आलोक मिश्रा का लेख: हिज़ाब तो बस बहाना है

देश के एक हिस्से में हिज़ाब पर बवाल मचा हुआ है। शैक्षिक संस्थान में पढ़ाई के लिए आई कुछ मुस्लिम छात्राएँ अपनी धार्मिक पहचान के अनुरूप हिज़ाब पहनकर कक्षा में आना चाहती हैं, वहीं प्रशासन इसकी अनुमति नहीं दे रहा। तर्क वही है कि ये विद्यार्थियों के बीच समानता के सिद्धांत के खिलाफ़ है। तय ड्रेसकोड में हिज़ाब का कोई प्रावधान नहीं है, सो पहनकर आने पर मनाही तारी हो गई है। कुछ संगठन दबाव बनाकर नफ़रत और वैमनस्य  फैलाने में भी लग गये हैं। प्रतिकार स्वरूप वे अपने समुदाय के विद्यार्थियों को भगवा गमछा ओढ़कर आने का आह्वान ही नहीं कर रहे बल्कि ऐसा कर भी रहे हैं। जाहिर है कि ये संगठन और विद्यार्थी एक खास तरह की राजनीति ही कर रहे हैं। हिज़ाब तो बस बहाना है।

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ये सब देखते हुए न जाने क्यों अपने स्कूली दिन याद आ रहे हैं। पूर्वांचल के गाँव के मेरे स्कूल की वो स्मृति आज के ज़हरीले परिवेश को आइना दिखा रही है। प्रार्थना स्थल पर आसपास के गाँवों से आने वाले विद्यार्थी जब पंक्तिबद्ध खड़े होते तो उनकी अपनी धार्मिक पहचान आपस में घुलने-मिलने में बाधा नहीं बनती थी। जहाँ हम हिंदू लड़के-लड़कियाँ हाथ जोड़कर प्रार्थना गाते वहीं मुस्लिम छात्राएँ और छात्र हाथ नीचे लटकाए या मोड़कर सीधे खड़े रहते। उनसे न तो हाथ जोड़ने की और न ही ‘वह शक्ति हमें दो दयानिधे’ गाने की अपेक्षा की जाती। पूछने पर मेरे वो साथी अक्सर कहते, ‘हममें हाथ नहीं जोड़ा जाता।’ इसके बाद पढ़ते या खेलते हुए हम दुध-पानी सा घुले-मिले रहते। गौरतलब है कि उस परिवेश में उन्हें अपने तरीके से जीने और व्यवहार करने की आज़ादी थी। संयोग देखिए, स्कूल का नाम था- श्री राम-जानकी इंटर कॉलेज। स्कूल आज भी है। पर अब वहाँ क्या माहौल होगा, कह नहीं सकता। मैं अपने गाँव की मस्ज़िद और मदरसे में जब चाहता आता-जाता रहता था। कोई नहीं रोकता था।

अपनी विविधता, उसमें निहित सहिष्णुता और संविधान प्रदत्त धार्मिक आज़ादी को हममें से कुछ लोग झुठलाने में क्यों लगे हैं? हम धर्मनिरपेक्षता के उस रूप के हिमायती रहे हैं जिसमें कोई भी समुदाय सार्वजनिक जीवन में अपनी पहचान के साथ पूरी समानता और गरिमा के साथ प्रस्तुत हो सकता है। ध्यान रहे कि कोई भी विविधतापूर्ण समाज आपसी सामंजस्य और विश्वास से ही आगे बढ़ सकता है। संघर्ष और विवाद पैदा भी हों तो आपसी संवाद और संविधान की रोशनी में ही उसका हल निकल सकता है। पर बढ़ रही उस प्रवृत्ति का क्या करें जो विवाद खड़े करने में ही अपनी सफलता देखती हो और सफल होने पर आनंदित होती हो।

