अनिमेष मुखर्जी
भारतीय सैन्य सेवाओं में दो संसार हैं। एक कमीशन पाए हुए अफ़सरों की दुनिया है, जहां सबकुछ बेहद भव्य और चमकदार है। निश्चित रूप से ऐसा होना भी चाहिए। जिन अफसरों के आदेश पर 100-200 लोग ‘जी साब’ करके जान दे दें, उनमें कई खूबियाँ होंगी और उन तराशे हुए अफसरों के लिए चमक-दमक तो चाहिए ही। दूसरी दुनिया नॉन-कमीशन वाले सिपाहियों की है। नॉन-कमीशन में कई रैंक हैं लेकिन यह कमीशन प्राप्त अधिकारियों के नीचे ही रहते हैं।
कमीशन प्राप्त अधिकारी अगर सेना का दिमाग हैं, तो नॉन कमीशन रीढ़ की हड्डी। अग्निपथ या अग्निवीर इसी रीढ़ की हड्डी को बदलने की योजना है। शुरुआत में लगा था कि शायद सैनिकों का कुछ हिस्सा इस योजना के ज़रिए भर्ती किया जाए, लेकिन सेना स्पष्ट कर चुकी है कि आगे होने वाली भर्तियां अग्निपथ के रास्ते ही होंगी। वैसे, ऐसा करना मजबूरी भी है, क्योंकि दो तरह के सैनिकों की भर्ती के बाद उनमें भी कई स्तर का आपसी भेदभाव चालू होने की संभावना रहती।
अब सवाल उठता है कि अचानक से पूरी सेना की भर्ती प्रक्रिया बदलने का कदम उठाने से पहले क्या विस्तृत योजना बनाई गई? अगर हाँ, तो चार दिन में 3 बार संशोधन की नौबत क्यों आई? आखिरकार देश की सुरक्षा के दूरगामी प्रभावों का मुद्दा है और इसमें नोटबंदी जैसा ट्रायल ऐंड एरर वाला तरीका नहीं अपनाया जाना चाहिए था। इसी सवाल के साथ एक और सवाल उठता है कि जब इस तरह के बदलाव किए जाते हैं, तो उनके पायलट प्रोजेक्ट चलाकर उनकी सफ़लता-असफ़लता और व्यवहारिक दिक्कतें देखी जाती हैं। इस तरह का कोई पायलट प्रोजेक्ट चला हो और उसके लिए कोई भर्ती हुई हो, ऐसी कोई जानकारी नहीं मिलती। कुछ साल पहले तक हम ऐसे मुद्दों पर संसद में चर्चा और बहस देखते थे, अब तो न सरकार को उसकी पड़ी है न विपक्ष को।
इसके बाद सवाल उठता है सैनिकों की ट्रेनिंग का। अगर 18 महीने की ट्रेनिंग 6 महीने की कर दी जाएगी, तो क्या सेना की गुणवत्ता पर असर नहीं पड़ेगा? फिर सेना में सियाचीन जैसी जगहों पर तैनाती, स्पेशल ऑपरेशन के लिए तैयार करने के लिए भी तमाम तरह की ट्रेनिंग दी जाती हैं। क्या इन ट्रेनिंग के बाद किसी को सेना से बाहर कर देना सेना का नुकसान नहीं है? कहा जा रहा है कि जो एक चौथाई लोग 4 साल के बाद भी काम जारी रखेंगे, उनका रोज़गार भी कॉन्ट्रैक्ट पर चलता रहेगा। क्या किसी सार्वजनिक पद की सुविधाएं और भत्ते अचानक से खत्म कर देना श्रम कानूनों के लिहाज़ से सही है।
दूसरी नौकरियों में भर्ती का वायदा
अग्निवीरों के लिए तमाम मुख्यमंत्रियों ने कहा कि सेना से निकले इन युवाओं को प्रदेश पुलिस और अर्धसैनिक बलों में 10 प्रतिशत का आरक्षण मिलेगा। दूसरी ओर सेना में मिले चार साल के अनुभव के चलते शानदार करियर की बात कही जा रही है। अर्ध सैनिक बलों में कॉन्सटेबल के पद के लिए उम्र की सीमा 21 साल है। जो युवा 20-21 साल की उम्र में अग्निवीर बनेगा और 25-26 साल की उम्र में रिटायर होगा, उसको इन भर्तियों का फ़ायदा कैसे मिलेगा?
