निसार सिद्दीक़ी
पहली बात की फिल्म “थप्पड़” के लिए अनुभव सिन्हा को बहुत बहुत धन्यवाद। यह फिल्म वह आईना है, जिसमें झांकने के बाद आप की एक ऐसी तस्वीर सामने आएगी, जो आप खुद देखना पसंद नहीं करेंगे। इस आईने में आप वह सच्चाई देखेंगे जो आपके घरों में माँओं-बहनों-बहुओं के साथ होता है। लोग बड़ी आसानी से अपनी पत्नी को थप्पड़ मार देते हैं और यह बात हमारे घरों में बिल्कुल आम होती है। यह बात इतनी आम होती है कि कुछ औरतें लाठी-डंडों तक से पीटी जाती हैं, उनका कई दिनों तक उठना-बैठना नहीं हो पाता है। कुछ रोज़-रोज़ की प्रताड़ना से जलकर मर जाती हैं, कुछ ज़हर खा लेती हैं, कुछ ज़ालिम पति की हत्या करके जेल की सज़ा काटती हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि यह थप्पड़ बहुत ही “आम” है। लेकिन माई डियर यह “थप्पड़” आम नहीं है। यह थप्पड़ एक महिला के सम्मान, गरिमा और स्वाभीमान पर हमला है।
थप्पड़ फिल्म का एक-एक सीन जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था। मुझे मेरी अम्मी का चेहरा याद आता चला जा रहा था। कितनी आम बात थी जब अब्बू ने अम्मी को एक के बाद एक 4 थप्पड़ जड़ दिए। अम्मी चुपचाप उन थप्पड़ों को सहती रही। हम बच्चे सहमे से अब्बू का गुस्सा देखते रहे और डर के चुपचाप बैठे रहे। सच बताऊं तो उस वक्त अम्मी के आंखों से निकलने वाले आंसुओं ने बहुत रूलाया था आज फिल्म ने दोबारा रुला दिया। उस दिन की मेरी अम्मी की बेबसी मुझे बहुत ज्यादा दुख पहुंचा रही है। मैं अपने अम्मी के बारे में इसलिए नहीं लिख रहा हूं कि मुझे अपने अब्बू को बुरा साबित करना है बल्कि उनको यह अहसास दिलाना है कि वह गलत थे। कई बार हमें सही बात लिखने-बोलने और करने पर भी खुशी नहीं मिलती है, लेकिन सही बात तो करनी पड़ेगी ना? उस बेबसी पर बात तो करनी पड़ेगी ना?
क्योंकि यह बेबसी सिर्फ मेरी अम्मी की नहीं थी, बल्कि इस देश के लाखों लोगों की अम्मियों की बेबसी है। यह बेबसी इसलिए होती है कि क्योंकि समाज ने सभ्यता और संस्कृति का सारा बोझ औरतों के ही कंधे पर डाल दिया है। शादी के बाद घर छोड़ जाएगी तो वह स्त्री ही होगी, पति को परमेश्वर मानना उसका धर्म है, सबकी सेवा ही उसका कर्म है और मायके से डोली उठेगी और सुसराल से अर्थी। यह जुमले समाज ने एक औरत को घर की चारदीवारी से बांधकर रखने के लिए गढ़े हैं। औरतों को हमारे समाज से एक सम्मान भी मिला है कि वह “घर की इज़्ज़त” है। लेकिन यह इज्ज़त रूपी सम्मान इसलिए है ताकी उसे खुद के लिए, धर्म के लिए और जाति के लिए सुरक्षित करके रखा जा सके। कुल, खानदान, हड्डी, खून की शुद्धता बनाकर रखी जा सके।
अगर वह घर के अंदर रहेगी तो सभ्य और घर से बाहर जाएगी तो बेहया, घरवालों की मर्जी से शादी करेगी तो संस्कारी और अपना वर खुद चुनती है तो कुजात, बदजात से ना लेकर न जाने क्या क्या तोहमतें मढ़ दिए जाते हैं। औरतों को समझने का हमारा नजरिया बहुत संकुचित है। कमाल की बात है कि हम उसे इतना कुछ समझते हैं लेकिन एक बात ये नहीं समझते कि उसका भी सम्मान है, वह भी बराबरी की हकदार है, उसे भी समाज के साथ आगे बढ़ने का हक है। वह कोई वस्तु नहीं जिसे घर में छिपा कर रखा जाए या किसी पर्दे से ढंककर रखा जाए। उसे “थप्पड़” नहीं “सम्मान” की जरूरत है।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्विद्यालय में रिसर्च स्कॉलर हैं)