आजकल अल्पसंख्यक समुदायों की जीवन शैली, संस्कृति और खान-पान और पहनावे को निशाना बनाना आम बात हो गई है। ऐसा अक्सर उन्हें दकियानूस, पिछड़ा हुआ साबित करके किया जाता है। इसमें ‘राष्ट्रविरोधी’ होने जैसी बात का तड़का लगाने की एक नई विधा भी जुड़ गई है। वैमनस्य से भरे युवाओं के कुछ समूह दूसरे धर्म की महिलाओं के पहनावे को जहाँ उस धर्म का पिछड़ापन बताते हुए उसे मर्दवादी नियंत्रण का उदाहरण घोषित करने में जुटे हैं वहीं इस मामले में उनमें से अधिकतर का रिकॉर्ड खुद घनघोर मर्दवादी है। पिछले दिनों ‘सुल्ली डील ऐप’ बनाने जैसे बेहद अपमानजनक भड़काऊ कदम भी इन्हीं युवाओं में से कुछ ने बनाए थे। हिज़ाब जैसे पहनावे को सार्वजनिक जीवन में पिछड़ा, धार्मिक, शोषण का प्रतीक बताने वाले यही लोग अपने समूह के लोकप्रिय धार्मिक प्रतीकों को सर्वमान्य मानकर चलते हैं। उन्हें कलावा, बिंदी, घूंघट, सिंदूर पर कभी बोलते नहीं सुना जा सकता। उल्टे गौरवान्वित ज़रूर करते देखा जा सकता है।

एक सचेत नागरिक के रूप में मैं यह भली-भाँति जानता हूँ कि हमारे देश के लगभग सभी समुदायों में महिलाओं को पितृसत्तात्मक नियंत्रण और शोषण झेलना पड़ता है। उनके पहनावे से लेकर कहीं आने-जाने, पढ़ने-लिखने तक का अधिकतर निर्णय पुरुषप्रधान संस्कृति द्वारा ही तय किया जाता है। बहुत सी महिलाएँ इसकी अभ्यस्त हो जाती हैं और नियंत्रण के इन महीन सूत्रों को पहचान भी नहीं पाती हैं। वे इसे अपने स्वयं का चयन समझने लगती हैं। लेकिन जैसे-जैसे कोई समुदाय शिक्षा, रोजगार जैसे अवसरों को प्राप्त करते हुए आगे बढ़ता है इन प्रवृत्तियों पर प्रश्न उठाने लगता है। खासकर युवा वर्ग इन अवरोधों को तोड़कर लोकतांत्रिक व मानवीय आधार पर आगे बढ़ने लगता है।

लेकिन इस प्रक्रिया में हर समुदाय की अपनी विकास यात्रा और समझ हो सकती है। उसे अपना रास्ता तय करने का अधिकार होना ही चाहिए। समुदाय के अंदर भी विमर्श व अंतर्विरोध उभरने से नये रास्ते निकलते हैं। पर इस मामले में दूसरे समुदायों के लोगों द्वारा वैमनस्यपूर्ण तरीके से ठेकेदारी और दादागीरी दिखाते हुए दख़ल देने से बात बिगड़ती ही है। ख़ासकर अल्पसंख्यक समुदाय अपनी पहचान छिन जाने के भय से और ज़्यादा अक्रामक होकर बदलावों के प्रति शंकालु हो जाते हैं। वैसे आजकल हमारे देश में बहुसंख्यक समुदाय को भी ऐसा कृत्रिम भय दिखाकर उसे उल्टी दिशा में चलने को कहा जा रहा है।

एक जीवंत लोकतंत्र के तौर पर हमें समुदायों पर विश्वास, उन्हें विकास और प्रगति के अवसर देने होंगे। संवाद के पुल बनाने होंगे। बदलाव तो ख़ुद-ब-ख़ुद होगा। आज वो लड़कियाँ जो लंबी लड़ाई और बदलाव के बाद घर की दहलीज़ लांघकर स्कूलों-कालेजों तक पहुँची हैं उन्हें उनके पहनावे और बोली-बानी के कारण शिक्षा से वंचित कर देना अंततः हमारे राष्ट्र का दुर्भाग्य साबित होगा। यह हमारे संविधान की अवमानना होगी। हमारे आज़ादी की लड़ाई के नायक-नायिकाओं के सपनों का अपमान होगा।

(लेखक सिक्षाविद्य एंव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)