पलाश सुरजन
रूस और यूक्रेन के बीच तनाव अब एक गंभीर मोड़ पर आ गया है। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने रूस की सुरक्षा परिषद की बैठक में अपनी घोषणा के कुछ ही घंटों के भीतर पूर्वी यूक्रेन के विद्रोही इलाकों दोनेत्सक और लुहान्स्क को अलग देश के रूप में मान्यता दे दी। पूर्वी यूक्रेन के इन दोनों क्षेत्रों में रूस ने अपनी सेना तैनात करने का आदेश दे दिया है। रूस के इस कदम से पश्चिमी देशों में बौखलाहट बढ़ गई है। अमेरिका, फ्रांस और जर्मनी ने इस पर नाराज़गी जताई और इस आदेश के बाद आनन-फानन में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक बुलाई गई। इस बीच अमेरिका ने अपने यूक्रेन दूतावास को पोलैंड स्थानांतरित कर दिया है।
अमेरिका पिछले कुछ वक़्त से लगातार ये डर दिखला रहा है कि रूस करीब 1,90,000 सैनिकों की विशालकाय सेना के साथ यूक्रेन पर हमला कर सकता है। अपने दावे की पुष्टि के लिए अमेरिका खुफिया एजेंसियों और सेटेलाइट तस्वीरों का सहारा ले रहा है, जिसमें यह नज़र आ रहा है कि रूस की सेनाएं यूक्रेन की सीमा पर मौजूद हैं। हालांकि रूस औऱ यूक्रेन के बीच इस ताजा तनाव की शुरुआत से ही रूस यूक्रेन पर हमला करने के तमाम दावों को खारिज कर रहा है। फिर भी दुनिया में इस संभावित तीसरे विश्वयुद्ध का भय खड़ा हो गया है।
अमेरिका ने तो अपने नागरिकों को पहले ही यूक्रेन से बाहर निकलने और वहां की यात्रा न करने की सलाह दी है। भारत भी अपने नागरिकों के लिए, खास तौर पर यूक्रेन में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों के लिए फ़िक्रमंद है। भारतीयों को वहां से सुरक्षित वापस लौटाने पर विमर्श हो रहा है। वैसे खबर ये भी है कि यूक्रेन की अधिकतर जनता ये नहीं मानती है कि आने वाले वक़्त में कोई युद्ध होगा।
दो विश्वयुद्धों की विभीषिका देख चुकी दुनिया के लिए यही अच्छा है कि अब कोई तीसरा विश्वयुद्ध न छिड़े। हालांकि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में आतंकवाद, गृहयुद्ध, अलगाववाद, उग्रवाद के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन और अब कोरोना महामारी जैसे संकटों के कारण जो तबाही मची हुई है, वह किसी युद्ध से कम नहीं है। रोज़ाना ही हजारों-लाखों आम लोगों की जिंदगियां इनकी वजह से तबाह हो रही हैं। और इन सबकी जड़ में पूंजीवाद ही नज़र आता है, जो आज की राजनीति की कड़वी सच्चाई बन चुका है।
इस पूंजीवाद के कारण ही हथियार विक्रेताओं के गिरोहों को दुनिया के किसी भी कोने में खुला खेल खेलने की आजादी मिली हुई है। अरबों के रक्षा सौदे राष्ट्र की रक्षा के नाम पर किए जाते हैं और इनकी आड़ में आम लोगों की जिंदगियों को दांव पर लगाया जाता है। इसलिए सभी देशों की संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान और सुरक्षा किया जाना चाहिए, ऐसे घिसे-पिटे जुमले कहने से विश्वशांति स्थापित नहीं हो सकती।
रूस और यूक्रेन के मामले में फिलहाल यही ज्ञान अमेरिका और उसके साथी दुनिया को देने में लगे हैं। जबकि सच्चाई यही है कि खुद अमेरिका ने दूसरे देशों की संप्रभुता और स्वतंत्रता के साथ बार-बार खिलवाड़ किया है। एशिया और अफ्रीका के कई देश अमेरिका के इस खेल में मोहरे की तरह इस्तेमाल हुए हैं। ताजा उदाहरण अफ़ग़ानिस्तान का है, जहां 20 सालों के बाद फिर से तालिबान का शासन हो चुका है।
यूक्रेन मामले में भी अमेरिका रूस पर लगातार धमकी भरे अंदाज में दबाव बना रहा है, क्योंकि वह जानता है कि अगर रूस अभी नहीं झुका तो दुनिया में उसके एकाधिकार को चुनौती मिलती रहेगी। दरअसल यूक्रेन को लेकर ब्लादिमीर पुतिन की अलग रणनीति है। इस बार पहली दफा रूस ने कहा है कि वह दोनबास को यूक्रेन का हिस्सा नहीं मानता है। इससे रूस के लिए यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में सेना भेजने का रास्ता खुल गया है। रूस यहां यह तर्क दे सकता है कि वह यूक्रेन से रक्षा के लिए एक सहयोगी के रूप में ‘अपने पड़ोसी देशों’ में सेना तैनात कर रहा है।
दरअसल यूक्रेन की सैन्य घेराबंदी के पीछे पुतिन के तीन मकसद हैं। पहला, रूस यूक्रेन में नाटो के विस्तार को रोकना चाहता है। दूसरा, वह अमेरिका के रूसी शासन को उखाड़ फेंकने और पश्चिमी-समर्थक लोकतंत्र की स्थापना के सपने को विफल करना चाहता है। अमेरिका लोकतंत्र स्थापना का यह खेल अरब क्रांति के वक़्त खेल चुका है। इससे पहले सोवियत संघ के विघटन में उसने कामयाबी हासिल कर ली थी। अब फिर से इस बात की सुगबुगाहट है कि बाइडन प्रशासन ने गुप्त रूप से इस बात पर चर्चा की है कि मॉस्को में सत्ता परिवर्तन ‘बेहतर’ भी है और संभव भी। इसलिए पुतिन अमेरिका की ऐसी किसी भी चाल को विफल करने में जुटे हैं।
ब्लादिमीर पुतिन का तीसरा उद्देश्य, यूरोप के साथ-साथ चीन के लिए ऊर्जा आपूर्तिकर्ता के रूप में अपनी सौदेबाजी की स्थिति को मजबूत करना है। रूस एक नई पाइपलाइन के माध्यम से चीन को अपने गैस शिपमेंट में दस गुना वृद्धि पर चर्चा कर रहा है जिसके 2026 तक पूरा होने की उम्मीद है।
रहा सवाल दोनेत्सक और लुहान्स्क का, तो दोनबास के ये दोनों इलाके 2014 से ही यूक्रेन सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं। करीब 8 साल बाद इन्हें मान्यता देकर रूस अमेरिका और उसके समर्थक यूरोपीय देशों को अपनी ताकत का अहसास करा रहा है।
वैसे यूक्रेन पर हमले से रूस को कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि प्राकृतिक संसाधन और संपत्ति दोनों रूस के पास पहले से हैं। यूक्रेन पर हमले से उसे आर्थिक बोझ ही उठाना पड़ेगा, फिर भी अपनी सामरिक मजबूती के लिए रूस अड़ा हुआ है। लेकिन इसमें अमेरिका की बेचैनी से समझा जा सकता है कि दुनिया भर में लोकतंत्र का ठेका हासिल करने के पीछे उसकी मंशा क्या है।
(लेखक देशबन्धु अख़बार के संपादक हैं)