पंकज चतुर्वेदी
यदि आज जो बच्चे पदक ला रहे हैं या हम जिन पर बेटी बेटा कह कर देश का मान बढ़ाने का बोझ दे रहे हैं, उनमें से अधिकांश प्रतिभावान होने के बावजूद मुफ़लिस थे। तब देश को उनकी परवाह नहीं थी और आगे भी नहीं होगी। यह कड़वा सच है कि कई खेल प्रतिभाएं न्यूनतम सुविधाओं के अभाव में अपना जीवन तक त्याग रही थीं, असल में किसी को भी खेल या खिलाडी से प्यार नहीं है, यह तो महज ओलंपिक का तमगे से मिली प्रसिद्धि को बाजार में भुनाने के लालची लोगों का तमाशा है।
एरिक प्रभाकरः यह नाम कई के लिये नया हो सकता है लेकिन अगर आप भारतीय ओलंपिक के इतिहास को खंगालेंगे तो इस नाम से भी परिचित हो जाएंगे। 23 फरवरी 1925 को जन्में प्रभाकर ने 1948 में लंदन ओलंपिक में भारत की तरफ से 100 मीटर फर्राटा दौड़ में हिस्सा लिया था। उन्होंने 11.00 सेकेंड का समय निकाला और क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे। महज शुरू दशमलव तीन सेकेंड से वे पदक के लिए रह गए थे। हालांकि सन 1944 में वे 100 मीटर के लिए 10.8 सेकंड का बड़ा रिकार्ड बना चुके थे। वे सन 1942 से 48 तक लगातार छह साल 100 व 400 मीटर दौड के राष्ट्रीय चेंपियन रहे थे।
उस दौर में अर्थशास्त्र में एमए, वह भी गोल्ड मेडल के साथ, फिर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शिक्षा के लिए रोड्स फेलोशिप पाने वाले पहले भारतीय, यही नहीं आजाद भारत की पहली आईएएस में चयनित श्री एरिक प्रभाकर की किताब ‘द वे टु एथलेटिक्स गोल्ड’ सन 1994 में आई थी व बाद में उसका हिंदी व कई अन्य भारतय भाषाओं में अनुवाद नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापा। काश हमारे खेल महकमे में से किसी जिम्मेदार ने उस पुस्तक को पढ लिया होता।
उन्होंने बहुत बारीकी से और वैज्ञानिक तरीके से समझाया है कि भारत में किस तरह से सफल एथलीट तैयार किये जा सकते हैं। उन्होंने इसमें भौगोलिक स्थिति, खानपान चोटों से बचने आदि के बारे में भी अच्छी तरह से बताया है। भारतीय खेलों के कर्ताधर्ताओ हो सके तो कभी यह किताब पढ़कर उसमें दिये गये उपायों पर अमल करने की कोशिश करना। यदि वह पुस्तक हर खिलाड़ी, हर कोच, प्रत्येक खेल संघ के सदस्यों को पढने और उस पर ईमादारी से मनन करने को दी जाए तो मैं गारंटी से कह सकता हूं कि परिणाम अच्छे निकलेंगे।