प्रीति अज्ञात
26 जनवरी 2022 को ‘अमर जवान ज्योति’ अपने 50 वर्ष पूर्ण कर रही है। फालतू में देश इंदिरा गाँधी को याद करता और इनके कलेजे पे साँप लोटता! इसलिए एक स्वर्णिम जयंती को शून्य काल में बदल देना इसी वक़्त आवश्यक था। जी हाँ! ‘अमर जवान ज्योति’ का पता बदल रहा है। प्रायः घर इसलिए बदला जाता है क्योंकि वहाँ से जुड़ी कई परेशानियाँ होती हैं। लेकिन यहाँ अमरत्व का नया पता इसलिए है क्योंकि सरकार को पुराने मालिक के नाम से परेशानी है। व्यक्तिगत खुन्नस निकालने में उस्ताद इस सरकार को हर जगह अपना ठप्पा लगवाना है कि “देखो, ये हमने किया!” जिससे आने वाली पीढ़ियों को बस एक ही यशस्वी नाम याद रहे! तो क्यों न शिफ्ट करवाए! विश्व बंधुत्व का ढोल पीटने वाले जब अपनों के ही न हो सके, तो हम और आप होते कौन हैं कुछ तय करने वाले! उनका जो मन हुआ, सो कर लिया। हमारी क़िस्मत में तो लकीरें पीटना ही लिखा है।
वैसे भी नामकरण संस्कार में माहिर ये सरकार लोगों की भावनाओं से खेलना और आस्थाओं को भुनाना खूब जानती हैं। दो समुदायों के बीच घृणा का बाजार अच्छी तरह से बोने और पर्याप्त ज़हरीली फसल खड़ी होने के बाद, अब उसने अपने स्वार्थी हाथ सेंकने शुरू कर दिए हैं। वो यह भी जानती-समझती है कि सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति लगाने के बाद भावुक जनता को तो यूँ भी भावविह्वल हो ही जाना है। प्रसन्नता से भर तालियाँ पीटनी ही हैं, हाँ जी, हाँ जी के नारे लगाते हुए कदमों में बिछ ही जाना है! यह भी साबित किया जाएगा कि उससे पहले तो बोस का सम्मान होता ही कहाँ था, वो तो हमने किया। इसी उन्माद और जयकारे के बीच ‘अमर जवान ज्योति’ को सरका देना सबसे सरल उपाय था, सो अपना लिया गया।
वतन पर मिटने वालों का जो हो, सो हो! इससे इनको क्या! इन्हें तो नेहरू-गाँधी को मिटाना है। इनकी आस्थाएं पलटूमार हैं जो एक मंदिर के लिए तो दृढ़ रहती हैं लेकिन शहीद सैनिकों के लिए विस्थापित होने लगती हैं। इन्हें नहीं मालूम कि एक आम भारतीय का उससे जुड़ाव कितना है! ये जानकर करेंगे भी क्या! क्योंकि इन्हें तो ये चाहिए कि सबसे पहला नाम इनका दिखे, इनको नमन करने के बाद ही तुम अपनी भारतीयता दिखाओ! वरना देशद्रोही कहने को इनका जत्था तैयार रहता ही है।
दुख है, क्रोध है और बेहद अफ़सोस भी कि वह दिन जिसे ‘अमर जवान ज्योति’ का स्वर्ण जयंती दिवस कहकर मनाना था, उसे इस सरकार ने ‘अमर जवान ज्योति विस्थापन दिवस’ बना दिया। वो ज्योति जो दूर से ही दिखाई देती थी, वो जिसकी एक झलक भी गर्व से भर देती थी, राजधानी में चमचमाती पवित्र ज्योति के उस इतिहास को बदल दिया जो पाकिस्तान को मुँहतोड़ जवाब देने वाले हमारे जांबाज़ सैनिकों के बलिदान का प्रतीक रही। यह बात भी अब इतिहास में लिखी जाएगी कि सच कहने पर, हर बात में पाकिस्तान भेजने वाले लोगों ने इस गणतंत्र दिवस पर दुश्मन पाकिस्तान को ही खुशी का उपहार दे दिया!
1971 में हम पाकिस्तान से जीते लेकिन एक निरंकुश सत्ता से अब हार रहे हैं। सत्ता जो अपनी विफलताओं को उत्सव में बदल देने का हुनर जानती है, सत्ता जो राजनीतिक विरोध के चलते अपने ही नेताओं के अपमान पर उतर आई है, सत्ता जिसे अपनी गरिमा और मर्यादा का तो खूब ख्याल रहता है लेकिन अपने ही देशवासियों का दूसरे देश में जाकर मखौल उड़ाती है वो भी उंगलियाँ नचा-नचाकर!
आप बनाएं स्मारक, कोई दिक्कत नहीं बल्कि यह तो गर्व का विषय है। सरदार पटेल जी का बनाया, गौरव से भर हम खुद होकर आए हैं वहाँ! जहाँ तक देशभक्ति की बात है तो आम नागरिक की भावनाएं, आपसे कमतर नहीं हैं। उसे आप अपने समर्थन या विरोध से मत तौलिए! जरूरी नहीं कि जो असहमति दिखाए, वो दुश्मन ही है। देश का शुभचिंतक भी हो सकता है।
दुनिया साक्षी है कि निरंकुशता का अंत बेहद दयनीय होता है। यह भी याद रहे कि इतिहास मिटाने से इतिहास नहीं बना करता! जबरन तो बिल्कुल ही नहीं! अमर शहीदों और उनके परिवारों से इस विस्थापन की शर्मिंदगी के साथ माफ़ी जय हिन्द! 🇮🇳
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)