कृषि विधेयक काला कानून, अन्नदाता के वजूद को खतरा, राज्य के अधिकारों का भी होगा हनन

शरीफ मोहम्मद खिलजी

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विगत गुरुवार 17 सितम्बर 2020 को जब कृषि विधेयक के रूप में काला कानून जिसे पहले ही अध्यादेश के रूप में लागू किया जा चुका है और विधेयक पारित कर क़ानून बनाने की पूरी तैयारी की जा रही है, इस काले कानून से देश के अन्नदाता के वजूद को कॉर्पोरेट घरानों को सौंप दिया गया है। उत्तर भारत विशेषकर हरियाणा, पंजाब के किसान एवं विपक्ष के विरोध का  मोदी सरकार पर कोई असर नहीं है क्योंकि मोदी सरकार पर देश-विदेश के कॉर्पोरेट वर्ग का दबाब है जो इस विधेयक के जल्दी से जल्दी क़ानून बनने का इन्तजार कर रहे हैं। क्योंकि कॉर्पोरेट वर्ग इस काले कानून से कानूनी तौर पर न केवल किसानों को अपनी पसंद की फसल उगाने के लिए बाध्य कर सकते है बल्कि किसान की जमीन पर कॉर्पोरेट वर्ग अपनी सुविधा के हिसाब से ही पैदावार करवाएगा, फसल का दाम भी अपनी सुविधा से चुकाएगा और किसान के पास अपनी फसल को अपनी सुविधा से बेचने का विकल्प ही नहीं रह जाएगा तो एक दिन उसकी जमीन भी उसके हाथ से निकल जायेगी।

क्योंकि जो भी उद्योगपति फसल की बुवाई से पहले जमीन का ठेका लेगा उसे किसान को पैदावार का पैसा पहले ही अदा करना होगा जो कि यह एक तरह से जमीन को ठेके पर लेने जैसा होगा। ठेके की कीमत अदा करने के बाद उस जमीन में फसल की बुवाई से लेकर निराई, गुड़ाई, कटाई और फसल को खलिहान तक पहुंचाने तथा खलिहान से बाजार और बाजार से उपभोक्ता तक पहुंचाने तक के सारे काम उसी कंपनी के जिम्मे होंगे जिसने जमीन ठेके पर ली है। इन सभी कामों में होने वाले खर्च की भरपाई भी वही कंपनी करेगी और जो भी फायदा होगा वो उसी कंपनी का ही होगा।  ठेके के रूप में अपनी जमीन की कीमत मिल जाने के बाद किसान को उसी फसल की पैदावार करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा वह कंपनी चाहती है।इस तरह से यह एक तरह से उस जमीन का मालिकाना हक़ परोक्ष रूप से उस  उद्योगपति के पास चला जाएगा और किसान जमीन का मालिक होते हुए भी अपनी ही जमीन पर बेगारी करने को विवश हो जाएगा। ऐसे में एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि किसान जमीन बेचने को ही मजबूर हो जाए।

वह पक्ष जिसका जानना बेहद जरूरी है

इस काले कानून का दुसरा पहलू भी है जिससे आम नागरिक के जीवन पर भी असर पडेगा। किसानों की फसल खरीदकर कॉर्पोरेट घरानें जमाखोरी करेंगे। भरपूर भंडारण करने के बाद कालाबाजारी करेंगे जिसका असर महगांई के रूप में होगा। जो सहकारी समितियां और कृषि उपज मंडी किसानों को सबल प्रदान करती है इस काले कानून से धीरे धीरे समाप्त हो जाएंगी। आजादी से पहले भी अंग्रेज़ी शासन के अधीन नील की खेती की खेती की जाती थी। जिसका विरोध किसानों एवं गांधीजी ने किया था।

आजादी के बाद कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के लिए नेहरू सरकार ने तीन बुनियादी बातों को ध्यान में रखा।  किसानों को खेती के कच्चे माल के लिए सब्सिडी, समर्थन मूल्य पर  किसान के पैदावार की खरीदी और फसल के भंडारण की व्यवस्था और अनाज को  राशन दुकानों के जरिये आम जनता तक पहुंचाना।इससे कम लागत में  खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में देश आत्मनिर्भर बना। समर्थन मूल्य की वजह से ज्यादा उत्पादन होने पर भी बाजार भाव नहीं गिरा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वजह से कम उत्पादन में भी भाव में बेतहाशा बढोत्तरी नहीं हुई।  कालाबाजारी और जमाखोरी रोकने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम बना। अब नए कृषि विधेयक इस काले कानून में इन्हीं तीन बुनियादी चीजों को खत्म किया जा रहा है।

