अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना के वापस लौटते ही तालिबान ने लगभग पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया। राष्ट्रपति अशरफ ग़नी अपने चंद सहयोगियों के साथ देश छोड़कर भाग गए। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के सत्तारूढ़ होने की ख़बरों के बीच तालिबान को लेकर एक बार फिर से बहस शुरू हो गई है। तालिबान सरकार में महिलाओं की क्या स्थिति होगी? स्कूलों की स्थिति क्या होगी? मानवाधिकारों की रक्षा होगी कि नहीं होगी इसे लेकर बुद्धिजीवी वर्ग चिंतित है। बुद्धिजीवी वर्ग की चिंता जायज़ है, क्योंकि 2001 में अमेरिका द्वारा सत्ता से बेदखल किए गए तालिबान की सत्ता का अतीत दाग़दार है। लेकिन तालिबान के बाद जिन ‘मित्र राष्ट्रों’ ने अफ़ग़ानिस्तान से तथाकथित आतंकवाद खत्म करने के नाम पर ऑपरेशन चलाए उसका अतीत तालिबान के अतीत से कहीं ज्यादा क्रूर है। अफ़ग़ानिस्तान से आतंकवाद समाप्त करने के नाम पर आई दुनिया भर की सेनाओं ने किस तरह आतंक मचाया है उसकी एक झलक नवंबर 2020 में आई ऑस्ट्रेलियाई डिफ़ेंस फ़ोर्स (एडीएफ़) की रिपोर्ट में साफ दिखाई देती है।
इस रिपोर्ट में बताया गया कि अफ़ग़ानिस्तान में 2009 से 2013 के बीच ऑस्ट्रेलिया के सैनिकों ने 39 अफ़ग़ान नागरिकों की हत्या सिर्फ इसलिये कर दी गई क्योंकि ‘जिन जूनियर सैनिकों ने कभी किसी की हत्या नहीं की थी, उनसे कहा गया कि वो क़ैदियों को गोली मारकर अपना हाथ साफ़ कर सकते हैं।’ ऑस्ट्रेलियाई डिफ़ेंस फ़ोर्स (एडीएफ़) ने अपनी एक बहुप्रतीक्षित जाँच-रिपोर्ट में लिखा है कि ‘उन्हें इस बात के पुख़्ता सुबूत मिले हैं कि अफ़ग़ान युद्ध के दौरान कुछ ऑस्ट्रेलियाई सैनिकों ने ग़ैर-क़ानूनी ढंग से 39 अफ़ग़ान लोगों की हत्या की।’ ऑस्ट्रेलियाई डिफ़ेंस फ़ोर्स जाँच के अनुसार पॉल ब्रेरेटन के नेतृत्व में इन सभी वारदातों की जाँच की गई जिसके लिए क़रीब 400 चश्मदीदों के बयान दर्ज किये गए। उन्होंने पाया कि ‘अपने अपराध को छिपाने के लिए ऑस्ट्रेलियाई सैनिकों ने मारे गये बेगुनाह अफ़ग़ान लोगों के आसपास जानबूझकर बंदूक़ें और अन्य हथियार रखे ताकि कहानी को बदला जा सके।’
ध्यान दीजिये ऑस्ट्रेलियाई सैनिकों ने कुल 39 अफग़ान नागरिकों को अपना ‘हाथ साफ’ करने से मक़सद से मौत के घाट उतार दिया। जिन्हें मारा गया वे अपराधी नहीं थे, तालिबानी भी नहीं थे लेकिन इसके बावजूद नए भर्ती हुए सैनिकों से ‘प्रशिक्षण’ के नाम पर लोगों की हत्या करा दी गईं। पूरी दुनिया में आतंकवाद के लिये एक ही शब्द प्रचलित है, और वह है इस्लामिक आतंकवाद, इसके लिये दुनिया में कहीं भी जनसंहार हो जाए, हिंसा हो जाए, उसके लिये किसी धर्म का नाम नहीं दिया जाता है। ऐसा क्यों है? सिर्फ प्रशिक्षण के तौर पर 39 इंसानों की हत्या कर देना क्या आतंकवाद नहीं है? इसे आतंकवाद कौन कहेगा? और कौनसा आतंकवाद कहेगा? क्या इसे सैन्य आतंकवाद कहा जाएगा? या फिर आरोपितों के धर्म के पता करके इन हत्याओं का ज़िम्मेदार उनके धर्म को माना जाएगा? नहीं, इस पर ऐसा कुछ नहीं होगा। मगर क्यों? यही वह सवाल है जिसका जवाब नहीं मिल पाता।
देखते-देखते पश्चिमी दुनिया ने एक धर्म विशेष को आतंकवाद से जोड़ दिया गया, उसके लिये दुनिया की डिक्शनरी में इस्लामिक आतंकवाद शब्द भी ईज़ाद कर लिया गया। उल्टे आतंकवाद का शिकार वर्ग पूरी दुनिया में कहते रहे कि इस्लाम का आतंकवाद से कोई रिश्ता नहीं है, जिहाद का आतंकवाद से कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन किसने सुनी? किसी ने भी नहीं। बड़े-बड़े ‘उदारवादी सेकुलर’ अब उस तालिबान को दुनिया के लिए ख़तरा बता रहे हैं जिसने विधिवत रूप से अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता संभाली भी नहीं है। लेकिन तालिबान को किसने पैदा किया? इसका वित्तपोषक कौन हैं? कौन है जो अफ़ग़ानिस्तान में 9/11 की घटना के बाद मारे गए दो लाख चालीस हज़ार लोगों की मौत की ज़िम्मेदारी लेगा? इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश ही नही की जा रही है।
15 अगस्त 2021 को जैसे ही तालिबान ने काबुल में घुसना शुरू किया, अमेरिका की ओर से कह दिया गया कि अफ़ग़ानिस्तान ‘मिशन सफल रहा’, सवाल है कि कौनसा मिशन? पूरी दुनिया में इस्लाफोबिया क्रिएट करके इस्लामिक आतंकवाद शब्द गढ़ा गया जिसके भयवाह परिणाम आम मुसलमानों ने भुगते हैं। उसका दोषी कौन कहलाया जाएगा? तालिबान के क्रूर अतीत के मद्देनज़र तालिबान का सत्ता में लौटना चिंताजनक जरूर है, लेकिन अमेरिकी और मित्र राष्ट्रों की क्रूरता ने बीते 20 वर्षों में अफ़ग़ानिस्तान में जो तबाही मचाई है उसका दोषी किसे ठहराया जाएगा? क्या उसके दोषियों को दुनिया की किसी अदालत में ले जाकर दोषी ठहराकर सज़ाएं दी जाएंगी।