आमिर पीरज़ादा की यह रिपोर्ट केवल कश्मीर के लिए भी देख सकते हैं और इसे टीवी की पत्रकारिता में बचे कुछ अवशेष के रुप में भी देख सकते हैं। इस रिपोर्ट को देख कर पता चलता है कि इसके लिए विज़ुअल तैयार करने में कितनी मेहनत लगी होगी। जब से कैमरे की जगह मोबाइल और मोज़ो से शूटिंग होने लगी है, दृश्य का प्रभाव ख़त्म होने लगा है। विज़ुअल में कुछ दिखता तो है मगर कहानी नहीं होती है। इसलिए मैंने कहा कि यह रिपोर्ट अवशेष की तरह है। जैसे आख़िर में कुछ बचा रह गया हो।
मोबाइल फ़ोन के कैमरे ने टीवी पत्रकारिता से टीवी को ख़त्म कर दिया। बजट तो बचने लगा लेकिन बजट का बचना या बचाना आज तक जारी है। मुझे नहीं लगता कि इस बचे हुए बजट से रिपोर्टिंग का बजट बढ़ जाता होगा। ज़रूर मोबाइल फ़ोन से रिकार्ड करने के कुछ फ़ायदे हैं लेकिन इससे पत्रकारिता को ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ।कहानी को दृश्य का विस्तार नहीं मिला और एक माध्यम के तौर पर टीवी पहले से कहीं ज़्यादा सिकुड़ गया।
ठीक उसी तरह से जैसे डिबेट के नाम पर स्टार ऐंकर का सिस्टम आया और रिपोर्टर ख़त्म हो गए। अब रिपोर्टिंग ख़त्म हो रही है। मोबाइल के फ़्रेम से कुछ विज़ुअल तो मिल जाता है लेकिन बिना कैमरामैन के शूट किए गए इन विज़ुअल में कुछ होता नहीं है। एकाध बार तुक्का लग जाता है वो अलग बात है। इसे समझने के लिए आप मोबाइल फ़ोन से शूट की गई किसी रिपोर्ट और इस रिपोर्ट को देखिए। मुमकिन है कि इसे भी मोबाइल फ़ोन से शूट किया गया हो लेकिन इसे कैमरामैन ने शूट किया है और उसके होने का असर इस रिपोर्ट में दिखता है।
अगर आप हिन्दी सिनेमा के दर्शक के रुप में प्रशिक्षित हैं तो तुरंत आपकी नज़र दृश्यों की ख़ूबसूरती पर जाएगी। कुछ जगहों पर मुझे भी यही लगा जिसे मैं बहुत अच्छा नहीं मानता। सुंदर और भव्य दृश्यों को खड़ा करने से देखना अच्छा तो होता है लेकिन उसके भीतर से वह त्रासदी निकल जाती है जिसके कारण उसे फ़िल्माया गया होता है। इसलिए बहुत ध्यान से चुनाव करना पड़ता है जब आप कैमरे की मदद से अच्छा शॉट ले रहे होते हैं। ख़ूबसूरती कृत्रिम भी होती है और कई बार प्राकृतिक होकर कहानी के पार हो जाती है।पत्रकारिता के छात्रों से यही कहूँगा कि जब आप लोकेशन पर हों तो अपनी कहानी के रुपकों को सौंदर्य में न बदलें। सौदर्य का बोध कई बार किसी टकराव या त्रासदी को देखने के ख़ूबसूरत दृश्य तो देता है लेकिन उससे त्रासदी के दर्द को निकाल भी लेता है। जैसे बहुत सुंदर सी मूर्ति में कोई जान नहीं। तो आपको सुंदर होने और प्रासंगिक होने के फ़र्क़ को पहचानना है। बहुत सुंदर विज़ुअल किसी स्टोरी को बहुत ख़राब कर सकता है।
कश्मीर जैसी ख़ूबसूरत जगह में कैमरे को इससे बचाना बहुत मुश्किल काम है। फिर भी पीरज़ादा के कैमरा सहयोगियों ने कमाल का फन दिखाते हुए अपने स्टोरी के विज़ुअल को सौंदर्य की चमक से काफ़ी हद तक बचाया भी है। इस स्टोरी का हर फ़्रेम कश्मीर में सब कुछ अच्छा है के दावे को ध्वस्त करता है। इस रिपोर्ट को देखते हुए आप समझेंगे कि रिपोर्ट क्या होती है। रिपोर्ट का मतलब केवल यही नहीं होता कि चार लोगों को जमा कर बातें करने लगें। हम सबने यह किया है लेकिन अब समझ में आता है कि केवल वॉक्स पॉप काफ़ी नहीं होता है। चुनावी रिपोर्टिंग वाक्स पाप संग्रह में बदल कर वायरल तो हो जाती है लेकिन सरकार और विपक्ष को जवाबदेही की मेज़ पर नहीं ला पाती है। इसलिए लोगों की प्रतिक्रियाएँ और रिपोर्ट के बीच का फ़र्क़ पत्रकार और दर्शक दोनों को समझना होगा। वैसे ये काम मुश्किल है। लोग न्यूज़ को भी डिबेट बोलने लगे हैं।
संघर्ष और टकराव के क्षेत्रों से रिपोर्ट करना आसान नहीं होता है। बहुत सी बातें न कह पाने की सावधानी के बीच उन्हीं बातों को कहने का फन ही ऐसी रिपोर्ट को ज़्यादा वास्तविक बनाता है।कश्मीर के भीतर पनप रहे प्रतिरोध के गीतों के मुखड़ों से पता चल रहा है कि कश्मीर क्या गा रहा है। मेहनत से बनाई गई इस रिपोर्ट को ध्यान से देखिएगा।