ब्रांड बताने तक से लेकर सोफा, कार दिखाने वाले हर कोने में मौजूद हैं. आजकल इसमें एपल भी जुड़ गया है. एपल का फोन, एपल की घड़ी, एपल का किंडल, एपल का ईयरफोन…कुछ दिन में बच्चा भी एपल का हो जाएगा. लोग कहेंगे – देखो, मेरा एपल का बच्चा!

ब्रांड को लेकर आम लोगों में जो पागलपन भारत या तीसरी दुनिया के देशों में हैं, पूरी दुनिया में शायद ही कहीं होगा. राजनीति में यह कुंठा और भयानक है. राहुल गांधी इस मामले में अलग हैं. मैं मानता हूं कि अगर वो जर्मनी में होते तो ज्यादा सफल होते. अगर मार्केल भारत में होती तो पूरी तरह से असफल साबित होतीं.

फिर भी दुआओं में तो मार्केल जैसा नेता तो मांगा ही जा सका है हिंदुस्तान के लिए. राजनीति में न आकर, अगर मार्केल विज्ञान में रहतीं तो भी उनती ही बड़ी वैज्ञानिक साबित होतीं. मनुष्यता मार्केल को याद रखेगी!

(लेखक जाने माने पत्रकार हैं)