आरक्षण वाले मामलों में 5 साल की छूट दी जाती है, अगर एक बार को मान लें कि अग्नीवीरों को यह छूट मिलेगी, तो भी उन्हें रिटायर होने के साथ-साथ वैकेंसी चाहिए होगी, नहीं तो वे उम्र के चलते ही अयोग्य हो जाएंगे। इसके बाद हर साल रिटायर होने वाले करीब 34,000 अग्निवीरों के मुकाबले आने वाली भर्तियों की संख्या बेहद कम होगी। सरकारी विभागों में डेप्युटेशन का प्रबंध है। क्या यह बेहतर नहीं रहता कि हर साल सेना से एक निश्चित संख्या में सैनिकों को अर्धसैनिक बलों में सीधे भेज दिया जाता। सेना से एनएसजी में लोग इसी तरह से जाते हैं, तो इसी व्यवस्था से सेना से कुछ हिस्सा कम किया जा सकता था।
अब अगर सैनिक जीवन के अनुभव की सार्वजनिक क्षेत्र में महत्ता की बात करें, तो यह बात सुनने में जितनी अच्छी लगती है, उतनी है नहीं। अफ़सरों के अनुभव की बात अलग है। सैनिकों को शारीरिक श्रम और हथियार चलाने से जुड़े प्रशिक्षण मिलते हैं, न कि मैनेजमेंट के। ऐसे में 10वीं, 12वीं पास लड़के को किसी भी कॉर्पोरेट में व्हाइट कॉलर वाली नौकरी मिलना बेहद मुश्किल है। अगर किसी को भरोसा न हो, तो अमेरिका जैसे देशों में सेना से कुछ साल की नौकरी से निकले लोगों की स्थिति देख लें। उनमें से बहुत से लोगों को प्लंबर, मैकेनिक और स्टोर बॉय जैसी नौकरियां करनी पड़ती हैं। ऊपर से वित्तीय प्रबंधन की जानकारी न होने के कारण भी उनकी आर्थिक स्थिति खराब होती है। भारत में स्कूली स्तर पर कहीं भी वित्तीय प्रबंधन सिखाया नहीं जाता।
ऐसे में 24-25 साल के इन युवाओं के अपनी जमा-पूंजी गवां देने की संभावना ज़्यादा है। लोग यह भी कह रहे हैं कि फौज के इन चार सालों में ये लड़के डिग्री भी ले सकते हैं। क्या आपको लगता है कि फौज में सबसे निचले स्तर पर नौकरी करते हुए और सियाचीन, नागलैंड या थार के रेगिस्तान में ड्यूटी करते हुए स्नातक की पढ़ाई करना संभव रहेगा?
जो मिल रहा है वो काफ़ी नहीं है
भारतीय सेना में नॉन कमीशन पर भर्ती होने के बाद ठीक-ठाक तनख्वाह। मुफ़्त मेडिकल, कैंटीन से सस्ता सामान, पेंशन, ग्रैच्युटी जैसी तमाम सुविधाएं मिलती थीं। इन सबको एक झटके में कम करके महज़ 11 लाख की रकम पकड़ा कर सैनिकों को चलता कर दिया जाएगा और इस बात का प्रचार इस तरह से किया जा रहा है कि ये सुविधाएं अलग से मिल रही हैं। अगर नई योजना में इतना ज़्यादा पैसा मिल रहा है तो क्यों न सरकार की तरफ़ से एक ही पद पर दोनों योजनाओं के तहत भर्ती हुए सैनिकों को मिलने वाली सुविधाओं की तुलना जारी कर दी जाए।
हमने सरकारों को तमाम तरीके की सही गलत बातों का प्रचार करते देखा है, लेकिन क्या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दे पर इस तरह का प्रचार किसी भी स्तर पर सही है? इसके बाद इसका प्रचार हर किसी के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा के तौर पर किया जा रहा है। उसके लिए भारत में पहले से एनसीसी मौजूद है, सरकार चाहे तो हर कॉलेज में हर छात्र के लिए एनसीसी में हिस्सा लेना अनिवार्य कर दे।
कुछ महीने पहले नोएडा की सड़कों पर रात में दौड़ लगाते प्रदीप मेहरा का वीडियो वायरल हुआ था।
दिन भर मैकडॉनल्ड की थकाऊ नौकरी करने के बाद 10 किलोमीटर की दौड़ लगाना कितना मुश्किल काम है कल्पना करिए। प्रदीप दो साल से जिस भर्ती की उम्मीद में था उसे अचानक से खारिज कर दिया गया। सिर्फ़ इतना ही नहीं अब से उसे या उसके बाद के किसी भी युवा को फौजी बनने के सपने को तिलांजली देनी होगी। अगर नौकरी मिलेगी तो मुमकिन है कि 4 साल बाद वापस उसी मैकडॉनल्ड में टेबल साफ़ करना पड़े। वर्दी पहनना सिर्फ़ नौकरी करना नहीं है, यह एक रोमांचक सपना है और इस सपने की बदौलत हम आज़ादी के 70 सालों में कई युद्धों में जीत दर्ज कर पाए हैं।
जब रातों-रात सेना की रीढ़ की हड्डी कहे जाने वाले इस सिस्टम को बदला जा रहा है तो कई सवाल उठते हैं और सरकार को चाहिए कि विनम्रता के साथ इन सवालों के जवाब दे। उम्मीद है कि इन सवालों के जवाब जल्द ही पूरे देश को मिलेंगे और पूरी साफ़गोई से मिलेंगे। आखिर जो गद्दी पर हैं वे भी किराएदार हैं, उनका ज़ाती मकान थोड़े ही है।