नर्मदा यात्रा के बाद दिग्विजय ने फिर भरा कांग्रेस में हौसला

शकील अख़्तर

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कैमरा उन दृश्यों के पीछे खुद भागता है मगर न्यूज चैनल उन्हें नहीं दिखा पाते। कैमरामेन निराश हो जाते हैं कि ऐसे जीवंत फुटेज भी नहीं लिए। मगर उन्हें समझाया जाता है कि यह विपक्ष के नेता के थे। इन्हें नहीं दिखाया जा सकता। ऐसा ही कुछ रविवार को भोपाल में हुआ। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जब एक विरोध प्रदर्शन कर रहे थे तो उन्हें बेरिकेट्स लगाकर पुलिस ने रोका। 74 साल के दिग्विजय बेरिकेट्स पर चढ़ गए। पुलिस ने लाठियां मारीं। तेज पानी की बौछारें फैंकीं। मगर दिग्विजय डटे रहे। तेज पानी की धार ने उन्हें पीछे धकेला। मगर दिग्विजय फिर पलट कर आए।

कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए यह भारी हौसला बढ़ाने वाला क्षण था। आज राहुल गांधी और प्रियंका के अलावा कांग्रेस का और कौन सा नेता ऐसा है जो सड़कों पर आकर इस तरह संघर्ष कर रहा हो? दिग्विजय ने यह हौसला दिखाया। कांग्रेस सात साल से केन्द्र की सत्ता और राज्यों में अलग अलग समयों से सत्ता से बाहर है कार्यकर्ता निराश पड़ा हुआ है। राहुल और प्रियंका संघ्रर्ष कर रहे हैं मगर देश भर में फैला कार्यकर्ता उसमें शामिल नहीं हो सकता। उसे अपने स्थानीय स्तर पर इस तरह का जुझारू नेतृत्व चाहिए। भाजपा जब विपक्ष में थी तो उसके पास लड़ने वाले नेताओं की एक लंबी कतार थी। उन्हें सड़कों पर कम संघर्ष करना पड़ता था। क्योंकि मीडिया में उन्हें वैसे ही खूब जगह मिल जाती थी। लेकिन कांग्रेस के और दूसरे विपक्ष के नेताओं को तो पुलिस जुल्म का शिकार होने के बाद भी मीडिया में जगह नहीं मिलती। और अगर जगह मिलती भी है तो नकरात्मक कहानियों के लिए।

भाजपा चाहे सत्ता में रहे या विपक्ष में उसे मीडिया को मैनेज करने खूब आता है। कांग्रेस को एक पार्टी के तौर पर यह कला नहीं आती। हां, इसके कुछ नेता अपने व्यक्तिगत प्रचार में जरूर माहिर रहे। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि मीडिया कांग्रेस नेतृत्व को क्या कह रहा है। वे यही व्यवस्था करने में लगे रहते थे कि मीडिया में उनके खिलाफ कुछ न जाए। यूपीए के दस साल के शासन काल में कांग्रेस के कुछ नेताओं ने सोनिया गांधी को घेर कर ऐसा माहौल रच रखा था कि सोनिया और परिवार को वे ही लोग बचाए हुए हैं। भाजपा के पास उनके परिवार के खिलाफ काफी मसाला है। मगर वे उसे सामने लाने से रोके हुए हैं। कुछ नेता तो इतने स्मार्ट थे कि वे भाजपा समर्थक समझे जाने वाले अखबारों में अपने खिलाफ ही हल्का सा कुछ छपवा लेते थे और फिर जाकर बताते थे कि देखिए भाजपा हमारे खिलाफ क्या क्या लिखवाती है। मगर हम डरने वाले नहीं हैं। आपका और परिवार का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे। इनमें से अधिकांश नेता 2014 में सत्ता पलटते ही प्रधानमंत्री मोदी का गुणगान करने में लग गए। कुछ बाद में खुलकर जी 23 में आ गए। तो कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने जी 23 के साथ सोनिया गांधी को लिखे शिकायती पत्र में दस्तखत नहीं किए थे मगर उस योजना के साथ थे।

सोनिया ने अपनी मेहनत और जिद से 2004 में पासा पलट दिया था। और कांग्रेसियों के हाथ में लाकर सत्ता सौंप दी थी। 2009 में फिर सोनिया ने किसानों की कर्ज माफी और मनरेगा लाकर सत्ता बचाई। मगर जनता और कार्यकर्ता से दूर कांग्रेसियों ने इसकी कोई कद्र नहीं की। 2012 में सोनिया को भावनात्मक ब्लैकमेल करके प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति बन गए। भाजपा वाले सबसे ज्यादा खुश हुए कि नान सोनियाइट ( सोनिया को नेता न मानने वाले) राष्ट्रपति बने। और प्रणव मुखर्जी ने इससे भी दो कदम आगे जाकर यह साबित कर दिया कि वे तो नान कांग्रेसी भी हैं। राष्ट्रपति पद से रिटायर होते ही सीधे संघ मुख्यलय नागपुर पहुंच गए। अब उनके बेटे अभिजित भी जिन्हें कांग्रेस ने प्रणव मुखर्जी के बदले सांसद बनवाया था कांग्रेस छोड़ गए।