जब देश कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन रहा था उसका कारण सरकार की संरक्षणवादी नीतियां (सब्सिडी) थी। कृषि क्षेत्र में तीन चीजे होती है। प्रोडक्शन, ट्रैड और ड्रिस्ट्रिब्यूशन इस काले कानून से तीनों पर गहरा असर होगा। यह काला कानून सभी खाद्यान्न फसलों, चारा व कपास को किसानों के साथ “आपसी सहमति” के आधार पर अपनी जरूरत के अनुसार ठेके पर खेती करवाने का किसी भी कंपनी को अधिकार देता है। साथ ही किसानों की फसलों को किसी भी कीमत पर मंडी से बाहर खरीदने की कॉर्पोरेट कंपनियों को छूट देता है। आवश्यक वस्तु कानून 1925 में संशोधन से आम आदमी के भोजन की सभी वस्तुओं गेहूं, चावल समेत सभी अनाजों, दालों व तिलहनों को तथा आलू-प्याज को आवश्यक वस्तु की श्रेणी से बाहर करता है।

खेती की शुरूआत प्रोडक्शन से होती है। पिछले तीन चार दशकों से कृषि के क्षेत्र में सब्सीडियां घटाने का नतीजा रहा कि खेती-किसानी की लागत महंगी हुई है. खेती-किसानी के घाटे का सौदा होने और क़र्ज़ में डूबने के कारण पिछले तीस सालों में कम-से-कम चार लाख किसानों ने रिकॉर्ड आत्महत्या की हैं।एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले वर्ष भी  10357 खेतिहरों ने आत्महत्या की हैं। ठेका खेती से किसान के नुकसान को इस उदाहरण से समझ सकते है।  बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको ने गुजरात के 9 गरीब किसानों पर उसके द्वारा रजिस्टर्ड आलू बीज से आलू की अवैध खेती करने के लिए 5 करोड़ रूपये मुआवजे का दावा ठोंका था और व्यापारिक मामलों को देखने वाली गुजरात की कोर्ट पेप्सिको के साथ खड़ी हो गई थी।एसा ही मामला  छत्तीसगढ़ का है,जहां मजिसा एग्रो-प्रोडक्ट नामक कंपनी ने इस प्रदेश के सात जिलों के 5000 किसानों से 1500 एकड़ से अधिक के रकबे पर काले चावल की फसल की खरीदी का समझौता किया था, लेकिन उत्पादन के बाद इस कंपनी ने या तो फसल नहीं खरीदी या फिर चेक ही बाउंस हो गए।आज तक किसानों को उनके नुकसान के 22 करोड़ रूपये नहीं मिले हैं।

पूंजीपति होंगे कृषि के मालिक

अब ट्रेड की बात की जाए तो  पूंजीपतियों को यह अधिकार मिल जाएगा कि वे बिना कोई शुल्क चुकाए किसानों के खेतों से ही फसल उठवा लें और समर्थन मूल्य देने की भी उस पर कोई कानूनी बाध्यता नहीं रहेगी।कृषि व्यापार में अंतर्राज्यीय बाधाएं ख़त्म हो जाने के बाद अब कॉर्पोरेट घरानें भी अपनी निजी मंडियां स्थापित कर लेंगी और गांव-गांव में कम भाव में किसानों की फसल खरीदने के लिए दलाल नियुक्त करेगें जो उस इलाके के ताकतवर लोग होंगे जिनको इस काले  कानून में एग्रीगेटर (जमाकर्ता) कहा गया है।कॉर्पोरेट  ऑनलाइन व्यापार भी स्थापित करेंगे, जो फसल के बाज़ार में आने के समय भाव गिराने का खेल पूरे देश के पैमाने पर खेलेंगे। कागजों में सरकारी मंडियां तो होंगी, लेकिन किसानों की फसल खरीदने वाला कोई नहीं होगा।फसलों का मूल्य निर्धारण  सब कुछ सरकारी नियंत्रण से बाहर होगा।

