क़रीब पंद्रह साल पहले के दौर में भारत में आए दिन बम धमाके हो जाते थे. इधर धमाका होता था, उधर टीवी न्यूज़ वाले बताने लगते थे कि इस धमाके के तार सिमी नाम की संस्था के इस्लामिक आतंकवादियों से जुड़े हैं. हर बार मुझे हैरत होती थी कि पाँच मिनट में कैसे न्यूज़ वालों को ये पता चल जाता था कि धमाका किसने किया.
क्योंकि मैं ख़ुद एक छोटा सा रिपोर्टर था मैंने सोचा कि थोड़ा तहक़ीक़ात की जाए. मैंने भारत में घूमना शुरू किया और सिमी के ख़िलाफ़ केसों की पड़ताल शुरू की. इस सिलसिले में तीन महीने के दौरे में मैं तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, गुजरात इत्यादि गया.
जो मालूम पड़ा वो चौंका देने वाला था. एक-एक केस झूठा था. ये मैं नहीं कह रहा था. ये हर केस में अदालत का जज कह रहा था. पुलिस और सरकारी वकीलों का ऐसा शर्मनाक काम था कि चार लाइन पढ़ते ही समझ आ जाता था कि पूरा केस फ़र्ज़ी ही नहीं है, जानबूझकर बेगुनाह को फँसाने के लिए बनाया गया है.
एक तरह टीवी वाले आपको बता रहे थे कि सिमी के लोग आतंकवाद फैला रहे हैं, और दूसरी तरफ़ एक के बाद एक जज न केवल मुजरिम को छोड़ रहे थे बल्कि पुलिस को जम कर डाँट भी लगा रहे थे फ़र्ज़ी केस बनाने के लिए. ज़ाहिर बात है टीवी वाले सिमी के लोगों के छोड़े जाने की ख़बर नहीं चलाते थे. तो आम जनता को पूरी कहानी मालूम ही नहीं होती थी.
जब मैंने ये ख़बर छापी तो मानवाधिकार हलकों में और मुस्लिम तंज़ीमों में उसकी चर्चा आम हुई. ख़बर छपने के कुछ महीनों बाद पुलिस ने कहना बंद कर दिया कि धमाके सिमी कर रहा है और एक नया नाम पैदा कर दिया: इंडियन मुजाहिदीन.
बहरहाल, ख़बर छापने के कुछ दिनों बाद इलाहाबाद से मेरी माताजी का फ़ोन आया. कहने लगीं, यहाँ इलाहाबाद में लोग नाराज़ हो रहे हैं कि आपका बेटा हिंदू होकर ऐसी ख़बर छाप रहा है. मैंने हंस कर अपनी माँ से कहा, आप उन लोगों को कह दें कि मेरा बेटा कहता है मैं हिंदू हूँ इसलिए ऐसी ख़बर छाप रहा हूँ.
कोट पहनकर हिजाब पर फैसला देने वाले जज
पिछले दिनों कोई जज साहब ने बताया कि हिजाब इस्लाम में अनिवार्य नहीं है. ये फ़ैसला जज साहब ने काला कोट और पैंट पहन के सुनाया. पता नहीं आप जानते हैं कि नहीं इस काले कोट और पैंट ने भारत के हज़ारों जज और लाखों वकीलों का जीना हराम कर दिया है. आपको मालूम न होगा कि गर्मियों में कितने ही वकीलों की पीठ और छाती इस काले कोट की वजह से महीनों झुलसी रहती है. कितने ही वकील अपनी जेब में पाउडर और क्रीम रख कर चलते हैं और मौक़ा देखकर शरीर पर लगा लेते हैं.
ख़ासतौर से निचली अदालतों में एसी भी नहीं होता है. और वकील तो और भी बेचारे होते हैं, चबूतरों पर बैठ कर लू के थपेड़े खाते हुए रोज़ी रोटी चलाते हैं. काला कोट, उसके नीचे काला वेस्ट, उसके नीचे सफ़ेद क़मीज़, जिसका ऊपर का बटन बंद जिसपर सफ़ेद बैंड. किस मूर्ख ने भारत जैसे गर्म देश के लिए ये पहनावा तय कर दिया? लेकिन हम हिंदुस्तानी ठहरे लकीर के फ़क़ीर. जितना ज़्यादा नक़ली घमंड और अहंकार उतनी ही कम अक़्ल और समझदारी. सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज की मगर ऐश है. सरकारी घर पूरा एसी. सरकारी गाड़ी एसी वाली. चेम्बर से लेकर कोर्ट में एसी ही एसी. और फिर हिजाब जैसे फ़ैसले दो तो मोदीजी भी ख़ुश. बाक़ी गरीब जज और वकील मरता है तो मरे.
ओह! तो फ्राॅड है
कान पक गए सुनते सुनते कि भारत के लोग हज़ारों साल से इतने सहिष्णु थे कि दुनिया भर के लोग जब भाग कर यहाँ आते थे तो उनका भरपूर स्वागत होता था.
ऐसा लगता है कि सुबह सुबह पूजा आरती करते ही सारे पंडे थाली में दिया और माला लेकर समंदर किनारे जा कर खड़े हो जाते थे कि कब दुनिया से भाग रहे लोग आवें और कब हम उनका स्वागत करें. सुबह की शिफ़्ट ख़त्म होती थी तो दुकानों में ताला लगा कर सारे बनिये आ जाते थे पंडों को रिलीव करके सेकेंड शिफ़्ट करने.
So-called भारत वर्ष की ऐसी कोरी गप्प होश संभालते से सुनता आया हूँ. वो तो भला हो कि अपना दिमाग़ बहुत बचपन से ही चलाना शुरू कर दिया था. और तभी समझ आ गया था कि सौ में डेढ़ सौ कहानियाँ निरी गप्प के अलावा कुछ नहीं हैं.
अब तो एक भी फ़ॉरवर्ड आता है सबसे पहले मैं गूगल करके खोजता हूँ और दो मिनट में पता लग जाता है कि सब फ़्रॉड है. पूरा माल दो नंबर का है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, इन दिनों अमेरिका में रह रहे हैं)