तो खैर 2012 के बाद ही कांग्रेस के खिलाफ एक नकली आंदोलन शुरू किया गया। जिसमें सारा विपक्ष एक ऐसे शख्स अन्ना हजारे के पीछे हो लिया जो खुद किसी की कठपुतली था। आज कहां है लोकपाल? कहां है अन्ना हजारे? कोरोना में लोगों को अस्पताल तक में भर्ती न हो पाना, जीवन रक्षक इंजेक्शन, आक्सीजन न मिल पाना। श्मशान तक में जगह न मिल पाने के कारण खेतों में जलाना, नदी किनारे रेत में शवों को दबाना. गंगा में बहाना। क्या क्या नहीं हुआ। मगर कहां थे वह दूसरे गांधी अन्ना हजारे? लोगों की नौकरियां छूटीं, मजदूर सैंकड़ों किलोमीटर पैदल घर गए, किसान छह महीनों से सड़कों पर धरने पर बैठे हैं। कहां हैं अन्ना की संवेदना? एक सुपारी ली थी। काम किया। केन्द्र और दिल्ली दोनों जगह सरकार बदली और चले गए।

उस समय दिग्विजय सिंह ने कहा था कि अन्ना हजारे संघ के आदमी हैं। उन्होंने कहा था कि सरकार और संगठन एक ही आदमी के पास न रहने से अन्ना आंदोलन से ठीक से नहीं निपटा जा रहा। शक्ति के दो केन्द्र अनिर्णय पैदा कर रहे हैं। और वही हुआ। अन्ना हजारे से बात की जाती रही। कांग्रेस के अंदर से ही उन्हें समर्थन दिया जाता रहा। और फिर एक नकली आंदोलन ने पहले दिल्ली की और फिर केन्द्र की सरकार पलट दी।

कांग्रेस अपने असली आंदोलनों से भी वह माहौल पैदा नहीं कर पा रही। राहुल प्रियंका की कोशिशों में कोई कमी नहीं है। मगर राज्य स्तर पर जिला स्तर पर जनता की समस्याओं को उठाने की कोई कोशिश नहीं हो रही है इतने मुद्दे तो किसी विपक्ष को कभी नहीं मिले। गिरती अर्थ व्यवस्था, छंटनी, बेरोजगारी, मंहगाई ने मध्यम वर्ग की कमर तोड़ दी। इस पर मजाक यह कि अभी देखा कि सरकारी बैंक कोरोना के इलाज के लिए पर्ननल लोन आफर कर रहे हैं।

इलाज जो सरकार को फ्री करवाना चाहिए वह मिडिल क्लास लोन लेकर करवाएगा! एक और ईएमआई। पहले ही मकान, गाड़ी, दूसरे पर्सनल लोन की ईएमआई चुका नहीं पा रहा है। और इलाज भी कर्ज लेकर! मगर न वह कुछ बोलता है और न ही उसकी आवाज को कोई जोर देकर उठाता है।

अभी भोपाल में दिग्विजय गोविन्दपुर औद्यगिक क्षेत्र का पार्क जिसकी जमीन की कीमत करोड़ों में है, संघ से जुड़े एक संगठन को मात्र एक रुपए में देने के विरोध कर रहे थे। दिग्विजय ने कहा कि यहां मजदूर दोपहर का खाना खाते हैं। इसे मत दो। कहीं और दे दो। लेकिन वहां के पेड़ काट दिए, जला दिए। मुख्यमंत्री शिवराज ने उनके पत्र का जवाब दिया नहीं दिया न मिलने का समय दिया। मध्य प्रदेश की राजनीति में आपसी सौहार्द की पुरानी परंपराएं हैं। दिग्विजय सिंह जब मुख्यमंत्री थे तो शिवराज एक्सीडेंट में गंभीर रूप से घायल हो गए थे। दिग्विजय ने तत्काल चिकित्सा सुविधा के साथ सरकारी जहाज उपलब्ध करवाया। दिग्विजय अपने दस साल के शासनकाल में विपक्षियों की भी मानवीय आधार पर मदद करने के लिए मशहूर रहे हैं। ऐसे में उन पर लाठी, पानी से हमले की बहुत प्रतिक्रिया हो रही है। मध्य प्रदेश में यह एक टर्निंग पाइंट हो सकता है। जनता हमेशा संघर्ष करने वाले नेता को पसंद करती है। और कार्यकर्ता भी ऐसे ही नेता की पीछे चलता है। चार साल पहले की दिग्विजय की नर्मदा यात्रा ने मध्य प्रदेश में शिवराज की 15 साल पुरानी सरकार पलट दी थी।

अब यूपी में चुनाव है। कांग्रेस की सबसे बड़ी परीक्षा। क्योंकि यहां की इन्चार्ज महासचिव खुद प्रियंका गांधी हैं। पंचायत चुनावों में सबने देखा कि किस तरह एसपी को, पत्रकारों को मारा। एसपी कह रहा है कि भाजपा वाले बम लेकर आए। गोलियां चलीं। महिलाओं की साड़ी खींची गई। प्रियंका बहुत कड़े सवाल उठा रही हैं। यूपी पहुंच रही हैं। उन्हें वहां अकेला नहीं छोड़ा जा सकता। कांग्रेस को यूपी को समझने वाले अनुभवी नेता को वहां उनकी मदद के लिए लगाना होगा। यूपी योगी या प्रियंका दोनों में से किसी का भी वाटरलू साबित हो सकता है। ऐसे में सोनिया और राहुल किस तरह की पेशबंदी करते हैं यह देखना दिलचस्प है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)