डिस्ट्रीब्यूशन (वितरण) का असर   सबसे ज्यादा आम आदमी पर पडेगा। जब सरकारी मंडियों के जरिये किसानों का अनाज नहीं बिकेगा, तो समर्थन मूल्य की बाध्यता से तो सरकार मुक्त होगी ही, राशन दुकानों के जरिये इसके सार्वजनिक वितरण की जिम्मेदारी से भी छुट्टी मिलेगी, क्योंकि सरकारी गोदाम तो खाली रहेंगे। साथ ही आवश्यक वस्तुओं की सूची से खाद्यान्न को ‘बाहर’ निकालने से अब  व्यापारी असीमित स्टॉक जमा कर सकेगा, कार्टेल बनाकर कृत्रिम संकट पैदा करेगा और कालाबाजारी के जरिये मुनाफा कमाएगा। इसलिए इस काले कानून से किसानों की ही नहीं, आम उपभोक्ताओं के साथ भी  लूट होगी। विधेयक में स्पष्ट कहा गया है कि जब तक अनाज व तेल के दाम पिछले साल के औसत मूल्य की तुलना में डेढ़ गुना व आलू-प्याज, सब्जी-फलों के दाम दुगुने से ज्यादा नहीं बढ़ेंगे, तब तक सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी इसका मतलब है कि खाद्य वस्तुओं में महंगाई को 50-100% की दर से और अनियंत्रित ढंग से बढ़ाने की कानूनी इजाजत दी जा रही है।  50 रूपये किलो बिकने वाले दाल  को अगले साल 75 रूपये में और उसके अगले साल 112.5रूपये में बेचने की अनुमति है।इसी प्रकार 20 रूपये किलो के आलू को अगले साल 40 और उसके अगले साल 80 रूपये में बेचने की अनुमति है। इस प्रावधान का उपयोग वायदा कारोबार में सट्टेबाजी के लिए किया जाएगा।जिसका परिणाम बेतहाशा महगांई होगी।

इस काले कानून का  सबसे बड़ा नुकसान भूमिहीन खेत मजदूरों और सीमांत व लघु किसानों को होगा। जो हमारे देश में कुल खेतिहर परिवारों का 85% से ज्यादा है।खेती-किसानी अवहनीय हो जाने से वे धीरे-धीरे अपनी जमीन और जीविका के साधन से वंचित हो जायेंगे। अलाभकारी कृषि से उन पर और कर्ज़ चढ़ेगा और  किसान आत्महत्याओं में और तेजी से वृद्धि होगी। इस काले कानून से नुकसान हमारे देश के पर्यावरण को भी होगा। क्योंकि ज्यादा मुनाफा कमाने के लालच में कॉर्पोरेट जीएम बीजों, अत्यधिक हानिकारक रसायनों के इस्तेमाल और खेती के हानिकारक तरीकों को बढ़ावा देंगे। इससे भूमि की बंजरता बढ़ेगी और निकट भविष्य में खाद्यान्न आत्म-निर्भरता ख़त्म होगी।

इस काले कानून से राज्यों के अधिकारों का भी हनन होगा। देश के संघीय ढांचे में कृषि राज्यों का विषय है। लेकिन राज्यों से बिना विचार-विमर्श किए जिस प्रकार केन्द्रीय कानून बनाए जा रहे हैं, वे राज्यों को कृषि क्षेत्र के विनियमन के अधिकार से ही वंचित करते हैं। यह देश के संघीय ढांचे का सीधा उल्लंघन और संविधान विरोधी कदम है।

इसलिए इस काले कानून से सरकार सिर्फ और सिर्फ कॉर्पोरेट घरानों को फायदा करना चाहती है एवं किसानों के वजूद को बर्बाद करना चाहती है। ये काला कानून जीएसटी और नोटबंदी की तरह किसान विरोधी, जन विरोधी साबित होगा। अगर वास्तव में सरकार को किसानों की फ्रिक है और किसानों को सही मायनों में लाभ पहुंचाना चाहती है तो सरकार स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू करे।

 

(शरीफ मोहम्मद खिलजी राजस्थान के जाने माने पत्रकार हैं)