कभी-कभार के अपवादों को छोड़कर भारत के सुप्रीमकोर्ट के अधिकांश निर्णायक फैसले वर्ण-जाति व्यवस्था, पितृसत्ता, जमींदारों-भूस्वामियों के हितों की रक्षा और पूंजीवाद के पक्ष में रहे हैं यानि सुप्रीकोर्ट अपरकॉस्ट, मर्दों, सामंतो-भूस्वामियों और पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करता रहा है। इन वर्चस्वशाली समूहों के विपरीत सुप्रीमकोर्ट ने भी तभी फैसले दिए, जब उसे जन दबाव का सामना करना पड़ा या इस बात की आशंका पैदा हुई कि उसके किसी फैसले से भारी जनाक्रोश पैदा हो सकता है, जो वर्चस्वशाली समुदायों के लिए खतरा बन सकता है।
2014 के बाद तो धीरे-धीरे सुप्रीमकोर्ट खुले तौर हिदू राष्ट्र निर्माण और कार्पोरेट हितों की रक्षा का सबसे बड़ा टूल ( उपकरण) बन गया। एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीमकोर्ट का फैसला, आरक्षण पर सुप्रीकोर्ट के फैसले, रामजन्मभूमि के पक्ष में सुप्रीकोर्ट का नंगापन, नागरिकता (संशोधन) कानून 2019, आर्थिक आधार पर आरक्षण (सवर्ण आरक्षण, 124 वां संविधान संशोधन 2019) और संविधान के अनुच्छेद 370 की समाप्ति पर सुप्रीकोर्ट का रूख इसके सबसे बड़े प्रमाण हैं।
धीरे-धीरे एक और काम सुप्रीकोर्ट करने लगा है, वह है, सरकार के जनविरोधी और राष्ट्र विरोधी निर्णयों और संविधान संसोधनों को वैध ठहराना। इसका बड़ा सबूत राफेल कांड पर सरकार के निर्णय पर मुहर, अमितशाह का केस देख रहे, जज लोया की मृत्यु पर फैसला, शाहीन बाग पर सुप्रीमकोर्ट की टिप्पणी, भीमा कोरेगांव षडयंत्र के नाम पर मनमानी गिरफ्तारियों और गिरफ्तार लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार उसका रवैया आदि हैं।
पिछले दिनों कई मामले आए, जिस पर सुप्रीकोर्ट ने सरकार की राह आसान की। अकारण नहीं है, किसानों के साथ आठवें दौर की बात-चीत में सरकार ने किसानों को सुप्रीमकोर्ट जाने के लिए कहा।
किसान आंदोलन के मुद्दे पर सतही रूप में सुप्रीमकोर्ट जितना भी सरकार के खिलाफ दिख रहा हो और किसानों के साथ हमदर्दी भरी टिप्पणियां कर रहा हो, लेकिन टिप्पणियों के बीच की पंक्तियां और सुप्रीमकोर्ट द्वारा बताए जा रहे, समाधान के उपाय इस बात के प्रमाण हैं कि सुप्रीमकोर्ट देश के इतिहास के सबसे बड़े जनांदोलन में से एक वर्तमान किसान आंदोलन को तोड़ने और तितर-बितर करने की सरकार की मंशा का एक उपकरण बनने जा रहा है, जिस किसान आंदोलन के निशाने पर कार्पोरेट और उनके हिंदू राष्ट्रवादी नुमांइंदे नरेंद्र मोदी हैं और जो किसान आंदोलन देश को नई दिशा देने की कूबत रखता है।
सुप्रीमकोर्ट और सरकार की मिलीभगत से तैयार इस मंशा को किसान आंदोलन के नेता बखूबी समझ रहे हैं, इसलिए उन्होंने साफ शब्दों में कह दिया है कि वे सरकार और किसानों के बीच सुप्रीमकोर्ट को मध्यस्थ के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। यही लोकतांत्रिक तरीका है, फैसला सीधे राजसत्ता और जनता के बीच के संवाद से लिया जाए। इसलिए किसानों का रूख पूर्णतया लोकतांत्रिक वसूलों- मूल्यों के अनुसार है।
इस जनांदोलन की हार देश के जनतंत्र और जनता के हितों के लिए एक और बहुत बड़ा धक्का होगी। यदि सुप्रीकोर्ट इसमें हस्तक्षेप जनहित में नहीं, सत्ता के दीर्घकालिक हित में कर रहा है, क्योंकि यह जनांदोलन सरकार को कानून वापस लेने के लिए वाध्य करने की क्षमता रखता है।
(लेखक फाॅरवर्ड प्रेस पत्रिका संपाद हैं, ये उनके निजी विचार हैं)